Monday, 14 April 2014

सूक्त - 83

[ऋषि- पवित्र आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8407
पवित्रं  ते  विततं ब्रह्मणस्पते  प्रभुर्गात्राणि   पर्येषि  विश्वतः ।
अतप्ततनूर्न  तदामो अश्नुते शृतास इद्वहन्तस्तत्समाशत॥1॥

बिन तप  के  सन्तुष्टि  नहीं  है  जीवन  में  तप आवश्यक है ।
सत्पथ पर चलना है हमको सुख-स्वरूप अति व्यापक है॥1॥

8408
तपोष्पवित्रं विततं दिवस्पदे शोचन्तो अस्य तन्तवो व्यस्थिरन् ।
अवन्त्यस्य पवीतारमाशवो दिवस्पृष्ठमधि  तिष्ठन्ति  चेतसा॥2॥

जग  में  तप  ही  सर्वोपरि  है  बिना  तपस्या  जीवन  सूना ।
जो जीवन में तप करते हैं उनका सुख  बढ  जाता  दूना ॥2॥

8409
अरूरुचदुषसः  पृश्निरग्रिय  उक्षा  बिभर्ति  भुवनानि  वाजयुः ।
मायाविनो ममिरे अस्य मायया नृचक्षसःपितरो गर्भमा दधुः॥3॥

प्रभु उपासना  से  मिलता  है  जीवन  में  समुचित  आनन्द ।
कोई  तपस्वी  ही  पाता है प्रभु का प्रसाद आनन्द-कन्द ॥3॥

8410
गन्धर्व  इत्था  पदमस्य  रक्षति  पाति  देवानां  जनिमान्यद्भुतः ।
गृभ्णाति रिपुं निधया निधापतिःसुकृत्तमा मधुनो भक्षमाशत॥4॥

वह  सत्य - रूप  परमात्मा  ही  हम  सबकी  रक्षा  करता  है ।
प्रभु  का  वही उपासक  ही आनन्द  प्राप्त  कर  सकता  है ॥4॥

8411
हविर्हविष्मो महि सद्य दैव्यं नभो  वसानः परि  यास्यध्वरम् ।
राजा पवित्ररथो वाजमारुहः सहस्त्रभृष्टिर्जयसि श्रवो बृहत्॥5॥

तुम  ही  हवि  हो  तुम  ही  होता  दिव्य - गगन  है  तेरा  घर ।
हे  प्रभु  सर्व-व्याप्त  परमेश्वर  मुझ  पर सदा अनुग्रह कर ॥5॥ 

2 comments:

  1. हे प्रभु सर्व-व्याप्त परमेश्वर मुझ पर सदा अनुग्रह कर !!

    वाह , आभार आपका !

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  2. प्रकृति पर पूर्ण विश्वास।

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