[ऋषि- हिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]
8311
इषुर्न धन्वन् प्रति धीयते मतिर्वत्सो न मातुरुप सर्ज्यूधनि ।
उरुधारेव दुहे अग्र आयत्यस्य व्रतेष्वपि सोम इष्यते ॥1॥
लक्ष्य - भेद करने वाला ज्यों पूरे मन से करता ध्यान ।
वैसे ही प्रभु के साधक को करना होता है अनुष्ठान ॥1॥
8312
उपो मतिः पृच्यते सिच्यते मधु मन्द्राजनी चोदते अन्तरासनि।
पवमानः संतनिः प्रघ्नतामिव मधुमान्द्रप्सःपरि वारमर्षति॥2॥
शूर - वीर के शर समान ही परमेश्वर का रौद्र - रूप है ।
सत्संगति अति शान्त-मधुर है भक्त हेतु सुख-कर अनूप है॥2॥
8313
अव्ये वधूयुः पवते परि त्वचि श्रथ्नीते नप्तीरदितेरृतं यते ।
हरिरक्रान्यजतःसंयतो मदो नृम्णा शिशानो महिषो न शोभते॥3॥
जो निष्काम - कर्म करते हैं सुन्दर सुख सन्तति पाते हैं ।
प्रभु उनकी रक्षा करते हैं सन्मार्ग उन्हें दिखलाते हैं ॥3॥
8314
उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवो देवस्य देवी-रुप यन्ति निष्कृतम् ।
अत्यक्रमीदर्जुनं वारमव्ययमत्कं न निक्तं परि सोमो अव्यत ॥4॥
जो मन से और काया से भी सबल स्वस्थ बन जाता है ।
प्रभु उसको सत्पात्र बनाते प्रभु सान्निध्य वही पाता है ॥4॥
8315
अमृक्तेन रुशता वाससा हरिरमर्त्यो निर्णिजानः परि व्यत ।
दिवस्पृष्ठं बर्हणा निर्णिजे कृतोपस्तरणं चम्वोर्नभस्मयम्॥5॥
प्रकृति सम्पदा पुष्ट बनाती मानव अन्न - धान पाता है ।
औषधियॉ भी अजब निराली मनस्ताप मिट जाता है ॥5॥
8316
सूर्यस्येव रश्मयो द्रावयित्नवो मत्सरासः प्रसुपः साकमीरते ।
तन्तुं ततं परि सर्गास आशवो नेन्द्रादृते पवते धाम किं चन॥6॥
परमेश्वर अद्भुत सर्जक है अत्यन्त चतुर है रचना - कार ।
सूर्य-किरण सम गति है उसकी उसकी छुवन बसन्त-बहार॥6॥
8317
सिन्धोरिव प्रवणे निम्र आशवो वृषच्युता मदासो गातुमाशत ।
शं नो निवेशे द्विपदे चतुष्पदेSस्मे वाजा:सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः॥7॥
सबका कल्याण वही करता है कृपा-सिन्धु करुणा का सागर ।
आओ उस प्रभु के गुण गायें भर जाए मेरा भी गागर ॥7॥
8318
आ नः पवस्व वसुमध्दिरण्यवदश्वावद् गोमद्यवमत्सुवीर्यम् ।
यूयं हि सोम पितरो मम स्थन दिवो मूर्धानःप्रस्थिता वयस्कृतः॥8॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर अन्न - धान का देना दान ।
तुम ही हो हम सबके पालक यश-वैभव देना भगवान ॥8॥
8319
एते सोमा: पवमानास इन्द्रं रथाइव प्र ययुः सातिमच्छ ।
सुता: पवित्रमति यन्त्यव्यं हित्वी वव्रिं हरितो वृष्टिमच्छ॥9॥
जीवन- रण में हम विजयी हों कर्म - योग का मार्ग बताओ ।
भूल से भी कोई भूल न होवे सत्पथ पर चलना सिखलाओ॥9॥
8320
इन्दविन्द्राय बृहते पवस्व सुमृळीको अनवद्यो रिशादा: ।
भरा चन्द्राणि गृणते वसूनि देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः॥10॥
यश - वैभव के तुम स्वामी हो हमको भी यश- वैभव देना ।
कर्म-मार्ग पर सदा चलें हम अपने-पन से अपना लेना॥10॥
8311
इषुर्न धन्वन् प्रति धीयते मतिर्वत्सो न मातुरुप सर्ज्यूधनि ।
उरुधारेव दुहे अग्र आयत्यस्य व्रतेष्वपि सोम इष्यते ॥1॥
लक्ष्य - भेद करने वाला ज्यों पूरे मन से करता ध्यान ।
वैसे ही प्रभु के साधक को करना होता है अनुष्ठान ॥1॥
8312
उपो मतिः पृच्यते सिच्यते मधु मन्द्राजनी चोदते अन्तरासनि।
पवमानः संतनिः प्रघ्नतामिव मधुमान्द्रप्सःपरि वारमर्षति॥2॥
शूर - वीर के शर समान ही परमेश्वर का रौद्र - रूप है ।
सत्संगति अति शान्त-मधुर है भक्त हेतु सुख-कर अनूप है॥2॥
8313
अव्ये वधूयुः पवते परि त्वचि श्रथ्नीते नप्तीरदितेरृतं यते ।
हरिरक्रान्यजतःसंयतो मदो नृम्णा शिशानो महिषो न शोभते॥3॥
जो निष्काम - कर्म करते हैं सुन्दर सुख सन्तति पाते हैं ।
प्रभु उनकी रक्षा करते हैं सन्मार्ग उन्हें दिखलाते हैं ॥3॥
8314
उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवो देवस्य देवी-रुप यन्ति निष्कृतम् ।
अत्यक्रमीदर्जुनं वारमव्ययमत्कं न निक्तं परि सोमो अव्यत ॥4॥
जो मन से और काया से भी सबल स्वस्थ बन जाता है ।
प्रभु उसको सत्पात्र बनाते प्रभु सान्निध्य वही पाता है ॥4॥
8315
अमृक्तेन रुशता वाससा हरिरमर्त्यो निर्णिजानः परि व्यत ।
दिवस्पृष्ठं बर्हणा निर्णिजे कृतोपस्तरणं चम्वोर्नभस्मयम्॥5॥
प्रकृति सम्पदा पुष्ट बनाती मानव अन्न - धान पाता है ।
औषधियॉ भी अजब निराली मनस्ताप मिट जाता है ॥5॥
8316
सूर्यस्येव रश्मयो द्रावयित्नवो मत्सरासः प्रसुपः साकमीरते ।
तन्तुं ततं परि सर्गास आशवो नेन्द्रादृते पवते धाम किं चन॥6॥
परमेश्वर अद्भुत सर्जक है अत्यन्त चतुर है रचना - कार ।
सूर्य-किरण सम गति है उसकी उसकी छुवन बसन्त-बहार॥6॥
8317
सिन्धोरिव प्रवणे निम्र आशवो वृषच्युता मदासो गातुमाशत ।
शं नो निवेशे द्विपदे चतुष्पदेSस्मे वाजा:सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः॥7॥
सबका कल्याण वही करता है कृपा-सिन्धु करुणा का सागर ।
आओ उस प्रभु के गुण गायें भर जाए मेरा भी गागर ॥7॥
8318
आ नः पवस्व वसुमध्दिरण्यवदश्वावद् गोमद्यवमत्सुवीर्यम् ।
यूयं हि सोम पितरो मम स्थन दिवो मूर्धानःप्रस्थिता वयस्कृतः॥8॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर अन्न - धान का देना दान ।
तुम ही हो हम सबके पालक यश-वैभव देना भगवान ॥8॥
8319
एते सोमा: पवमानास इन्द्रं रथाइव प्र ययुः सातिमच्छ ।
सुता: पवित्रमति यन्त्यव्यं हित्वी वव्रिं हरितो वृष्टिमच्छ॥9॥
जीवन- रण में हम विजयी हों कर्म - योग का मार्ग बताओ ।
भूल से भी कोई भूल न होवे सत्पथ पर चलना सिखलाओ॥9॥
8320
इन्दविन्द्राय बृहते पवस्व सुमृळीको अनवद्यो रिशादा: ।
भरा चन्द्राणि गृणते वसूनि देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः॥10॥
यश - वैभव के तुम स्वामी हो हमको भी यश- वैभव देना ।
कर्म-मार्ग पर सदा चलें हम अपने-पन से अपना लेना॥10॥
अति सुन्दर...
ReplyDeleteपरमेश्वर अद्भुत सर्जक है अत्यन्त चतुर है रचना - कार ।
ReplyDeleteसूर्य-किरण सम गति है उसकी उसकी छुवन बसन्त-बहार॥6॥
मनमोहक पंक्तियाँ..