[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]
8377
एष प्र कोशे मधुमॉ अचिक्रददिन्द्रस्य वज्रो वपुषो वपुष्टरः ।
अभीमृतस्य सुदुघा घृतश्चुतो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः॥1॥
यह वाणी जल - ऊर्मि सदृश है करती है सतत मधुर - भाषण ।
आनन्द से अन्तर्मन भरता मन- मन से करता सम्भाषण॥1॥
8378
स पूर्व्यः पवते यं दिवस्परि श्येनो मथायदिषितस्तिरो रजः ।
स मध्व आ युवते वेविजान इत्कृशानोरस्तुर्मनसाह बिभ्युष॥2॥
कितनी सुन्दर वसुन्धरा है सुन्दर सब सर - सरिता - सागर ।
आओ हम सब इसे बचायें सूख न जाये अमृत - गागर ॥2॥
8379
ते नः पूर्वास उपरास इन्दवो महे वाजाय धन्वन्तु गोमते ।
ईक्षेण्यासो अह्यो3न चारवो ब्रह्मब्रह्म ये जुजुषुर्हुविहर्विः ॥3॥
बहुत दिया है पूर्व - पिता ने आगत को कुछ देकर जायें ।
जो भी पावन परम्परा है हम भी अपना दायित्व निभायें॥3॥
8380
अयं नो विद्वान्वनवद्वनुष्यत इन्दुः सत्राचा मनसा पुरुष्टुतः ।
इनस्य यः सदने गर्भमादथे गवामुरुब्जमभ्यर्षति व्रजम् ॥4॥
मेरे मन में जो शुभ-विचार हैं बैर - भाव से बहुत बडे हैं ।
जग को हम परिवार मानते इसीलिए हम यहॉ खडे हैं ॥4॥
8381
चक्रिर्दिवः पवते कृत्व्यो रसो महॉ अदब्धो वरुणो हुरुग्यते ।
असावि मित्रो वृजनेषु यज्ञियोSत्यो न यूथे वृषयुःकनिक्रदत्॥5॥
वह परमेश्वर परम - मित्र है वह ही है आनन्द - स्वरूप ।
वह ही दुष्ट - दलन करता है वह परमेश्वर ही है अनूप ॥5॥
8377
एष प्र कोशे मधुमॉ अचिक्रददिन्द्रस्य वज्रो वपुषो वपुष्टरः ।
अभीमृतस्य सुदुघा घृतश्चुतो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः॥1॥
यह वाणी जल - ऊर्मि सदृश है करती है सतत मधुर - भाषण ।
आनन्द से अन्तर्मन भरता मन- मन से करता सम्भाषण॥1॥
8378
स पूर्व्यः पवते यं दिवस्परि श्येनो मथायदिषितस्तिरो रजः ।
स मध्व आ युवते वेविजान इत्कृशानोरस्तुर्मनसाह बिभ्युष॥2॥
कितनी सुन्दर वसुन्धरा है सुन्दर सब सर - सरिता - सागर ।
आओ हम सब इसे बचायें सूख न जाये अमृत - गागर ॥2॥
8379
ते नः पूर्वास उपरास इन्दवो महे वाजाय धन्वन्तु गोमते ।
ईक्षेण्यासो अह्यो3न चारवो ब्रह्मब्रह्म ये जुजुषुर्हुविहर्विः ॥3॥
बहुत दिया है पूर्व - पिता ने आगत को कुछ देकर जायें ।
जो भी पावन परम्परा है हम भी अपना दायित्व निभायें॥3॥
8380
अयं नो विद्वान्वनवद्वनुष्यत इन्दुः सत्राचा मनसा पुरुष्टुतः ।
इनस्य यः सदने गर्भमादथे गवामुरुब्जमभ्यर्षति व्रजम् ॥4॥
मेरे मन में जो शुभ-विचार हैं बैर - भाव से बहुत बडे हैं ।
जग को हम परिवार मानते इसीलिए हम यहॉ खडे हैं ॥4॥
8381
चक्रिर्दिवः पवते कृत्व्यो रसो महॉ अदब्धो वरुणो हुरुग्यते ।
असावि मित्रो वृजनेषु यज्ञियोSत्यो न यूथे वृषयुःकनिक्रदत्॥5॥
वह परमेश्वर परम - मित्र है वह ही है आनन्द - स्वरूप ।
वह ही दुष्ट - दलन करता है वह परमेश्वर ही है अनूप ॥5॥
सर्वत्र व्याप्त है वह परमेश्वर वह ही तो सबका आश्रय है ।
ReplyDeleteवह सबको यश-वैभव देता वह सज्जन को सहज प्राप्य है॥2॥
....सदैव की तरह अद्भुत....आभार