Sunday, 20 April 2014

सूक्त - 77

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8377
एष  प्र  कोशे  मधुमॉ अचिक्रददिन्द्रस्य  वज्रो  वपुषो  वपुष्टरः ।
अभीमृतस्य सुदुघा घृतश्चुतो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः॥1॥

यह वाणी जल - ऊर्मि सदृश है करती है सतत मधुर - भाषण ।
आनन्द से अन्तर्मन भरता मन- मन से करता सम्भाषण॥1॥

8378
स  पूर्व्यः पवते  यं  दिवस्परि  श्येनो मथायदिषितस्तिरो  रजः ।
स मध्व आ युवते वेविजान इत्कृशानोरस्तुर्मनसाह बिभ्युष॥2॥

कितनी सुन्दर वसुन्धरा  है  सुन्दर  सब  सर - सरिता - सागर ।
आओ  हम  सब  इसे  बचायें  सूख  न  जाये अमृत - गागर ॥2॥

8379
ते  नः  पूर्वास उपरास इन्दवो  महे  वाजाय  धन्वन्तु  गोमते ।
ईक्षेण्यासो  अह्यो3न  चारवो  ब्रह्मब्रह्म  ये  जुजुषुर्हुविहर्विः  ॥3॥

बहुत  दिया  है  पूर्व - पिता  ने आगत  को  कुछ  देकर  जायें ।
जो भी पावन परम्परा है हम  भी अपना  दायित्व निभायें॥3॥

8380
अयं नो  विद्वान्वनवद्वनुष्यत इन्दुः सत्राचा  मनसा  पुरुष्टुतः ।
इनस्य यः सदने गर्भमादथे गवामुरुब्जमभ्यर्षति व्रजम् ॥4॥

मेरे  मन  में  जो शुभ-विचार  हैं  बैर - भाव  से  बहुत  बडे  हैं ।
जग को हम परिवार मानते  इसीलिए  हम  यहॉ  खडे  हैं ॥4॥

8381
चक्रिर्दिवः पवते  कृत्व्यो  रसो  महॉ  अदब्धो  वरुणो  हुरुग्यते ।
असावि मित्रो वृजनेषु यज्ञियोSत्यो न यूथे वृषयुःकनिक्रदत्॥5॥

वह  परमेश्वर  परम - मित्र  है  वह  ही  है  आनन्द - स्वरूप ।
वह  ही  दुष्ट - दलन  करता  है  वह परमेश्वर ही है अनूप ॥5॥

1 comment:

  1. सर्वत्र व्याप्त है वह परमेश्वर वह ही तो सबका आश्रय है ।
    वह सबको यश-वैभव देता वह सज्जन को सहज प्राप्य है॥2॥
    ....सदैव की तरह अद्भुत....आभार

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