Wednesday, 2 April 2014

सूक्त - 95

[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

8529
कनिक्रन्ति  हरिरा  सृज्यमानः सीदन्वनस्य  जठरे  पुनानः ।
नृभिर्यतः कृणुते निर्णिजं गा अतो मतीर्जनयत स्वधाभिः॥1॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  भक्तों  के  मन  में  बसता  है ।
मन को पहले अनुकूल बनाता उस पर कृपा किया करता है॥1॥

8530
हरिः  सृजानः  पथ्यामृतस्येयर्ति  वाचमरितेव  नावम् ।
देवो देवानां गुह्यानि नामाविष्कृणोति बर्हिषि प्रवाचे॥2॥

आत्म- ज्ञान  हो  इसके  पहले  भक्तों  को  प्रेरित  करता  हैं ।
मन का अनुकूलन होने पर आनन्द-राह पर ले चलता है॥2॥

8531
अपामिवेदूर्मयस्तर्तुराणा:  प्र   मनीषा   ईरते   सोममच्छ ।
नमस्यन्तीरूप च यन्ति सं चा च विशन्त्युशतीरुशन्तम्॥3॥

पूजा भी जल-ऊर्मि सदृश  ही अत्यन्त  वेग  से  चलती  है ।
भगवान-भक्त मिल जाते हैं आनन्द-ऊर्मि यह कहती है ॥3॥

8532
तं  मर्मृजानं  महिषं  न सानावंशु दुहन्त्युक्षणं गिरिष्ठाम् ।
तं वावशानं मतयः सचन्ते त्रितो बिभर्ति वरुणं समुद्रे॥4॥

परमेश्वर है अति बल-शाली सज्जन - संग उन्हें प्यारा है ।
परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है साधक का वही सहारा है॥4॥

8533
इष्यन्वाचमुपवक्तेव होतुः पुनान इन्दो वि ष्या मनीषाम् ।
इन्द्रश्च यत्क्षयथः सौभगाय सुवीर्यस्य पतयः स्याम ॥5॥

हे  परम-मित्र  हे  परमेश्वर  तुम  प्रज्ञा  हमें  प्रदान  करो ।
सत्पथ तुम ही हमें बताओ तुम ही मेरा खट-राग हरो॥5॥

    

2 comments:

  1. पूजा भी जल-ऊर्मि सदृश ही अत्यन्त वेग से चलती है ।
    भगवान-भक्त मिल जाते हैं आनन्द-ऊर्मि यह कहती है ॥3॥

    भक्ति मार्ग का निरूपण करती पंक्तियाँ..

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  2. प्रेरणा और उत्प्रेरणा, दोनों ही ईश्वर ही देता है।

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