[ऋषि- भरद्वाज बार्हस्पत्य। देवता-पवमान सोम।छन्द- गायत्री-उष्णिक्-अनुष्टुप्।]
8269
त्वं सोमासि धारयुर्मन्द्र ओजिष्ठो अध्वरे । पवस्व मंहयद्रयिः ॥1॥
हे ओजस्वी आनन्द-प्रदाता तुम ही हो हम सबके आधार ।
धन देना रक्षा करना प्रभु नमन तुम्हें है बारम्बार ॥1॥
8270
त्वं सुतो नृमादनो दधन्वान्मत्सरिन्तमः। इन्द्राय सूरिरन्धसा॥2॥
हे पावन पूजनीय परमेश्वर तुम उद्योगी को प्रेरित करते ।
उसको यश - वैभव देते हो उसकी विपदा तुम ही हरते ॥2॥
8271
त्वं सुष्वाणो अद्रिभिरभ्यर्ष कनिक्रदत । द्युमन्तं शुष्ममुत्तमम्॥3॥
परा - वाणी के द्वारा तुम ही सज्जन का बल-वर्धन करते हो ।
साधक को सुख-कर जीवन देते उनकी विपदा तुम हरते हो॥3॥
8272
इन्दुर्हिन्वानो अर्षति तिरो वाराण्यव्यया । हरिर्वाजमचिक्रदत्॥4॥
हे आलोक - प्रदाता प्रभु - वर तुम हम सबको प्रेरित करते हो ।
अज्ञान-तमस को तुम्हीं मिटाते सबका ध्यान तुम्हीं रखते हो॥4॥
8273
इन्दो व्यव्यमर्षसि वि श्रवांसि वि सौभगा । वि वाजान्त्सोम गोमतः॥5॥
कर्मानुसार चयनित होता है पावन-प्राञ्जल-पात्र तुम्हारा ।
तुम उसको अनन्त-बल देते पाता सुख सौभाग्य सहारा॥5॥
8274
आ न इन्दो शतग्विनं रयिं गोमन्तमश्विनम् । भरा सोम सहस्त्रिणम्॥6॥
हे आनन्द आलोक प्रदाता तुम अनन्त-बल के स्वामी हो ।
धन-वैभव हमको भी देना तुम तो खुद अन्तर्यामी हो॥6॥
8275
पवमानास इन्दवस्तिरः पवित्रमाशवः । इन्द्रं यामेभिराशत ॥7॥
कर्म-योग पथ-पर वह चलता जिसको प्रभु पात्र समझते हैं ।
प्रभु के निकट वही होता है परमेश्वर जिसे प्यार करते हैं॥7॥
8276
ककुहः सोम्यो रस इन्दुरिन्द्राय पूर्व्यः । आयुः पवत आयवे॥8॥
कर्म-योग और ज्ञान-योग के साधक-जन प्रभु को भाते हैं ।
परमेश्वर इनके लिए सुलभ है जब भी बुलाओ आ जाते हैं॥8॥
8277
हिन्वन्ति सूरमुस्त्रयः पवमानं मधुश्चुतम् । अभि गिरा समस्वरन्॥9॥
उस पावन प्रभु परमेश्वर की ज्ञानी-जन स्तुति करते हैं ।
प्रभु आनन्द-वर्षा करते हैं साधक सब प्रसन्न रहते हैं॥9॥
8278
अविता नो अजाश्वः पूषा यामनियामनि । आ भक्षत्कन्यासु नः॥10॥
परमात्मा सबका रक्षक है सज्जन का रखता है ध्यान ।
कल्याण सभी का वह करता है ऐसा है वह कृपा-निधान॥10॥
8279
अयं सोमः कपर्दिने घृतं न पवते मधुः । आ भक्षत्कन्यासु नः॥11॥
कर्म - मार्ग पर चलने वाला प्रभु से पाता है प्यार मधुर ।
प्रभु का सान्निध्य वही पाता है वैभव पाता है अतुल-प्रचुर॥11॥
8280
अयं त आघृणे सुतो घृतं न पवते शुचि । आ भक्षत्कन्यासु नः॥12॥
हे प्रभु परम-पूज्य परमेश्वर जो पर-हित में रत रहते हैं ।
प्रभु उन सबको सुख देते हैं उनकी विपदा भी हरते हैं॥12॥
8281
वाचो जन्तुः कवीनां पवस्व सोम धारया । देवेषु रत्नाधि असि॥13॥
सबसे पहले शब्द- सर्जना प्रभु- मुख से प्रस्फुटित हुई है ।
सबने बस अनुकरण किया है अद्भुत उद्भट कवि कई हैं॥13॥
8282
आ कलशेषु धावति श्येनो वर्म वि गाहते। अभि द्रोणा कनिक्रदत्॥14॥
बिजली निराकार है फिर भी तेजस्वी ओजस्वी वाणी है ।
परमेश्वर भी निराकार है तेजस्वी है ओजस्वी वाणी है॥14॥
8283
परि प्र सोम ते रसोSसर्जि कलशे सुतः । श्येनो न तक्तो अर्षति॥15॥
सर्व- व्याप्त है वह परमेश्वर कण-कण में वही समाया है ।
ब्रह्मानन्द सर्वत्र समाया सब साधक को वह भाया है॥15॥
8284
पवस्व सोम मन्दयन्निन्द्राय मधुमत्तमः ॥16॥
वह आनन्द की सरस ऊर्मि है सबका कल्याण वही करती है ।
कर्म-मार्ग में यह मिलती है सबको आह्लादित करती है ॥16॥
8285
असृगन्देववीतये वाजयन्तो रथा इव ॥17॥
अध्यात्म राह पर जो जाते हैं दृढ तन- मन वाले ही जाते हैं ।
कर्मानुसार मन-काया मिलती कर्मानुकूल-फल वे पाते हैं॥17॥
8286
ते सुतासो मदिन्तमा: शुक्रा वायुमसृक्षत ॥18॥
कर्म - मार्ग पर वह ही जाता है जो उद्योगी है पुरुषार्थी है ।
यह सबके बस की बात नहीं कोई विरला ही आकॉक्षी है ॥18॥
8287
ग्राव्णा तुन्नो अभिष्टुतःपवित्रं सोम गच्छसि।दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम्॥19॥
जिज्ञासा है उपलब्धि हमारी समाधान देता सन्तोष ।
उपासना करने वाले भी परमेश्वर से पाते परितोष ॥19॥
8288
एष तुन्नो अभिष्टुतः पवित्रमति गाहते । रक्षोहा वारमव्ययम्॥20॥
परमेश्वर आलोक - प्रदाता अज्ञान- तमस को वही मिटाता ।
दुष्टों को वह दण्डित करता है भक्तों को सन्मार्ग दिखाता॥20॥
8289
यदन्ति यच्च दूरके भयं विन्दति मामिह । पवमान वि तज्जहि॥21॥
हे पावन पूजनीय परमेश्वर जीवन की हर बाधा तुम हरना ।
मन के भय को तुम्हीं मिटाना मन में जिजीविषा भरना॥21॥
8290
पवमानः सो अद्य नः पवित्रेण विचर्षणिः । यः पोता सपुनातु नः॥22॥
सबको पावन वही बनाता सबका करता है अवलोकन ।
पावन-तम जीवन हो कैसे इसका भी कर लें मूल्यॉकन॥22॥
8291
यत्ते पवित्रमर्चिष्यग्ने विततमन्तरा । ब्रह्म तेन पुनीहि नः॥23॥
हे पावन ज्योति-रूप- परमेश्वर तुम अनन्त - बल के स्वामी हो ।
हम पावन बन जायें ऐसा कुछ कर दो अन्तर्यामी हो ॥23॥
8292
यत्ते पवित्रमर्चिवदग्ने तेन पुनीहि नः। ब्रह्मसवैः पुनीहि नः॥24॥
तेरे प्रकाश से सभी प्रकाशित सूरज आलोक तुम्हीं से पाता ।
तुम ही तेजस्वी हो प्रभु - वर तुम्हीं पिता हो तुम हो माता ॥24॥
8293
उभाभ्यॉ देव सवितःपवित्रेण सवेन च । मां पुनीहि विश्वतः॥25॥
जो ज्ञान - कर्म को नहीं जानते अपने को दीन समझते हैं ।
वे प्रभु से सब कुछ कह दें प्रभु समाधान दे सकते हैं ॥25॥
8294
त्रिभिष्ट्वं देव सवितर्वर्षिष्ठैः सोम धामभिः। अग्ने दक्षैः पुनीहि नः॥26॥
स्थूल सूक्ष्म और कारण यह इस काया के तीन रूप हैं ।
इन तीनों की महिमा अद्भुत पावन हों तीनों अनूप हैं ॥26॥
8295
पुनन्तु मां देवजना: पुनन्तु वसवो धिया ।
विश्वे देवा:पुनीत मा जातवेदःपुनीहि मा॥27॥
विद्वत्- जन का सान्निध्य मिले सत्संगति में यह देश पले ।
योग - छॉह - तरुवर- तले मेरा यह जीवन सुमन ढले ॥27॥
8296
प्र प्यायस्व प्र स्यन्दस्व सोम विश्वेभिरंशुभिः। देवेभ्य उत्तमं हविः॥28॥
हे प्रभु मन-मति उज्ज्वल देना अविरल दया-दृष्टि तुम रखना ।
सुन्दर सुख-कर सोच मुझे दो ज्ञान-योग- रस देते रहना ॥28॥
8297
उप प्रियं पनिप्नतं युवानमाहुतीवृधम् । अगन्म बिभ्रतो नमः॥29॥
फल - वाली डाली झुक जाती है विनय - भाव को हम अपनायें ।
कर्म - मार्ग पर रहें समर्पित सस्वर वेद - ऋचा हम गायें ॥29॥
8298
अलाय्यस्य परशुर्ननाश तमा पवस्व देव सोम।आखुं चिदेव देव सोम॥30॥
दिव्य - गुणों का जो स्वामी है वह प्रभु को प्यारा लगता है ।
जो अवगुण से भरा हुआ है वह प्रभु से स्वयं दूर रहता है॥30॥
8299
यः पावमानीरध्येत्यृषिभिः सम्भृतं रसम् ।
सर्वं स पूतमश्नाति स्वदितं मातरिश्वना॥31॥
जिस साधक में सद्गुण दिखता परमेश्वर उसे प्यार करता है ।
परमानन्द वही पा सकता प्रभु का वरद-हस्त रहता है ॥31॥
8300
पावमानीर्यो अध्येतृषिभिः सम्भृतं रसम् ।
तस्मै सरस्वती दुहे क्षीरं सर्पिर्मधूदकम्॥32॥
जो प्रभु- उपासना करते हैं वे अतुलित धन- बल पाते हैं ।
प्रभु से अद्भुत ममता मिलती है ब्रह्म- ज्ञान लेकर जाते हैं॥32॥
8269
त्वं सोमासि धारयुर्मन्द्र ओजिष्ठो अध्वरे । पवस्व मंहयद्रयिः ॥1॥
हे ओजस्वी आनन्द-प्रदाता तुम ही हो हम सबके आधार ।
धन देना रक्षा करना प्रभु नमन तुम्हें है बारम्बार ॥1॥
8270
त्वं सुतो नृमादनो दधन्वान्मत्सरिन्तमः। इन्द्राय सूरिरन्धसा॥2॥
हे पावन पूजनीय परमेश्वर तुम उद्योगी को प्रेरित करते ।
उसको यश - वैभव देते हो उसकी विपदा तुम ही हरते ॥2॥
8271
त्वं सुष्वाणो अद्रिभिरभ्यर्ष कनिक्रदत । द्युमन्तं शुष्ममुत्तमम्॥3॥
परा - वाणी के द्वारा तुम ही सज्जन का बल-वर्धन करते हो ।
साधक को सुख-कर जीवन देते उनकी विपदा तुम हरते हो॥3॥
8272
इन्दुर्हिन्वानो अर्षति तिरो वाराण्यव्यया । हरिर्वाजमचिक्रदत्॥4॥
हे आलोक - प्रदाता प्रभु - वर तुम हम सबको प्रेरित करते हो ।
अज्ञान-तमस को तुम्हीं मिटाते सबका ध्यान तुम्हीं रखते हो॥4॥
8273
इन्दो व्यव्यमर्षसि वि श्रवांसि वि सौभगा । वि वाजान्त्सोम गोमतः॥5॥
कर्मानुसार चयनित होता है पावन-प्राञ्जल-पात्र तुम्हारा ।
तुम उसको अनन्त-बल देते पाता सुख सौभाग्य सहारा॥5॥
8274
आ न इन्दो शतग्विनं रयिं गोमन्तमश्विनम् । भरा सोम सहस्त्रिणम्॥6॥
हे आनन्द आलोक प्रदाता तुम अनन्त-बल के स्वामी हो ।
धन-वैभव हमको भी देना तुम तो खुद अन्तर्यामी हो॥6॥
8275
पवमानास इन्दवस्तिरः पवित्रमाशवः । इन्द्रं यामेभिराशत ॥7॥
कर्म-योग पथ-पर वह चलता जिसको प्रभु पात्र समझते हैं ।
प्रभु के निकट वही होता है परमेश्वर जिसे प्यार करते हैं॥7॥
8276
ककुहः सोम्यो रस इन्दुरिन्द्राय पूर्व्यः । आयुः पवत आयवे॥8॥
कर्म-योग और ज्ञान-योग के साधक-जन प्रभु को भाते हैं ।
परमेश्वर इनके लिए सुलभ है जब भी बुलाओ आ जाते हैं॥8॥
8277
हिन्वन्ति सूरमुस्त्रयः पवमानं मधुश्चुतम् । अभि गिरा समस्वरन्॥9॥
उस पावन प्रभु परमेश्वर की ज्ञानी-जन स्तुति करते हैं ।
प्रभु आनन्द-वर्षा करते हैं साधक सब प्रसन्न रहते हैं॥9॥
8278
अविता नो अजाश्वः पूषा यामनियामनि । आ भक्षत्कन्यासु नः॥10॥
परमात्मा सबका रक्षक है सज्जन का रखता है ध्यान ।
कल्याण सभी का वह करता है ऐसा है वह कृपा-निधान॥10॥
8279
अयं सोमः कपर्दिने घृतं न पवते मधुः । आ भक्षत्कन्यासु नः॥11॥
कर्म - मार्ग पर चलने वाला प्रभु से पाता है प्यार मधुर ।
प्रभु का सान्निध्य वही पाता है वैभव पाता है अतुल-प्रचुर॥11॥
8280
अयं त आघृणे सुतो घृतं न पवते शुचि । आ भक्षत्कन्यासु नः॥12॥
हे प्रभु परम-पूज्य परमेश्वर जो पर-हित में रत रहते हैं ।
प्रभु उन सबको सुख देते हैं उनकी विपदा भी हरते हैं॥12॥
8281
वाचो जन्तुः कवीनां पवस्व सोम धारया । देवेषु रत्नाधि असि॥13॥
सबसे पहले शब्द- सर्जना प्रभु- मुख से प्रस्फुटित हुई है ।
सबने बस अनुकरण किया है अद्भुत उद्भट कवि कई हैं॥13॥
8282
आ कलशेषु धावति श्येनो वर्म वि गाहते। अभि द्रोणा कनिक्रदत्॥14॥
बिजली निराकार है फिर भी तेजस्वी ओजस्वी वाणी है ।
परमेश्वर भी निराकार है तेजस्वी है ओजस्वी वाणी है॥14॥
8283
परि प्र सोम ते रसोSसर्जि कलशे सुतः । श्येनो न तक्तो अर्षति॥15॥
सर्व- व्याप्त है वह परमेश्वर कण-कण में वही समाया है ।
ब्रह्मानन्द सर्वत्र समाया सब साधक को वह भाया है॥15॥
8284
पवस्व सोम मन्दयन्निन्द्राय मधुमत्तमः ॥16॥
वह आनन्द की सरस ऊर्मि है सबका कल्याण वही करती है ।
कर्म-मार्ग में यह मिलती है सबको आह्लादित करती है ॥16॥
8285
असृगन्देववीतये वाजयन्तो रथा इव ॥17॥
अध्यात्म राह पर जो जाते हैं दृढ तन- मन वाले ही जाते हैं ।
कर्मानुसार मन-काया मिलती कर्मानुकूल-फल वे पाते हैं॥17॥
8286
ते सुतासो मदिन्तमा: शुक्रा वायुमसृक्षत ॥18॥
कर्म - मार्ग पर वह ही जाता है जो उद्योगी है पुरुषार्थी है ।
यह सबके बस की बात नहीं कोई विरला ही आकॉक्षी है ॥18॥
8287
ग्राव्णा तुन्नो अभिष्टुतःपवित्रं सोम गच्छसि।दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम्॥19॥
जिज्ञासा है उपलब्धि हमारी समाधान देता सन्तोष ।
उपासना करने वाले भी परमेश्वर से पाते परितोष ॥19॥
8288
एष तुन्नो अभिष्टुतः पवित्रमति गाहते । रक्षोहा वारमव्ययम्॥20॥
परमेश्वर आलोक - प्रदाता अज्ञान- तमस को वही मिटाता ।
दुष्टों को वह दण्डित करता है भक्तों को सन्मार्ग दिखाता॥20॥
8289
यदन्ति यच्च दूरके भयं विन्दति मामिह । पवमान वि तज्जहि॥21॥
हे पावन पूजनीय परमेश्वर जीवन की हर बाधा तुम हरना ।
मन के भय को तुम्हीं मिटाना मन में जिजीविषा भरना॥21॥
8290
पवमानः सो अद्य नः पवित्रेण विचर्षणिः । यः पोता सपुनातु नः॥22॥
सबको पावन वही बनाता सबका करता है अवलोकन ।
पावन-तम जीवन हो कैसे इसका भी कर लें मूल्यॉकन॥22॥
8291
यत्ते पवित्रमर्चिष्यग्ने विततमन्तरा । ब्रह्म तेन पुनीहि नः॥23॥
हे पावन ज्योति-रूप- परमेश्वर तुम अनन्त - बल के स्वामी हो ।
हम पावन बन जायें ऐसा कुछ कर दो अन्तर्यामी हो ॥23॥
8292
यत्ते पवित्रमर्चिवदग्ने तेन पुनीहि नः। ब्रह्मसवैः पुनीहि नः॥24॥
तेरे प्रकाश से सभी प्रकाशित सूरज आलोक तुम्हीं से पाता ।
तुम ही तेजस्वी हो प्रभु - वर तुम्हीं पिता हो तुम हो माता ॥24॥
8293
उभाभ्यॉ देव सवितःपवित्रेण सवेन च । मां पुनीहि विश्वतः॥25॥
जो ज्ञान - कर्म को नहीं जानते अपने को दीन समझते हैं ।
वे प्रभु से सब कुछ कह दें प्रभु समाधान दे सकते हैं ॥25॥
8294
त्रिभिष्ट्वं देव सवितर्वर्षिष्ठैः सोम धामभिः। अग्ने दक्षैः पुनीहि नः॥26॥
स्थूल सूक्ष्म और कारण यह इस काया के तीन रूप हैं ।
इन तीनों की महिमा अद्भुत पावन हों तीनों अनूप हैं ॥26॥
8295
पुनन्तु मां देवजना: पुनन्तु वसवो धिया ।
विश्वे देवा:पुनीत मा जातवेदःपुनीहि मा॥27॥
विद्वत्- जन का सान्निध्य मिले सत्संगति में यह देश पले ।
योग - छॉह - तरुवर- तले मेरा यह जीवन सुमन ढले ॥27॥
8296
प्र प्यायस्व प्र स्यन्दस्व सोम विश्वेभिरंशुभिः। देवेभ्य उत्तमं हविः॥28॥
हे प्रभु मन-मति उज्ज्वल देना अविरल दया-दृष्टि तुम रखना ।
सुन्दर सुख-कर सोच मुझे दो ज्ञान-योग- रस देते रहना ॥28॥
8297
उप प्रियं पनिप्नतं युवानमाहुतीवृधम् । अगन्म बिभ्रतो नमः॥29॥
फल - वाली डाली झुक जाती है विनय - भाव को हम अपनायें ।
कर्म - मार्ग पर रहें समर्पित सस्वर वेद - ऋचा हम गायें ॥29॥
8298
अलाय्यस्य परशुर्ननाश तमा पवस्व देव सोम।आखुं चिदेव देव सोम॥30॥
दिव्य - गुणों का जो स्वामी है वह प्रभु को प्यारा लगता है ।
जो अवगुण से भरा हुआ है वह प्रभु से स्वयं दूर रहता है॥30॥
8299
यः पावमानीरध्येत्यृषिभिः सम्भृतं रसम् ।
सर्वं स पूतमश्नाति स्वदितं मातरिश्वना॥31॥
जिस साधक में सद्गुण दिखता परमेश्वर उसे प्यार करता है ।
परमानन्द वही पा सकता प्रभु का वरद-हस्त रहता है ॥31॥
8300
पावमानीर्यो अध्येतृषिभिः सम्भृतं रसम् ।
तस्मै सरस्वती दुहे क्षीरं सर्पिर्मधूदकम्॥32॥
जो प्रभु- उपासना करते हैं वे अतुलित धन- बल पाते हैं ।
प्रभु से अद्भुत ममता मिलती है ब्रह्म- ज्ञान लेकर जाते हैं॥32॥
वह आनन्द की सरस ऊर्मि है सबका कल्याण वही करती है ।
ReplyDeleteकर्म-मार्ग में यह मिलती है सबको आह्लादित करती है ॥16॥
सुंदर भावानुवाद...आभार !
बहुत सुन्दर सार्थक अनुवाद प्रस्तुति ...धन्यवाद
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