[ऋषि- प्रतर्दन दैवोदासि । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8534
प्र सेनानीः शूरो अग्रे रथानां गव्यन्नेति हर्षते अस्य सेना ।
भद्रान्कृण्वन्निन्द्रहवान्त्सखिभ्य आ सोमो वस्त्रा रभसानि दत्ते॥1॥
कर्म-योग का पथिक हमेशा पर-उपकार किया करता है ।
अत्यन्त आधुनिक आयुध अपनी सेनायें समर्थ रखता है॥1॥
8535
समस्य हरिं हरयो मृजन्त्यश्वहयैरनिशितं नमोभिः ।
आ तिष्ठति रथमिन्द्रस्य सखा विद्वॉ एना सुमतिं यात्यच्छ॥2॥
जो मन से प्रभु को भजते हैं वे क्रमशः आगे बढते हैं ।
जीवन का आनन्द उठाते बेडा पार किया करते हैं॥2॥
8536
स नो देव देवताते पवस्व महे सोम प्सरस इन्द्रपानः ।
कृण्वन्नपो वर्षयन्द्यामुतेमामुरोरा नो वरीवस्या पुनानः॥3॥
कर्म-मार्ग का राही ही तो पाता है प्रभु का सान्निध्य ।
वह परमात्मा तृप्ति-रूप है मिलता है उसका सामीप्य॥3॥
8537
अजीतयेSहतये पवस्व स्वस्तये सर्वतातये बृहते ।
तदुशन्ति विश्व इमे सखायस्तदहं वश्मि पवमान सोम॥4॥
प्रभु परमेश्वर की सत्ता को जो भी करता है स्वीकार ।
वह बडे भरोसे से जीता है रहता है वह निर्विकार ॥4॥
8538
सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्या:।
जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः॥5॥
अति पावन है वह परमेश्वर सबको पावन वही बनाता ।
कर्म-योग में जिनकी रुचि है उनको सत्पथ पर ले जाता॥5॥
8539
ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम् ।
श्येनो गृध्राणां स्वधितिर्वनानां सोमः पवित्रमत्येति रेभन्॥6॥
कवि को वह सब दिखता है जो छिपा हुआ है वह रहस्य ।
उसको अपनी थाह नहीं है वह कह देता सहज-सत्य ॥6॥
8540
प्रावीविपद्वाच ऊर्मिं न सिन्धुर्गिरः सोमः पवमानो मनीषा:।
अन्तःपश्यन्वृजनेमावराण्या तिष्ठति वृषभो गोषु जानन्॥7॥
परमात्मा प्रेरक है मन का वह ही है मन का स्वामी ।
हमको पावन वही बनाता वह ही है अन्तर्यामी॥7॥
8541
स मत्सरः पृत्सु वन्वन्नवातः सहस्त्ररेता अभि वाजमर्षः ।
इन्द्रायेन्दो पवमानो मनीष्यं1शोरूर्मिमीरय गा इषण्यन्॥8॥
परमात्मा आनन्द - रूप है जो उसको मन से भजता है ।
अवश्यमेव आनन्द पाता है जो उसका सुमिरन करता है॥8॥
8542
परि प्रियः कलशे देववात इन्द्राय सोमो रण्यो मदाय ।
सहस्त्रधारःशतवाज इन्दुर्वाजी न सप्तिःसमना जिगाति॥9॥
ज्ञान-मार्ग की महिमा अद्भुत भक्त ज्ञान में रहता लीन ।
भगवान भक्त के बीच है हल्का सा आवरण महीन ॥9॥
8543
स पूर्व्यो वसुविज्जायमानो मृजानो अप्सु दुदुहानो अद्रौ ।
अभिशस्तिपा भुवनस्य राजा विदद् गातुं ब्रह्मणे पूयमानः॥10॥
सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा साधक को देता है सम्मान ।
वह पावन प्रकाश देता है हम सब हैं उसकी सन्तान ॥10॥
8544
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीरा:।
वन्वन्नवातः परिधीँरपोर्णु वीरेभिरश्वैर्मघवा भवा नः॥11॥
परमात्मा की पूजा से ही मानव का बढता है ज्ञान ।
अन्वेषण प्रतिभा पलती है देश को मिलता है सम्मान॥11॥
8545
यथापवथा मनवे वयोधा अमित्रहा वरिवोविध्दविष्मान् ।
एवा पवस्य द्रविणं दधान इन्द्रे सं तिष्ठ जनयायुधानि॥12॥
आयुध अनन्त अन्वेषण हो रक्षित हो पावन परिवेश ।
जननी-जन्मभूमि प्यारी है सर्वोपरि हो अपना देश॥12॥
8546
पवस्व सोम मधुमॉ ऋतावापो वसानो अधि सानो अव्ये ।
अव द्रोणानि घृतवान्ति सीद मदिन्तमो मत्सर इन्द्रपानः॥13॥
जिनका मन निर्मल है ऐसे मन में ही पलता अनुराग ।
प्रभु सान्निध्य उन्हें मिलता है दूर भाग जाता खटराग॥13॥
8547
वृष्टिं दिवः शतधारः पवस्व सहत्रसा वाजयुर्देववीतौ ।
सं सिन्धुभिःकलशे वावशानःसमुस्त्रियाभिःप्रतिरन्न आयुः॥14॥
विज्ञान-ज्ञान अति आवश्यक है तब ही होगा समुचित उत्थान ।
वैज्ञानिक दायित्व निभायें तब बहुरेगा खोया सम्मान ॥14॥
8548
एष स्य सोमो मतिभिः पुनानोSत्यो न वाजी तरतीदरातीः ।
पयो न दुग्धमदितेरिषिरमुर्विव गातुः सुयमो न वोळ्हा॥15॥
ज्ञानी-विज्ञानी मिल-जुल कर स्वाभिमान के गायें गीत ।
रक्षा अभेद्य हो जन्मभूमि की कब बहुरेगा स्वर्णिम अतीत॥15॥
8549
स्वायुधः सोतृभिः पूयमानोSभ्यर्ष गुह्यं चारु नाम ।
अभि वाजं सप्तिरिव श्रवस्याSभि वायुमभि गा देव सोम॥16॥
अति रहस्य है और सरल है उस परमेश्वर का क्या कहना ।
सर्व-शक्ति-सम्पन्न बनें हम सुमिरन बन जाए गहना ॥16॥
8550
शिशुं जज्ञानं हर्यतं मृजन्ति शुम्भन्ति वह्निं मरुतो गणेन ।
कविगीर्भिःकाव्येना कविःसन्त्सोमःपवित्रमत्येति रेभन्॥17॥
सदा प्रकट है वह परमात्मा साधक सब करते हैं चिन्तन ।
कवि कविता की रचना करते अपना-पन पाते हैं सज्जन॥17॥
8551
ऋषिमना य ऋषिकृत्स्वर्षा: सहस्त्रणीथः पदवीः कवीनाम् ।
तृतीयं धाम महिषःसिषासन्त्सोमो विराजमनु राजति ष्टुप्॥18॥
परमात्मा पालक पोषक है सद्गति भी वह ही देता है ।
कर्मानुरूप वह फल देता है अपनेपन से अपना लेता है॥18॥
8552
चमूषच्छ्येनःशकुनो विभृत्वा गोविन्दुर्द्रप्स आयुधानि बिभ्रत् ।
अपाभूर्मिं सचमानः समुद्रं तुरीयं धाम महिषो विवक्ति ॥19॥
जगती में अद्भुत संगति है नेम - नियम से सब चलते हैं ।
प्रभु अनन्त बल का स्वामी है हम सब कर्म किया करते हैं॥19॥
8553
मर्यो न शुभ्रस्तन्वं मृजानोSत्यो न सृत्वा सनये धनानाम् ।
वृषेव यूथा परि कोशमर्षन्कनिक्रदच्चम्वो3रा विवेश ॥20॥
प्रभु हम सबका रखवाला है रखता है हम सबका ध्यान ।
रिमझिम बरसात वही देता है हम सब पाते हैं धन-धान॥20॥
8554
पवस्वेन्दो पवमानो महोभिः कनिक्रदत्परि वाराण्यर्ष ।
क्रीळञ्चम्वो3रा विश पूयमान इन्द्रं ते रसो मदिरो ममत्तु॥21॥
हे प्रभु पावन मुझे बना दो तुम मेरे मन में बस जाओ ।
सामीप्य तुम्हारा सुखकर है तुम पर-हित का पाठ पढाओ॥21॥
8555
प्रास्य धारा बृहतीरसृग्रन्नक्तो गोभिः कलशॉ आ विवेश ।
साम कृण्वन्त्सामन्यो विपश्चित्क्रन्दन्नेत्यभि सख्युर्न जामिम्॥22॥
सर्व-व्याप्त वह परमेश्वर ही हमको देता है ज्ञान-आलोक ।
प्रभु तुम मेरा हाथ पकड लो भागे मृग सम मेरा शोक॥22॥
8556
अपघ्नन्नेषि पवमान शत्रून्प्रियां न जारो अभिगीत इन्दुः ।
सीदन्वनेषु शकुनो न पत्वा सोमः पुनानः कलशेषु सत्ता॥23॥
परमात्मा पावन मन देता जीवात्मा बन जाती पावन ।
प्रभु ही संस्कारित करता है खिल जाता है जीवन उपवन॥23॥
8557
आ ते रुचः पवमानस्य सोम योषेव यन्ति सुदुघा: सुधारा: ।
हरिरानीतः पुरुवारो अप्स्वचिक्रदत्कलशे देवयूनाम् ॥24॥
हे देदीप्य - मान परमात्मा आओ अंतर्मन में आओ ।
एकमात्र तुम ही वरेण्य हो मुझको मेरा ध्येय बताओ ॥24॥
8534
प्र सेनानीः शूरो अग्रे रथानां गव्यन्नेति हर्षते अस्य सेना ।
भद्रान्कृण्वन्निन्द्रहवान्त्सखिभ्य आ सोमो वस्त्रा रभसानि दत्ते॥1॥
कर्म-योग का पथिक हमेशा पर-उपकार किया करता है ।
अत्यन्त आधुनिक आयुध अपनी सेनायें समर्थ रखता है॥1॥
8535
समस्य हरिं हरयो मृजन्त्यश्वहयैरनिशितं नमोभिः ।
आ तिष्ठति रथमिन्द्रस्य सखा विद्वॉ एना सुमतिं यात्यच्छ॥2॥
जो मन से प्रभु को भजते हैं वे क्रमशः आगे बढते हैं ।
जीवन का आनन्द उठाते बेडा पार किया करते हैं॥2॥
8536
स नो देव देवताते पवस्व महे सोम प्सरस इन्द्रपानः ।
कृण्वन्नपो वर्षयन्द्यामुतेमामुरोरा नो वरीवस्या पुनानः॥3॥
कर्म-मार्ग का राही ही तो पाता है प्रभु का सान्निध्य ।
वह परमात्मा तृप्ति-रूप है मिलता है उसका सामीप्य॥3॥
8537
अजीतयेSहतये पवस्व स्वस्तये सर्वतातये बृहते ।
तदुशन्ति विश्व इमे सखायस्तदहं वश्मि पवमान सोम॥4॥
प्रभु परमेश्वर की सत्ता को जो भी करता है स्वीकार ।
वह बडे भरोसे से जीता है रहता है वह निर्विकार ॥4॥
8538
सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्या:।
जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः॥5॥
अति पावन है वह परमेश्वर सबको पावन वही बनाता ।
कर्म-योग में जिनकी रुचि है उनको सत्पथ पर ले जाता॥5॥
8539
ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम् ।
श्येनो गृध्राणां स्वधितिर्वनानां सोमः पवित्रमत्येति रेभन्॥6॥
कवि को वह सब दिखता है जो छिपा हुआ है वह रहस्य ।
उसको अपनी थाह नहीं है वह कह देता सहज-सत्य ॥6॥
8540
प्रावीविपद्वाच ऊर्मिं न सिन्धुर्गिरः सोमः पवमानो मनीषा:।
अन्तःपश्यन्वृजनेमावराण्या तिष्ठति वृषभो गोषु जानन्॥7॥
परमात्मा प्रेरक है मन का वह ही है मन का स्वामी ।
हमको पावन वही बनाता वह ही है अन्तर्यामी॥7॥
8541
स मत्सरः पृत्सु वन्वन्नवातः सहस्त्ररेता अभि वाजमर्षः ।
इन्द्रायेन्दो पवमानो मनीष्यं1शोरूर्मिमीरय गा इषण्यन्॥8॥
परमात्मा आनन्द - रूप है जो उसको मन से भजता है ।
अवश्यमेव आनन्द पाता है जो उसका सुमिरन करता है॥8॥
8542
परि प्रियः कलशे देववात इन्द्राय सोमो रण्यो मदाय ।
सहस्त्रधारःशतवाज इन्दुर्वाजी न सप्तिःसमना जिगाति॥9॥
ज्ञान-मार्ग की महिमा अद्भुत भक्त ज्ञान में रहता लीन ।
भगवान भक्त के बीच है हल्का सा आवरण महीन ॥9॥
8543
स पूर्व्यो वसुविज्जायमानो मृजानो अप्सु दुदुहानो अद्रौ ।
अभिशस्तिपा भुवनस्य राजा विदद् गातुं ब्रह्मणे पूयमानः॥10॥
सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा साधक को देता है सम्मान ।
वह पावन प्रकाश देता है हम सब हैं उसकी सन्तान ॥10॥
8544
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीरा:।
वन्वन्नवातः परिधीँरपोर्णु वीरेभिरश्वैर्मघवा भवा नः॥11॥
परमात्मा की पूजा से ही मानव का बढता है ज्ञान ।
अन्वेषण प्रतिभा पलती है देश को मिलता है सम्मान॥11॥
8545
यथापवथा मनवे वयोधा अमित्रहा वरिवोविध्दविष्मान् ।
एवा पवस्य द्रविणं दधान इन्द्रे सं तिष्ठ जनयायुधानि॥12॥
आयुध अनन्त अन्वेषण हो रक्षित हो पावन परिवेश ।
जननी-जन्मभूमि प्यारी है सर्वोपरि हो अपना देश॥12॥
8546
पवस्व सोम मधुमॉ ऋतावापो वसानो अधि सानो अव्ये ।
अव द्रोणानि घृतवान्ति सीद मदिन्तमो मत्सर इन्द्रपानः॥13॥
जिनका मन निर्मल है ऐसे मन में ही पलता अनुराग ।
प्रभु सान्निध्य उन्हें मिलता है दूर भाग जाता खटराग॥13॥
8547
वृष्टिं दिवः शतधारः पवस्व सहत्रसा वाजयुर्देववीतौ ।
सं सिन्धुभिःकलशे वावशानःसमुस्त्रियाभिःप्रतिरन्न आयुः॥14॥
विज्ञान-ज्ञान अति आवश्यक है तब ही होगा समुचित उत्थान ।
वैज्ञानिक दायित्व निभायें तब बहुरेगा खोया सम्मान ॥14॥
8548
एष स्य सोमो मतिभिः पुनानोSत्यो न वाजी तरतीदरातीः ।
पयो न दुग्धमदितेरिषिरमुर्विव गातुः सुयमो न वोळ्हा॥15॥
ज्ञानी-विज्ञानी मिल-जुल कर स्वाभिमान के गायें गीत ।
रक्षा अभेद्य हो जन्मभूमि की कब बहुरेगा स्वर्णिम अतीत॥15॥
8549
स्वायुधः सोतृभिः पूयमानोSभ्यर्ष गुह्यं चारु नाम ।
अभि वाजं सप्तिरिव श्रवस्याSभि वायुमभि गा देव सोम॥16॥
अति रहस्य है और सरल है उस परमेश्वर का क्या कहना ।
सर्व-शक्ति-सम्पन्न बनें हम सुमिरन बन जाए गहना ॥16॥
8550
शिशुं जज्ञानं हर्यतं मृजन्ति शुम्भन्ति वह्निं मरुतो गणेन ।
कविगीर्भिःकाव्येना कविःसन्त्सोमःपवित्रमत्येति रेभन्॥17॥
सदा प्रकट है वह परमात्मा साधक सब करते हैं चिन्तन ।
कवि कविता की रचना करते अपना-पन पाते हैं सज्जन॥17॥
8551
ऋषिमना य ऋषिकृत्स्वर्षा: सहस्त्रणीथः पदवीः कवीनाम् ।
तृतीयं धाम महिषःसिषासन्त्सोमो विराजमनु राजति ष्टुप्॥18॥
परमात्मा पालक पोषक है सद्गति भी वह ही देता है ।
कर्मानुरूप वह फल देता है अपनेपन से अपना लेता है॥18॥
8552
चमूषच्छ्येनःशकुनो विभृत्वा गोविन्दुर्द्रप्स आयुधानि बिभ्रत् ।
अपाभूर्मिं सचमानः समुद्रं तुरीयं धाम महिषो विवक्ति ॥19॥
जगती में अद्भुत संगति है नेम - नियम से सब चलते हैं ।
प्रभु अनन्त बल का स्वामी है हम सब कर्म किया करते हैं॥19॥
8553
मर्यो न शुभ्रस्तन्वं मृजानोSत्यो न सृत्वा सनये धनानाम् ।
वृषेव यूथा परि कोशमर्षन्कनिक्रदच्चम्वो3रा विवेश ॥20॥
प्रभु हम सबका रखवाला है रखता है हम सबका ध्यान ।
रिमझिम बरसात वही देता है हम सब पाते हैं धन-धान॥20॥
8554
पवस्वेन्दो पवमानो महोभिः कनिक्रदत्परि वाराण्यर्ष ।
क्रीळञ्चम्वो3रा विश पूयमान इन्द्रं ते रसो मदिरो ममत्तु॥21॥
हे प्रभु पावन मुझे बना दो तुम मेरे मन में बस जाओ ।
सामीप्य तुम्हारा सुखकर है तुम पर-हित का पाठ पढाओ॥21॥
8555
प्रास्य धारा बृहतीरसृग्रन्नक्तो गोभिः कलशॉ आ विवेश ।
साम कृण्वन्त्सामन्यो विपश्चित्क्रन्दन्नेत्यभि सख्युर्न जामिम्॥22॥
सर्व-व्याप्त वह परमेश्वर ही हमको देता है ज्ञान-आलोक ।
प्रभु तुम मेरा हाथ पकड लो भागे मृग सम मेरा शोक॥22॥
8556
अपघ्नन्नेषि पवमान शत्रून्प्रियां न जारो अभिगीत इन्दुः ।
सीदन्वनेषु शकुनो न पत्वा सोमः पुनानः कलशेषु सत्ता॥23॥
परमात्मा पावन मन देता जीवात्मा बन जाती पावन ।
प्रभु ही संस्कारित करता है खिल जाता है जीवन उपवन॥23॥
8557
आ ते रुचः पवमानस्य सोम योषेव यन्ति सुदुघा: सुधारा: ।
हरिरानीतः पुरुवारो अप्स्वचिक्रदत्कलशे देवयूनाम् ॥24॥
हे देदीप्य - मान परमात्मा आओ अंतर्मन में आओ ।
एकमात्र तुम ही वरेण्य हो मुझको मेरा ध्येय बताओ ॥24॥
प्रभु परमेश्वर की सत्ता को जो भी करता है स्वीकार ।
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परमात्मा के सिवा इस जगत में क्या सुंदर है..