Friday, 11 April 2014

सूक्त - 86

[ऋषि- अकृष्टामाष ऋषिगण । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8429
प्र  त  आशवः  पवमान  धीजवो  मदा  अर्षन्ति  रघुजा  इव त्मना ।
दिव्या: सुपर्णा मधुमन्त इन्दवो मदिन्तमासः परि कोशमासते॥1॥

जो  माया  से  बच - कर  केवल  परब्रह्म  को  ही  भजते  हैं ।
प्रभु उनके मन में आ कर के खुद ही उजियारा करते हैं ॥1॥

8430
प्र   ते   मदासो  मदिरास आशवोSसृक्षत  रथ्यासो  यथा  पृथक् ।
धेनुर्न वत्सं पयसाभि वज्रिणमिन्द्रमिन्दवो मधुमन्त ऊर्मयः॥2॥

जैसे  रथ  के  पहिए  से  ही  उस  रथ  की  गति  बढ  सकती  है ।
वैसे  ही  चित्त - वृत्ति  ही  हमको  पथ  पर अग्रेषित  करती  है॥2॥

8431
अत्यो  न हियानो अभि वाजमर्ष स्वर्वित्कोशं दिवो अद्रिमातरम् ।
वृषा पवित्रे अधि सानो अव्यये सोमः पुनान इन्द्रियाय धायसे॥3॥

पावन  मन  वाला  मानुष  ही  प्रभु  से  सब  कुछ  पा  सकता  है ।
यश-वैभव का मालिक हमको अपना वैभव दिखला सकता है ॥3॥

8432
प्र त आश्विनीः पवमान धीजुवो दिव्या असृग्रन्पयसा धरीमणि ।
प्रान्तरृषयः स्थाविरीरसृक्षत ये त्वा मृजन्त्यृषिषाण वेधसः॥4॥

जो  प्रभु  की  पूजा  करते  हैं  उनके  ध्यान  में  प्रभु  आते  हैं ।
सूक्ष्म  बुध्दि  द्वारा  ही  उनको  हम अन्तर्मन  में  पाते  हैं ॥4॥ 

8433
विश्वा धामानि विश्वचक्ष ऋभ्वसःप्रभोस्ते सतःपरि यन्ति केतवः।
व्यानशिः पवसे सोम धर्मभिः पतिर्विश्वस्य भुवनस्य राजसि ॥5॥

प्रभु  अतुलित  बल  के  स्वामी  हैं  पात्रानुकूल  बल  देते  हैं ।
वे नित्य शुध्द वे नित्य बुध्द साधक को वही परखते हैं ॥5॥

8434
उभयतः पवमानस्य  रश्मयो  ध्रुवस्य  सतः परि  यन्ति  केतवः ।
यदी पवित्रे अधि मृज्यते हरिः सत्ता नि योना कलशेषु सीदति॥6॥

साधक  सत्कर्म  गली  में  जाते  प्रभु  प्रति - बिम्बित  होते  हैं ।
सज्जन  सहज  सरल  होते  हैं  वे  ही  पर- दुख  में  रोते  हैं ॥6॥

8435
यज्ञस्य केतुः पवते स्वध्वरः सोमो देवानामुप याति निष्कृतम् ।
सहस्त्रधारः  परि  कोशमर्षति  वृषा  पवित्रमत्येति  रोरुवत् ॥7॥

अहिंसा  सबसे  बडा  धर्म  है  धर्म-कर्म  में  प्रभु  बसता  है ।
वह परमेश्वर अति पावन है निर्मल मन में वह रहता है ॥7॥

8436
राजा समुद्रं नद्यो3 वि गाहतेSपामूर्मिं सचते सिन्धुषु श्रितः ।
अध्यस्थात्सानु पवमानो अव्ययं नाभा पृथिव्या धरुणो महो दिवः॥8॥

कितनी सुन्दर उसकी रचना कितने सुन्दर सरिता सागर ।
सबका आश्रय परमेश्वर है वह  ही  है अमृत  का गागर ॥8॥

8437
दिवो न सानु स्तनयन्नचिक्रदद् द्यौश्च यस्य  पृथिवी  च  धर्मभिः।
इन्द्रस्य सख्यं पवते विवेविदत्सोमः पुनानः कलशेति सीदति॥9॥

पृथ्वी  परिक्रमा  करती  है  सूरज  है  आलोक - प्रदाता ।
हमको पावन वही बनाता वही पिता है वह ही माता ॥9॥

8438
ज्योतिर्यज्ञस्य  पवते मधु प्रियं पिता देवानां जनिता विभूवसुः ।
दधातु रत्नं स्वधयोरपीच्यं मदिन्तमो मत्सर इन्द्रियो रसः॥10॥

यज्ञ - ज्योति  है  वह  परमात्मा  जो  प्रभु  से  करते  हैं  प्रेम ।
यश-वैभव  के  वे  मालिक  हैं  सदा  निभाते  हैं  वे  नेम ॥10॥

8439
अभिक्रन्दन्कलशं  वाज्यर्षति  पतिर्दिवः  शतधारो  विचक्षणः ।
हरिर्मित्रस्य सदनेषु सीदति मर्मृजानोSविभिःसिन्धुभिर्वृषा॥11॥

प्रभु  अनन्त  आनन्द  श्रोत  है  करता  है  सबका  अवलोकन ।
पात्र - मनुज के मन में रहता वह ही करता है पालन-पोषन॥11॥

8440
अग्रे  सिन्धूनां पवमानो अर्षत्यग्रे वाचो अग्रियो गोषु गच्छति ।
अग्रे वाजस्य भजते महाधनं स्वायुधः सोतृभिः पूयते वृषा॥12॥

परमात्मा  ने  हमें  दिया  है  शब्द  स्पर्श  रूप  रस  गन्ध ।
वह ही सुख-साधन देता है तरह-तरह के दिये सुगन्ध॥12॥

8441
अयं  मतवाञ्छकुनो  यथा  हितोSव्ये  ससार  पवमान  ऊर्मिणा ।
तव क्रत्वा रोदसी अन्तरा कवे शुचिर्धिया पवते सोम इन्द्र ते॥13॥

कर्मानुकूल  वह  फल  देता  है  शुभ -  कर्मों  का  वही  प्रदाता ।
श्रेष्ठ-कर्म हम करें निरंतर हम ही हैं अपने भाग्य-विधाता॥13॥

8442
द्रापिं  वसानो  यजतो  दिविस्पृशमन्तरिक्षप्रा  भुवनेष्वर्पितः ।
स्वर्जज्ञानो नभसाभ्यक्रमीत्प्रत्नमस्य पितरमा विवासति॥14॥

सत्कर्म  हमारे  कवच  सदृश  हैं  संकट  से  वही  बचाते  हैं ।
वे   ही  यश  - वैभव  देते  हैं  सज्जन  वही  बनाते  हैं  ॥14॥ 

8443
सो अस्य विशे महि शर्म यच्छति यो अस्य धाम प्रथमं व्यानशे ।
पदं यदस्य परमे व्योमन्यतो विश्वा अभि सं याति संयतः ॥15॥

जो  प्रभु  पर  निर्भर  रहते  हैं  प्रभु  रखते  हैं  उनका  ध्यान ।
सत्पथ पर उसको ले जाते बन जाता  है  मनुज महान ॥15॥ 

8444
प्रो अयासीदिन्दुरिन्द्रस्य निष्कृतं सखा सख्युर्न प्र मिनाति सङ्गिरम्।
मर्यइव   युवतिभिः  समर्षति  सोमः  कलशे   शतयाम्ना   पथा ॥16॥ 

कर्म  मार्ग  के अनुयायी  पर  वह  प्रभु  दया - दृष्टि  रखता  है ।
वह हम सबका सखा-सदृश है नेम-नियम वह तय करता है॥16॥

8445
प्र  यो  धियो  मन्द्रयुवो  विपन्युवः  पनस्युवः  संवसनेष्वक्रमुः ।
सोमं मनीषा अभ्यनूषत स्तुभोSभि धेनवः पयसेमशिश्रयुः॥17॥ 

साधक  प्रभु  की  पूजा  करते  हैं  वे  सत्संग  किया  करते  हैं ।
तीव्र-मन्द जिस गति से चलते वैसा ही फल भी चखते हैं ॥17॥

8446
आ नः सोम संयतं पिप्युषीमिषमिन्दो पवस्व पवमानो अस्रिधम्।
या  नो  दोहते त्रिरहन्नसश्चुषी  क्षुमद्वाजवन्मधुमत्सुवीर्यम् ॥18॥

हे  आलोक -  रूप  परमात्मा  तुम  हमको  अक्षय  वैभव  दो ।
गत आगत वर्तमान तीनों को महापराक्रम से तुम भर दो॥18॥

8447
वृषा  मतीनां  पवते  विचक्षणः  सोमो  अह्नः प्रतरीतोषसो  दिवः ।
क्राणा सिन्धूनां कलशॉ अवीवशदिन्द्रस्य हार्द्याविशन्मनीषिभिः॥19॥

प्रभु  योगी  के  मन  में  रहता  वही  जगह उसको  रुचती  है ।
सभी कामना पूरी करता श्रुति  भी  यही  कहा  करती है ॥19॥

8448
मनीषिभिः पवते पूर्व्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशॉ अचिक्रदत् ।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरदिन्द्रस्य वायोः सख्याय कर्तवे॥20॥

कर्म-योग   के ज्ञान-योग  के साधक  सख्य-भाव  से  भजते ।
अद्वैत-भाव में साधक रहता प्रभु आनन्द प्रवाहित करते॥20॥

8449
अयं  पुनान  उषसो  वि रोचयदयं सिन्धुभ्यो अभवदु लोककृत् ।
अयं त्रिः सप्त दुदुहान आशिरं सोमो हृदे पवते चारु मत्सरः॥21॥

उषा-किरण  ले  कर  आती  है  प्रतिदिन  पलता  पावन  प्रभात ।
प्रकृति - सुन्दरी  क्रीडा  करती  वैभव  का  देती  है  प्रपात ॥21॥ 

8450
पवस्व सोम दिव्येषु धामसु सृजान इन्दो कलशे पवित्र आ ।
सीदन्निन्द्रस्य जठरे कनिक्रदन्नुभिर्यतः सूर्यमारोहयो दिवि॥22॥

यह  जगती  प्रभु  की  सत्ता  है विविध-विधा से होती रचना ।
कर्म-योग का पाठ-पढाती कहती उद्यम - घर में बसना ॥22॥

8451
अद्रिभिः सुतः पवसे  पवित्र  ऑ  इन्दविन्द्रस्य  जठरेष्वाविशन् ।
त्वं नृचक्षा अभवो विचक्षण सोम गोत्रमङ्गिरोभ्योSवृणोरप॥23॥

उज्ञोगी  को  प्रेरित  करता  है  उसके  अन्तर्मन  में  बस जाता ।
वह सर्वज्ञ सर्व-व्यापक है सज्जन-रक्षा का वचन निभाता॥23॥

8452
त्वां  सोम  पवमानं  स्वाध्योSनु  विप्रासो  अमदन्नवस्यवः ।
त्वां सुपर्ण आभरद्दिवस्परीन्दो विश्वाभिर्मतिभिःपरिष्कृतम्॥24॥

जो  साधक  सूझ-बूझ  से  अपना  करता  रहता  है  परिष्कार ।
वही आत्म-दर्शन  पाता  है  जो  तप  करता  है  निर्विकार॥24॥

8453
अव्ये  पुनानं  परि  वार ऊर्मिणा हरिं नवन्ते अभि सप्त धेनवः ।
अपामुपस्थे अध्यायवःकविमृतस्य योना महिषा अहेषत॥25॥

जो  परमात्मा  को  भजता  है  वह  ही  है  बस  चतुर  सुजान ।
वह  सत्पथ  पर चलता है पूरा करता अभिनव अभियान॥25॥

8454
इन्दुः पुनानो अति गाहते मृधो विश्वानि कृण्वन्त्सुपथानि यज्यवे ।
गा: कृण्वानो निर्णिजं हर्यतः कविरत्यो न क्रीळन्परि वारमर्षति॥26॥

प्रभु  उपासना  जो  करते  हैं  प्रभु  रखते  हैं  उनका  ध्यान ।
पथ  के  कण्टक  वही  हटाते  कर देते हैं पथ-आसान ॥26॥

8455
असश्चतः शतधारा अभिश्रियो हरिं नवन्तेSव ता उदन्युवः ।
क्षिपो मृजन्ति परि गोभिरावृतं तृतीये पृष्ठे अधि रोचने दिवः॥27॥

आलोक-पुञ्ज उस परमात्मा का चित्त-वृत्ति करती है ध्यान ।
मानव परमानन्द पाता है बन जाता है मनुज महान ॥27॥

8456
तवेमा: प्रजा दिव्यस्य रेतसस्त्वं विश्वस्य भुवनस्य राजसि ।
अथेदं विश्वं पवमान ते वशे त्वमिन्दो प्रथमो धामधा असि॥28॥

हे  समर्थ  परमेश्वर  मेरे  हमको  दो  अपना  सान्निध्य ।
मेरा मन तेरे वश में हो मुझे चाहिए  बस  सामीप्य॥28॥

8457
त्वं समुद्रो असि विश्ववित्कवे तवेमा: पञ्च प्रदिशो विधर्मणि ।
त्वं द्यां च पृथिवीं चाति जभ्रिषे तव ज्योतींषि पवमान सूर्यः॥29॥

हे  परमेश्वर  तुम  समुद्र  हो  तुम  ही  पालक - पोषक  हो ।
तुम ही जगती के स्वामी हो तुम हम सबके रक्षक हो ॥29॥

8458
त्वं  पवित्रे  रजसो  विधर्मणि   देवेभ्यः सोम  पवमान  पूयसे ।
त्वामुशिजःप्रथमा अगृभ्णत तुभ्येमा विश्वा भुवनानि येमिरे॥30॥

हे  प्रभु  जग  को  पावन  कर  दो  हम  सब भी पावन हो जायें ।
तेरे प्रकाश से सभी प्रकाशित तुझसे हम भी कुछ तो पायें॥30॥

8459
प्र  रेभ  एत्यति  वारमव्ययं  वृषा  वनेष्वव  चक्रदध्दरिः ।
सं धीतयो वावशाना अनूषत शिशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतम्॥31॥

जो  परमेश्वर  की  सत्ता  को  मन  से  करते  हैं  स्वीकार ।
वे ही प्रभु को पा सकते हैं जीवन बन जाता सत्कार ॥31॥

8460
स  सूर्यस्य  रश्मिभिः  परि  व्यत  तन्तुं  तन्वानस्त्रिवृतं  यथा  विदे ।
नयन्नृतस्य प्रशिषो नवीयसीः पतिर्जनीनामुप याति निष्कृतम्॥32॥

शुभ - संस्कृति  का  ही  प्रवाह  हो  देश  धर्म  का  हो  उत्थान ।
अन्वेषण  अत्यावश्यक  है  जिससे  वसुधा  बने  महान ॥32॥

8461
राजा सिन्धूनां पवते पतिर्दिव ऋतस्य याति पथिभिः कनिक्रदत् ।
सहस्त्रधारः परि षिच्यते हरिः पुनानो वाचं जनयन्नुपावसुः॥33॥

अनन्त- शक्ति  का  वह  स्वामी  है  सत्पथ  पर प्रेरित  करता  है ।
वेद-गिरा के माध्यम से  वह  हम  पर  दया-दृष्टि  रखता  है ॥33॥

8462
पवमान मह्यर्णो वि धावसि सूरो न चित्रो अव्ययानि पव्यया ।
गभस्तिपूतो नृभिरद्रिभिः सुतो महे वाजाय धन्याय धन्वसि॥34॥

जैसे सूर्य-किरण लाती सुख-कर स्वर्णिम आलोक धरा पर ।
बस वैसे ही ज्ञान-मार्ग से साधक को वर देते परमेश्वर॥34॥

8463
इषमूर्जं  पवमानाभ्यर्षसि  श्येनो  न  वंसु  कलशेषु  सीदसि ।
इन्द्राय मद्वा मद्यो मदः सुतो दिवो विष्टम्भ उपमो विचक्षणः॥35॥

प्रभु  पावन  मन  में  रहते  हैं  पुरुषार्थी  है  उनको  प्यारा ।
परमात्मा आनन्द-रूप हैं उस पर है अधिकार हमारा ॥35॥

8464
सप्त स्वसारो अभि मातरः शिशुं नवं जज्ञानं जेन्यं विपश्चितम् ।
अपां गन्धर्वं दिव्यं नृचक्षसं सोमं विश्वस्य भुवनस्य राजसे॥36॥

दिव्य - दृष्टि  प्रभु  ही  देते  हैं  वे  साधक  का  रखते  ध्यान ।
विज्ञान -ज्ञान जगती में फैले बन जायें हम सचमुच महान ॥36॥

8465
ईशान  इमा  भुवनानि  वीयसे  युजान  इन्दो  हरितः  सुपर्ण्यः ।
तास्ते क्षरन्तु मधुमद्घृतं पयस्तव व्रते सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः॥37॥

चर  में  अचर  में  तुम  ही  तुम  हो परमेश्वर तुम सर्व-व्याप्त हो ।
तुम हमें प्रेम से प्रेरित करते तुम हम सबको सहज प्राप्त हो॥37॥

8466
त्वं नृचक्षा असि सोम विश्वतः पवमान वृषभ ता वि धावसि ।
स नः पवस्व वसुमध्दिरण्यवद्वयं स्याम भुवनेषु जीवसे॥38॥

हे  सोम  शक्ति-वर्धन  करना  सतत अनुग्रह हम पर करना ।
सबको सुख-कर जीवन देना धन-धान सदा देते रहना ॥38॥

8467
गोवित्पवस्व   वसुविध्दिरण्यविद्रेतोधा   इन्दो   भुवनेष्वर्पितः ।
त्वं सुवीरो असि सोम विश्ववित्तं त्वा विप्रा उप गिरेम आसते॥39॥

सभी  सम्पदा  के  तुम  स्वामी   सबका साहस तुम्हीं बढाते ।
तुम सर्वज्ञ समर्थ तुम्हीं हो तुम्हीं पराक्रम पाठ - पढाते ॥39॥

8468
उन्मध्व ऊर्मिर्वनना अतिष्ठिपदपो वसानो महिषो वि गाहते ।
राजा पवित्ररथो वाजमारुहत्सहस्त्रभृष्टिर्जयति श्रवो बृहत्॥40॥

वेद - ऊर्मि  है  मधुर  सुनहरी  वेद- ऋचायें  नव - बिहान हैं ।
जगती को आलोकित करती काल-जयी हैं वर्त्तमान  हैं ॥40॥

8469
स  भन्दना  उदियर्ति  प्रजावतीर्विश्वायुर्विश्वा:  अहर्दिवि ।
ब्रह्म प्रजावद्रयिमश्वपस्त्यं पीत इन्दविन्द्रमस्मभ्यं याचतात्॥41॥

हे  आलोक - रूप  परमात्मा  काल - जयी  है  वेद - धरोहर ।
धर्म अर्थ और काम मोक्ष है आज भी ताजा रहे निरन्तर ॥41॥

8470
सो अग्रे अह्नां हरिर्हर्यतो मदः प्र चेतसा चेतयते अनु द्युभिः ।
द्वा जना यातयन्नन्तरीयते नरा च शंसं दैव्यं च धर्तरि॥42॥

परमात्मा  जगती  का  रक्षक  नित-नूतन  वैभव  देता  है ।
ज्ञान-योग हो कर्म-योग  हो  दोनों  को अपना लेता है ॥42॥

8471
अञ्जते व्यञ्जते समञ्जते क्रतुं रिहन्ति मधुनाभ्यञ्जते ।
सिन्धोरुच्छ्वासे पतयन्तमुक्षणं हिरण्यपावा: पशुमासु गृभ्णते॥43॥

उस प्रभु की गति ज्ञान-वान है आनन्द-रूप है सर्व-व्याप्त है ।
हम चाहे जैसे भी हों पर हम सबको उसकी कृपा प्राप्त है॥43॥

8472
विपश्चिते  पवमानाय  गायत  मही  न  धारात्यन्धो  अर्षति ।
अहिर्न जूर्णामति सर्पति त्वचमत्यो न क्रीळन्नसरद्वृषा हरिः॥44॥

उस  अनन्त  का  वैभव अद्भुत आओ  उस  प्रभु  का  गायें  गीत ।
अति विचित्र वैज्ञानिक है वह उसका परिचय पावन पुनीत॥44॥

8473
अग्रेगो  राजाप्यस्तविष्यते  विमानो  अह्नां  भुवनेष्वर्पितः ।
हरिर्घृतस्नुः सुदृशीको अर्णवो ज्योतीरथः पवते राय ओक्यः॥45॥

परमेश्वर  जगती  का  मालिक  सबको  करता  है  वह  प्रेम ।
वह सुख-सागर है हम सबका वह ही सिखलाता है नेम॥45॥

8474
असर्जि  स्कम्भो  दिव  उद्यतो  मदः  परि  त्रिधातुर्भुवनान्यर्षति ।
अंशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतं गिरा यदि निर्णिजमृग्मिणो ययुः॥46॥

आनन्द रूप है वह परमात्मा काल-जयी है उसकी महिमा ।
साधक परमानन्द पाता है गूँज रही है उसकी गरिमा ॥46॥

8475
प्र ते धारा अत्यण्वानि मेष्यः पुनानस्य संयतो यन्ति रंहयः ।
यद् गोभिरिन्दो चम्वोः समज्यस आ सुवानः सोम कलशेषु सीदसि॥47॥

जब  साधक  अन्तर्मुख  होकर  परमात्मा  का  करता ध्यान ।
प्रेम-भाव  में  बह  जाता  है  वह  परमेश्वर कृपा-निधान ॥47॥

8476
पवस्व सोम क्रतुविन्न उक्थ्योSव्यो वारे परि धाव मधु प्रियम् ।
जहि विश्वान् रक्षस इन्दो अत्रिणो बृहद्वदेम विदथे सुवीरा:॥48॥

दुष्ट - दलन  अति  आवश्यक  है  हे  प्रभु  रक्षा  करो  हमारी ।
सब  दोषों  से  हमें  बचाना  हे  कृपा-सिन्धु  हे  गिरधारी ॥48॥     

1 comment:

  1. प्रभु की महिमा का अद्भुत गुणगान...

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