Monday, 28 April 2014

सूक्त - 68

[ऋषि- वत्सप्रिभालन्दन । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती- त्रिषुप् ।]

8301
प्र  देवमच्छा मधुमन्त  इन्दवोSसिष्यदन्त गाव आ न धेनवः ।
बर्हिषदो वचनावन्त ऊधमिः परिस्त्रुतमुस्त्रिया निर्णिजं धिरे॥1॥

विनय- शील  होते  विद्वत् - जन  विनम्रता  से  करते  ध्यान ।
फल  से  लदी  डालियॉ  झुकती विनय-शीलता है पहचान॥1॥

8302
स  रोरुवदभि  पूर्वा अचिक्रददुपारुहः  श्रथयन्त्स्वादते  हरिः ।
तिरः पवित्रं  परियन्नुरु ज्रयो नि शर्याणि दधते  देव आ  वरम्॥2॥

योगी  का  दायित्व  यही  है  सबके  मन  का  तमस  मिटाना ।
विज्ञानी-ज्ञानी सँग आना जगती को नव -ज्योति दिखाना॥2॥

8303
वि यो ममे यम्या संयती मदः साकंवृधा पयसा पिन्वदक्षिता ।
मही अपारे रजसी विवेविददभिव्रजन्नक्षितं  पाज आ  ददे॥3॥

कर्म - योग आनन्द - मार्ग  है  चिन्ता  को  करता  है  ध्वस्त ।
यह ही यश - वैभव देता है  प्रगति - पन्थ  करता  प्रशस्त ॥3॥

8304
स मातरा विचरन्वाजयन्नपः प्र मेधिरः स्वधया पिन्वते पदम् ।
अंशुर्यवेन पिपिशे यतो नृभिः सं जामिभिर्नसते रक्षते शिरः॥4॥

जो  जन  अलसाए  पडे  हुए  हैं  कर्म - योग  ही  उन्हें  जगाता । 
सत्संगति सबको सुधारती हम  ही  हैं अपने भाग्य-विधाता॥4॥

8305
सं  दक्षेण  मनसा जायते कविरृतस्य  गर्भो  निहितो यमा परः ।
यूना ह सन्ता प्रथमं वि जज्ञतुर्गुहा हितं जनिम नेममुद्यतम्॥5॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  सबके  अन्तः मन  में  रहता ।
कर्म - मार्ग  है  सरल  इसी  से  हर राही इस पर ही चलता ॥5॥

8306
मन्द्रस्य रूपं विविदुर्मनीषिणः श्येनो यदन्धो अभरत्परावतः ।
तं मर्जयन्त सुवृधं नदीष्वॉ उशन्तमंशुं परियन्तमृग्मियम्॥6॥

ज्ञान - मार्ग  हो  कर्म - मार्ग  हो  परमेश्वर  मिल  ही  जाते  हैं ।
वह  प्रभु आनन्द  का सागर  है जिसने  जाना  वे  गाते  हैं ॥6॥

8307
त्वां मृजन्ति दश योषणःसुतं सोम ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम्।
अव्यो  वारेभिरुत  देवहूतिभिर्नृभिर्यतो  वाजमा  दर्षि  सातये ॥7॥

कर्म - मार्ग से ज्ञान- मार्ग से साधक को मिलता अतुलित - बल ।
आओ अब  इसी मार्ग को जानें सत् - कर्मों  का अद्भुत - फल ॥7॥

8308
परिप्रयन्तं  वय्यं  सुषंसदं  सोमं  मनीषा  अभ्यनूषत  स्तुभः ।
यो धारया मधुमॉ ऊर्मिणा दिव इयर्ति वाचं रयिशाळमर्त्यः॥8॥

परमेश्वर  परा - वाक्  से करते पावन  प्राञ्जल  प्रेरक  प्रवचन ।
आनन्द - लहर है वाणी उनकी सदुपदेश सम है नभ-गर्जन॥8॥

8309
अयं  दिव  इयर्ति  विश्वमा  रजः सोमः पुनानः कलशेषु सीदति ।
अद्भिर्गोभिर्मृज्यते अद्रिभिःसुतःपुनान इन्दुर्वरिवो विदत्प्रियम्॥9॥

चाहे  ज्ञान - मार्ग  हो  या  फिर  कर्म - योग  की  सुगढ - गली ।
पावन  परम्परा  पलती  है  यह  आनन्द  की  डगर  भली  ॥9॥

8310
एवा  नः  सोम  परिषिच्यमानो  वयो  दधच्चित्रतमं  पवस्व ।
अद्वेषे  द्यावापृथिवी  हुवेम  देवा धत्त रयिमस्मे सुवीरम्  ॥10॥

जो  साधक  सत्संगति  करते उनको  भी  मिलता  अनुदान ।
सुखमय जीवन वह जीता है यश - वैभव  देते  भगवान ॥10॥


1 comment:

  1. योगी का दायित्व यही है सबके मन का तमस मिटाना ।
    विज्ञानी-ज्ञानी सँग आना जगती को नव -ज्योति दिखाना॥2॥
    योग मन का तमस मिटाता है..

    ReplyDelete