[ऋषि- वत्सप्रिभालन्दन । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती- त्रिषुप् ।]
8301
प्र देवमच्छा मधुमन्त इन्दवोSसिष्यदन्त गाव आ न धेनवः ।
बर्हिषदो वचनावन्त ऊधमिः परिस्त्रुतमुस्त्रिया निर्णिजं धिरे॥1॥
विनय- शील होते विद्वत् - जन विनम्रता से करते ध्यान ।
फल से लदी डालियॉ झुकती विनय-शीलता है पहचान॥1॥
8302
स रोरुवदभि पूर्वा अचिक्रददुपारुहः श्रथयन्त्स्वादते हरिः ।
तिरः पवित्रं परियन्नुरु ज्रयो नि शर्याणि दधते देव आ वरम्॥2॥
योगी का दायित्व यही है सबके मन का तमस मिटाना ।
विज्ञानी-ज्ञानी सँग आना जगती को नव -ज्योति दिखाना॥2॥
8303
वि यो ममे यम्या संयती मदः साकंवृधा पयसा पिन्वदक्षिता ।
मही अपारे रजसी विवेविददभिव्रजन्नक्षितं पाज आ ददे॥3॥
कर्म - योग आनन्द - मार्ग है चिन्ता को करता है ध्वस्त ।
यह ही यश - वैभव देता है प्रगति - पन्थ करता प्रशस्त ॥3॥
8304
स मातरा विचरन्वाजयन्नपः प्र मेधिरः स्वधया पिन्वते पदम् ।
अंशुर्यवेन पिपिशे यतो नृभिः सं जामिभिर्नसते रक्षते शिरः॥4॥
जो जन अलसाए पडे हुए हैं कर्म - योग ही उन्हें जगाता ।
सत्संगति सबको सुधारती हम ही हैं अपने भाग्य-विधाता॥4॥
8305
सं दक्षेण मनसा जायते कविरृतस्य गर्भो निहितो यमा परः ।
यूना ह सन्ता प्रथमं वि जज्ञतुर्गुहा हितं जनिम नेममुद्यतम्॥5॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा सबके अन्तः मन में रहता ।
कर्म - मार्ग है सरल इसी से हर राही इस पर ही चलता ॥5॥
8306
मन्द्रस्य रूपं विविदुर्मनीषिणः श्येनो यदन्धो अभरत्परावतः ।
तं मर्जयन्त सुवृधं नदीष्वॉ उशन्तमंशुं परियन्तमृग्मियम्॥6॥
ज्ञान - मार्ग हो कर्म - मार्ग हो परमेश्वर मिल ही जाते हैं ।
वह प्रभु आनन्द का सागर है जिसने जाना वे गाते हैं ॥6॥
8307
त्वां मृजन्ति दश योषणःसुतं सोम ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम्।
अव्यो वारेभिरुत देवहूतिभिर्नृभिर्यतो वाजमा दर्षि सातये ॥7॥
कर्म - मार्ग से ज्ञान- मार्ग से साधक को मिलता अतुलित - बल ।
आओ अब इसी मार्ग को जानें सत् - कर्मों का अद्भुत - फल ॥7॥
8308
परिप्रयन्तं वय्यं सुषंसदं सोमं मनीषा अभ्यनूषत स्तुभः ।
यो धारया मधुमॉ ऊर्मिणा दिव इयर्ति वाचं रयिशाळमर्त्यः॥8॥
परमेश्वर परा - वाक् से करते पावन प्राञ्जल प्रेरक प्रवचन ।
आनन्द - लहर है वाणी उनकी सदुपदेश सम है नभ-गर्जन॥8॥
8309
अयं दिव इयर्ति विश्वमा रजः सोमः पुनानः कलशेषु सीदति ।
अद्भिर्गोभिर्मृज्यते अद्रिभिःसुतःपुनान इन्दुर्वरिवो विदत्प्रियम्॥9॥
चाहे ज्ञान - मार्ग हो या फिर कर्म - योग की सुगढ - गली ।
पावन परम्परा पलती है यह आनन्द की डगर भली ॥9॥
8310
एवा नः सोम परिषिच्यमानो वयो दधच्चित्रतमं पवस्व ।
अद्वेषे द्यावापृथिवी हुवेम देवा धत्त रयिमस्मे सुवीरम् ॥10॥
जो साधक सत्संगति करते उनको भी मिलता अनुदान ।
सुखमय जीवन वह जीता है यश - वैभव देते भगवान ॥10॥
8301
प्र देवमच्छा मधुमन्त इन्दवोSसिष्यदन्त गाव आ न धेनवः ।
बर्हिषदो वचनावन्त ऊधमिः परिस्त्रुतमुस्त्रिया निर्णिजं धिरे॥1॥
विनय- शील होते विद्वत् - जन विनम्रता से करते ध्यान ।
फल से लदी डालियॉ झुकती विनय-शीलता है पहचान॥1॥
8302
स रोरुवदभि पूर्वा अचिक्रददुपारुहः श्रथयन्त्स्वादते हरिः ।
तिरः पवित्रं परियन्नुरु ज्रयो नि शर्याणि दधते देव आ वरम्॥2॥
योगी का दायित्व यही है सबके मन का तमस मिटाना ।
विज्ञानी-ज्ञानी सँग आना जगती को नव -ज्योति दिखाना॥2॥
8303
वि यो ममे यम्या संयती मदः साकंवृधा पयसा पिन्वदक्षिता ।
मही अपारे रजसी विवेविददभिव्रजन्नक्षितं पाज आ ददे॥3॥
कर्म - योग आनन्द - मार्ग है चिन्ता को करता है ध्वस्त ।
यह ही यश - वैभव देता है प्रगति - पन्थ करता प्रशस्त ॥3॥
8304
स मातरा विचरन्वाजयन्नपः प्र मेधिरः स्वधया पिन्वते पदम् ।
अंशुर्यवेन पिपिशे यतो नृभिः सं जामिभिर्नसते रक्षते शिरः॥4॥
जो जन अलसाए पडे हुए हैं कर्म - योग ही उन्हें जगाता ।
सत्संगति सबको सुधारती हम ही हैं अपने भाग्य-विधाता॥4॥
8305
सं दक्षेण मनसा जायते कविरृतस्य गर्भो निहितो यमा परः ।
यूना ह सन्ता प्रथमं वि जज्ञतुर्गुहा हितं जनिम नेममुद्यतम्॥5॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा सबके अन्तः मन में रहता ।
कर्म - मार्ग है सरल इसी से हर राही इस पर ही चलता ॥5॥
8306
मन्द्रस्य रूपं विविदुर्मनीषिणः श्येनो यदन्धो अभरत्परावतः ।
तं मर्जयन्त सुवृधं नदीष्वॉ उशन्तमंशुं परियन्तमृग्मियम्॥6॥
ज्ञान - मार्ग हो कर्म - मार्ग हो परमेश्वर मिल ही जाते हैं ।
वह प्रभु आनन्द का सागर है जिसने जाना वे गाते हैं ॥6॥
8307
त्वां मृजन्ति दश योषणःसुतं सोम ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम्।
अव्यो वारेभिरुत देवहूतिभिर्नृभिर्यतो वाजमा दर्षि सातये ॥7॥
कर्म - मार्ग से ज्ञान- मार्ग से साधक को मिलता अतुलित - बल ।
आओ अब इसी मार्ग को जानें सत् - कर्मों का अद्भुत - फल ॥7॥
8308
परिप्रयन्तं वय्यं सुषंसदं सोमं मनीषा अभ्यनूषत स्तुभः ।
यो धारया मधुमॉ ऊर्मिणा दिव इयर्ति वाचं रयिशाळमर्त्यः॥8॥
परमेश्वर परा - वाक् से करते पावन प्राञ्जल प्रेरक प्रवचन ।
आनन्द - लहर है वाणी उनकी सदुपदेश सम है नभ-गर्जन॥8॥
8309
अयं दिव इयर्ति विश्वमा रजः सोमः पुनानः कलशेषु सीदति ।
अद्भिर्गोभिर्मृज्यते अद्रिभिःसुतःपुनान इन्दुर्वरिवो विदत्प्रियम्॥9॥
चाहे ज्ञान - मार्ग हो या फिर कर्म - योग की सुगढ - गली ।
पावन परम्परा पलती है यह आनन्द की डगर भली ॥9॥
8310
एवा नः सोम परिषिच्यमानो वयो दधच्चित्रतमं पवस्व ।
अद्वेषे द्यावापृथिवी हुवेम देवा धत्त रयिमस्मे सुवीरम् ॥10॥
जो साधक सत्संगति करते उनको भी मिलता अनुदान ।
सुखमय जीवन वह जीता है यश - वैभव देते भगवान ॥10॥
योगी का दायित्व यही है सबके मन का तमस मिटाना ।
ReplyDeleteविज्ञानी-ज्ञानी सँग आना जगती को नव -ज्योति दिखाना॥2॥
योग मन का तमस मिटाता है..