[ऋषि- पवित्र आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]
8407
पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते प्रभुर्गात्राणि पर्येषि विश्वतः ।
अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते शृतास इद्वहन्तस्तत्समाशत॥1॥
बिन तप के सन्तुष्टि नहीं है जीवन में तप आवश्यक है ।
सत्पथ पर चलना है हमको सुख-स्वरूप अति व्यापक है॥1॥
8408
तपोष्पवित्रं विततं दिवस्पदे शोचन्तो अस्य तन्तवो व्यस्थिरन् ।
अवन्त्यस्य पवीतारमाशवो दिवस्पृष्ठमधि तिष्ठन्ति चेतसा॥2॥
जग में तप ही सर्वोपरि है बिना तपस्या जीवन सूना ।
जो जीवन में तप करते हैं उनका सुख बढ जाता दूना ॥2॥
8409
अरूरुचदुषसः पृश्निरग्रिय उक्षा बिभर्ति भुवनानि वाजयुः ।
मायाविनो ममिरे अस्य मायया नृचक्षसःपितरो गर्भमा दधुः॥3॥
प्रभु उपासना से मिलता है जीवन में समुचित आनन्द ।
कोई तपस्वी ही पाता है प्रभु का प्रसाद आनन्द-कन्द ॥3॥
8410
गन्धर्व इत्था पदमस्य रक्षति पाति देवानां जनिमान्यद्भुतः ।
गृभ्णाति रिपुं निधया निधापतिःसुकृत्तमा मधुनो भक्षमाशत॥4॥
वह सत्य - रूप परमात्मा ही हम सबकी रक्षा करता है ।
प्रभु का वही उपासक ही आनन्द प्राप्त कर सकता है ॥4॥
8411
हविर्हविष्मो महि सद्य दैव्यं नभो वसानः परि यास्यध्वरम् ।
राजा पवित्ररथो वाजमारुहः सहस्त्रभृष्टिर्जयसि श्रवो बृहत्॥5॥
तुम ही हवि हो तुम ही होता दिव्य - गगन है तेरा घर ।
हे प्रभु सर्व-व्याप्त परमेश्वर मुझ पर सदा अनुग्रह कर ॥5॥
8407
पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते प्रभुर्गात्राणि पर्येषि विश्वतः ।
अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते शृतास इद्वहन्तस्तत्समाशत॥1॥
बिन तप के सन्तुष्टि नहीं है जीवन में तप आवश्यक है ।
सत्पथ पर चलना है हमको सुख-स्वरूप अति व्यापक है॥1॥
8408
तपोष्पवित्रं विततं दिवस्पदे शोचन्तो अस्य तन्तवो व्यस्थिरन् ।
अवन्त्यस्य पवीतारमाशवो दिवस्पृष्ठमधि तिष्ठन्ति चेतसा॥2॥
जग में तप ही सर्वोपरि है बिना तपस्या जीवन सूना ।
जो जीवन में तप करते हैं उनका सुख बढ जाता दूना ॥2॥
8409
अरूरुचदुषसः पृश्निरग्रिय उक्षा बिभर्ति भुवनानि वाजयुः ।
मायाविनो ममिरे अस्य मायया नृचक्षसःपितरो गर्भमा दधुः॥3॥
प्रभु उपासना से मिलता है जीवन में समुचित आनन्द ।
कोई तपस्वी ही पाता है प्रभु का प्रसाद आनन्द-कन्द ॥3॥
8410
गन्धर्व इत्था पदमस्य रक्षति पाति देवानां जनिमान्यद्भुतः ।
गृभ्णाति रिपुं निधया निधापतिःसुकृत्तमा मधुनो भक्षमाशत॥4॥
वह सत्य - रूप परमात्मा ही हम सबकी रक्षा करता है ।
प्रभु का वही उपासक ही आनन्द प्राप्त कर सकता है ॥4॥
8411
हविर्हविष्मो महि सद्य दैव्यं नभो वसानः परि यास्यध्वरम् ।
राजा पवित्ररथो वाजमारुहः सहस्त्रभृष्टिर्जयसि श्रवो बृहत्॥5॥
तुम ही हवि हो तुम ही होता दिव्य - गगन है तेरा घर ।
हे प्रभु सर्व-व्याप्त परमेश्वर मुझ पर सदा अनुग्रह कर ॥5॥
हे प्रभु सर्व-व्याप्त परमेश्वर मुझ पर सदा अनुग्रह कर !!
ReplyDeleteवाह , आभार आपका !
प्रकृति पर पूर्ण विश्वास।
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