[ऋषि- वसु भारद्वाज । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]
8392
सोमस्य धारा पवते नृचक्षस ऋतेन देवान्हवते दिवस्परि ।
बृहस्पते रवथेना वि दिद्युते समुद्रासो न सवनानि विव्यचुः॥1॥
शब्द - ब्रह्म को पहले जानो प्रभु - वैभव का हो विस्तार ।
प्रभु - उपासना जो करते हैं उनका बेडा हो जाता पार॥1॥
8393
यं त्वा वाजिन्नघ्न्या अभ्यनूषतायोहतं योनिमा रोहसि द्युमान् ।
मघोनामायुः प्रतिरन्महि श्रव इन्द्राय सोम पवसे वृषा मदः ॥2॥
साधक को दीर्घ आयु मिलती है उद्योगी को मिलता है बल ।
वह अनन्त है शक्ति विभूषित सज्जन पाते हैं शुभ-फल ॥2॥
8394
एन्द्रस्य कुक्षा पवते मदिन्तम ऊर्जं वसानः श्रवसे सुमङ्गलः ।
प्रत्यङ् स विश्वा भुवनानि पप्रथे क्रीळन्हरिरत्यःस्यन्दते वृषा॥3॥
आनन्द - रूप है वह परमात्मा आनन्द की वर्षा करता है ।
कण - कण में है वास उसी का दोषों को वह ही हरता है ॥3॥
8395
तं त्वा देवेभ्यो मधुमत्तमं नरः सहस्त्रधारं दुहते दश क्षिपः ।
नृभिःसोम प्रच्युतो ग्रावभिःसुतो विश्वॉदेवॉ आ पवस्वा सहस्त्रजित्॥4॥
परमेश्वर आनन्द - प्रदाता निज साधक को देते आनन्द ।
दुष्ट - दलन वे ही करते हैं साधक पाता है परमानन्द ॥4॥
8396
तं त्वा हस्तिनो मधुमन्तमद्रिभिर्दुहन्त्यप्सु वृषभं दश क्षिपः ।
इन्द्रं सोम मादयन्दैव्यं जनं सिन्धोरिवोर्मिःपवमानो अर्षसि॥5॥
सबका अभीष्ट पूरा होता है बन्धन - मुक्त मनुज जीता है ।
जो ज्ञान-कर्म की राह पकडता आनन्द का अमृत पीता है॥5॥
8392
सोमस्य धारा पवते नृचक्षस ऋतेन देवान्हवते दिवस्परि ।
बृहस्पते रवथेना वि दिद्युते समुद्रासो न सवनानि विव्यचुः॥1॥
शब्द - ब्रह्म को पहले जानो प्रभु - वैभव का हो विस्तार ।
प्रभु - उपासना जो करते हैं उनका बेडा हो जाता पार॥1॥
8393
यं त्वा वाजिन्नघ्न्या अभ्यनूषतायोहतं योनिमा रोहसि द्युमान् ।
मघोनामायुः प्रतिरन्महि श्रव इन्द्राय सोम पवसे वृषा मदः ॥2॥
साधक को दीर्घ आयु मिलती है उद्योगी को मिलता है बल ।
वह अनन्त है शक्ति विभूषित सज्जन पाते हैं शुभ-फल ॥2॥
8394
एन्द्रस्य कुक्षा पवते मदिन्तम ऊर्जं वसानः श्रवसे सुमङ्गलः ।
प्रत्यङ् स विश्वा भुवनानि पप्रथे क्रीळन्हरिरत्यःस्यन्दते वृषा॥3॥
आनन्द - रूप है वह परमात्मा आनन्द की वर्षा करता है ।
कण - कण में है वास उसी का दोषों को वह ही हरता है ॥3॥
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तं त्वा देवेभ्यो मधुमत्तमं नरः सहस्त्रधारं दुहते दश क्षिपः ।
नृभिःसोम प्रच्युतो ग्रावभिःसुतो विश्वॉदेवॉ आ पवस्वा सहस्त्रजित्॥4॥
परमेश्वर आनन्द - प्रदाता निज साधक को देते आनन्द ।
दुष्ट - दलन वे ही करते हैं साधक पाता है परमानन्द ॥4॥
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तं त्वा हस्तिनो मधुमन्तमद्रिभिर्दुहन्त्यप्सु वृषभं दश क्षिपः ।
इन्द्रं सोम मादयन्दैव्यं जनं सिन्धोरिवोर्मिःपवमानो अर्षसि॥5॥
सबका अभीष्ट पूरा होता है बन्धन - मुक्त मनुज जीता है ।
जो ज्ञान-कर्म की राह पकडता आनन्द का अमृत पीता है॥5॥
सुन्दर कथ्य...
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