[ऋषि- कण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8524
अधि यदस्मिन्वाजिनीव शुभः स्पर्धन्ते धियः सूर्ये न विशः।
अपो वृणानः पवते कवीयन्व्रजं न पशुवर्धनाय मन्म ॥1॥
दुनियॉ में अनगिन प्राणी पर तन-मन सबका अलग-अलग है।
सबका चिन्तन अलग-अलग है सबकी रचना अलग-अलग है॥1॥
8525
द्विता व्यूर्ण्वन्नमृतस्य धाम स्वर्विदे भुवनानि प्रथन्त ।
धियः पिन्वाना:स्वसरे न गाव ऋतायन्तीरभि वावश्र इन्दुम्॥2॥
वह अनन्त अति अद्भुत है आनन्द - अमृत का सागर है ।
अन्वेषण का आकर्षण है जिज्ञासा का उच्च-शिखर है॥2॥
8526
परि यत्कविः काव्या भरते शूरो न रथो भुवनानि विश्वा ।
देवेषु यशो मर्ताय भूषन्दक्षाय रायः पुरुभूषु नव्यः ॥3॥
वह परमात्मा ही समर्थ है कवि-मन की कमनीय कामना।
वह ही विद्वानों का यश है नित-नूतन है मृदुल-भावना॥3॥
8527
श्रिये जातः श्रिय आ निरियाय श्रियं वयो जरितृभ्यो दधाति ।
श्रियं वसाना अमृतत्वमायन्भवन्ति सत्या समिथा मितद्रौ॥4॥
अम्बर-अवनि उसी का वैभव तीव्र - वेग से वह चलता है ।
यश-वैभव देता साधक को सत्य-यज्ञ वह ही करता है॥4॥
8528
इषमूर्जमभ्य1र्षाश्वं गामुरु ज्योतिः कृणुहि मत्सि देवान् ।
विश्वानि हि सुषहा तानि तुभ्यं पवमान बाधसे सोम शत्रून्॥5॥
अनन्त-शक्ति का वह स्वामी है साधक को वही परखता है ।
दुष्ट-दलन वह ही करता है हम सबका ध्यान वही रखता है॥5॥
8524
अधि यदस्मिन्वाजिनीव शुभः स्पर्धन्ते धियः सूर्ये न विशः।
अपो वृणानः पवते कवीयन्व्रजं न पशुवर्धनाय मन्म ॥1॥
दुनियॉ में अनगिन प्राणी पर तन-मन सबका अलग-अलग है।
सबका चिन्तन अलग-अलग है सबकी रचना अलग-अलग है॥1॥
8525
द्विता व्यूर्ण्वन्नमृतस्य धाम स्वर्विदे भुवनानि प्रथन्त ।
धियः पिन्वाना:स्वसरे न गाव ऋतायन्तीरभि वावश्र इन्दुम्॥2॥
वह अनन्त अति अद्भुत है आनन्द - अमृत का सागर है ।
अन्वेषण का आकर्षण है जिज्ञासा का उच्च-शिखर है॥2॥
8526
परि यत्कविः काव्या भरते शूरो न रथो भुवनानि विश्वा ।
देवेषु यशो मर्ताय भूषन्दक्षाय रायः पुरुभूषु नव्यः ॥3॥
वह परमात्मा ही समर्थ है कवि-मन की कमनीय कामना।
वह ही विद्वानों का यश है नित-नूतन है मृदुल-भावना॥3॥
8527
श्रिये जातः श्रिय आ निरियाय श्रियं वयो जरितृभ्यो दधाति ।
श्रियं वसाना अमृतत्वमायन्भवन्ति सत्या समिथा मितद्रौ॥4॥
अम्बर-अवनि उसी का वैभव तीव्र - वेग से वह चलता है ।
यश-वैभव देता साधक को सत्य-यज्ञ वह ही करता है॥4॥
8528
इषमूर्जमभ्य1र्षाश्वं गामुरु ज्योतिः कृणुहि मत्सि देवान् ।
विश्वानि हि सुषहा तानि तुभ्यं पवमान बाधसे सोम शत्रून्॥5॥
अनन्त-शक्ति का वह स्वामी है साधक को वही परखता है ।
दुष्ट-दलन वह ही करता है हम सबका ध्यान वही रखता है॥5॥
वह अनन्त अति अद्भुत है आनन्द - अमृत का सागर है ।
ReplyDeleteअन्वेषण का आकर्षण है जिज्ञासा का उच्च-शिखर है॥2॥
उस परमात्मा के जितने गुण गाएं वह अछूता ही रहता है..
सुन्दर भावानुवाद, वाह।
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