[ऋषि- वसु भारद्वाज । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]
8402
असावि सोमो अरुषो वृषा हरी राजेव दस्मो अभि गा अचिक्रदत् ।
पुनानो वारं पर्येत्यव्ययं श्येनो न योनिं घृतवन्तमासदम् ॥1॥
वह परमात्मा दर्शनीय है कण-कण से ध्वनित हो रहा है ।
भक्तों को वह दर्शन दे कर फिर चरैवेति चुपके से कहा है ॥1॥
8403
कविर्वेधस्या पर्येषि माहिनमत्यो न मृष्टो अभि वाजमर्षसि ।
अपसेधन्दुरिता सोम मृळय घृतं वसानःपरि यास निर्णिजम्॥2॥
वह सर्वज्ञ समर्थ बहुत है सज्जन ही उसको पा सकते हैं ।
खट्-रागों से वही बचाते सबको सुख देने आते रहते हैं ॥2॥
8404
पर्जन्यः पिता महिषस्य पर्णिनो नाभा पृथिव्या गिरिषु क्षयं दधे ।
स्वसार आपो अभि गा उतासरन्त्सं ग्रावभिर्नसते वीते अध्वरे॥3॥
परमेश्वर ही सुख - वैभव देते हम सबकी रक्षा करते हैं ।
यश देते प्रेरित करते हैं धान से सबका घर भरते हैं ॥3॥
8405
जायेव पत्यावधि शेव मंहसे पज्राया गर्भ श्रृणुहि ब्रवीमि ते ।
अन्तर्वाणीषु प्र चरा सु जीवसेSनिन्द्यो वृजने सोम जागृहि॥4॥
सत् - पथ पर वे ही पहुँचाते कर्तव्य - बोध सिखलाते हैं ।
जागो उठो और सब पाओ यही मँत्र दे कर जाते हैं ॥4॥
8406
यथा पूर्व्येभ्यः शतसा अमृधः सहस्त्रसा: पर्यया वाजमिन्दो ।
एवा पवस्व सुविताय नव्यसे तव व्रतमन्वापः सचन्ते ॥5॥
कई जन्म से आना जाना होता रहा जगत में अपना ।
अब जीवन सार्थक हो जाए वरद-हस्त तुम सिर पर रखना॥5॥
8402
असावि सोमो अरुषो वृषा हरी राजेव दस्मो अभि गा अचिक्रदत् ।
पुनानो वारं पर्येत्यव्ययं श्येनो न योनिं घृतवन्तमासदम् ॥1॥
वह परमात्मा दर्शनीय है कण-कण से ध्वनित हो रहा है ।
भक्तों को वह दर्शन दे कर फिर चरैवेति चुपके से कहा है ॥1॥
8403
कविर्वेधस्या पर्येषि माहिनमत्यो न मृष्टो अभि वाजमर्षसि ।
अपसेधन्दुरिता सोम मृळय घृतं वसानःपरि यास निर्णिजम्॥2॥
वह सर्वज्ञ समर्थ बहुत है सज्जन ही उसको पा सकते हैं ।
खट्-रागों से वही बचाते सबको सुख देने आते रहते हैं ॥2॥
8404
पर्जन्यः पिता महिषस्य पर्णिनो नाभा पृथिव्या गिरिषु क्षयं दधे ।
स्वसार आपो अभि गा उतासरन्त्सं ग्रावभिर्नसते वीते अध्वरे॥3॥
परमेश्वर ही सुख - वैभव देते हम सबकी रक्षा करते हैं ।
यश देते प्रेरित करते हैं धान से सबका घर भरते हैं ॥3॥
8405
जायेव पत्यावधि शेव मंहसे पज्राया गर्भ श्रृणुहि ब्रवीमि ते ।
अन्तर्वाणीषु प्र चरा सु जीवसेSनिन्द्यो वृजने सोम जागृहि॥4॥
सत् - पथ पर वे ही पहुँचाते कर्तव्य - बोध सिखलाते हैं ।
जागो उठो और सब पाओ यही मँत्र दे कर जाते हैं ॥4॥
8406
यथा पूर्व्येभ्यः शतसा अमृधः सहस्त्रसा: पर्यया वाजमिन्दो ।
एवा पवस्व सुविताय नव्यसे तव व्रतमन्वापः सचन्ते ॥5॥
कई जन्म से आना जाना होता रहा जगत में अपना ।
अब जीवन सार्थक हो जाए वरद-हस्त तुम सिर पर रखना॥5॥
No comments:
Post a Comment