[ऋषि- पवित्र आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]
8349
स्त्रक्वे द्रप्सस्य धमतः समस्वरन्नृतस्य योना समरन्त नाभयः ।
त्रीन्त्स मूर्घ्नो असुरश्चक्र आरभे सत्यस्य नावः सुकृतमपीपरन्॥1॥
सच्चाई की नाव सुशोभित कर्म - योग पथ में मिलती है ।
खट् - रागों से वही बचाती कर्तव्य - कर्म को वह चुनती है ॥1॥
8350
सम्यक सम्यञ्चो महिषा अहेषत सिन्धोरूर्मावधि वेना अवीविपन्।
मधोर्धाराभिर्जनयन्तो अर्कमित्प्रियामिन्द्रस्य तन्वमवीवृधन् ॥2॥
नदी - बीच सुमिरन करते हैं चाहे जितनी हो तेज - धार ।
अद्भुत - आस लिए अनुरागी करते हैं भव - सागर को पार ॥2॥
8351
पवित्रवन्तः परि वाचमासते पितैषां प्रत्नो अभि रक्षति व्रतम् ।
महः समुद्रं वरुणस्तिरो दधे धीरा इच्छेकुर्धरुणेष्वारभम् ॥3॥
वेद - ऋचायें आश्रय देतीं प्रभु साधक की रक्षा करते हैं ।
कोई विरला ही पार उतरता महा - पुरुष ऐसा कहते हैं ॥3॥
8352
सहस्त्रधारेSव ते समस्वरन्दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चतः ।
अस्य स्पशो न नि मिषन्ति भूर्णयःपदेपदे पाशिनःसन्ति सेतवः॥4॥
प्रभु - प्रसाद आनन्द- लहर यह इधर-उधर बहती रहती है ।
जो परमात्म- परायण होते उस तक ऊर्मि पहुँचती है ॥4॥
8353
पितुर्मातुरध्या ये समस्वरन्नृचा शोचन्तः संदहन्तो अव्रतान् ।
इन्द्रद्विष्टामप धमन्ति मायया त्वचमसिक्नीं भूमनो दिवस्परि॥5॥
वेद - ऋचायें राह दिखातीं यात्रा पर ले - कर जातीं हैं ।
जो शिक्षित- दीक्षित हैं उनको स्वयं ध्येय तक पहुँचाती हैं ॥5॥
8354
प्रत्नान्मानादध्या ये समस्वरञ्छ्लोकयन्त्रासो रभसस्य मन्तवः।
अपानक्षासो बधिरा अहासत ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः॥6॥
जो सत्पथ पर ही चलते हैं वे ही करते भव - सागर पार ।
प्रभु - पूजा करने वालों की होती नहीं कभी भी हार ॥6॥
8355
सहत्रधारे वितते पवित्र आ वाचं पुनन्ति कवयो मनीषिणः ।
रुद्रास एषामिषिरासो अद्रुहःस्पशःस्वञ्चःसुदृशो नृचक्षसः॥7॥
अति पावन है वह परमेश्वर जो करते हैं उनका ध्यान ।
वे ही ज्ञानी बन सकते हैं बन सकते हैं मनुज महान ॥7॥
8356
ऋतस्य गोपा न दभाय सुक्रतुस्त्री ष पवित्रा हृद्य1न्तरा दधे ।
विद्वान्त्स विश्वा भुवनानि पश्यत्यवाजुष्टान्विध्यति कर्ते अव्रतान्॥8॥
परमेश्वर पर करो भरोसा जो करते हैं उन पर विश्वास ।
वे निर्भय हो- कर जीते हैं प्रभु स्वयं यहीं हैं आस- पास ॥8॥
8357
ऋतस्य तन्तुर्विततः पवित्र आ जिह्वाया अग्रे वरुणस्य मायया ।
धीराश्चित्तत्समिनक्षन्त आशत्राता कर्तमव पदात्यप्रभुः ॥9॥
कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही अपनी मञ्जिल को पाता है ।
प्रभु बैठे हैं अन्तर्मन में चहुँ ओर सफल वह हो जाता है ॥9॥
8349
स्त्रक्वे द्रप्सस्य धमतः समस्वरन्नृतस्य योना समरन्त नाभयः ।
त्रीन्त्स मूर्घ्नो असुरश्चक्र आरभे सत्यस्य नावः सुकृतमपीपरन्॥1॥
सच्चाई की नाव सुशोभित कर्म - योग पथ में मिलती है ।
खट् - रागों से वही बचाती कर्तव्य - कर्म को वह चुनती है ॥1॥
8350
सम्यक सम्यञ्चो महिषा अहेषत सिन्धोरूर्मावधि वेना अवीविपन्।
मधोर्धाराभिर्जनयन्तो अर्कमित्प्रियामिन्द्रस्य तन्वमवीवृधन् ॥2॥
नदी - बीच सुमिरन करते हैं चाहे जितनी हो तेज - धार ।
अद्भुत - आस लिए अनुरागी करते हैं भव - सागर को पार ॥2॥
8351
पवित्रवन्तः परि वाचमासते पितैषां प्रत्नो अभि रक्षति व्रतम् ।
महः समुद्रं वरुणस्तिरो दधे धीरा इच्छेकुर्धरुणेष्वारभम् ॥3॥
वेद - ऋचायें आश्रय देतीं प्रभु साधक की रक्षा करते हैं ।
कोई विरला ही पार उतरता महा - पुरुष ऐसा कहते हैं ॥3॥
8352
सहस्त्रधारेSव ते समस्वरन्दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चतः ।
अस्य स्पशो न नि मिषन्ति भूर्णयःपदेपदे पाशिनःसन्ति सेतवः॥4॥
प्रभु - प्रसाद आनन्द- लहर यह इधर-उधर बहती रहती है ।
जो परमात्म- परायण होते उस तक ऊर्मि पहुँचती है ॥4॥
8353
पितुर्मातुरध्या ये समस्वरन्नृचा शोचन्तः संदहन्तो अव्रतान् ।
इन्द्रद्विष्टामप धमन्ति मायया त्वचमसिक्नीं भूमनो दिवस्परि॥5॥
वेद - ऋचायें राह दिखातीं यात्रा पर ले - कर जातीं हैं ।
जो शिक्षित- दीक्षित हैं उनको स्वयं ध्येय तक पहुँचाती हैं ॥5॥
8354
प्रत्नान्मानादध्या ये समस्वरञ्छ्लोकयन्त्रासो रभसस्य मन्तवः।
अपानक्षासो बधिरा अहासत ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः॥6॥
जो सत्पथ पर ही चलते हैं वे ही करते भव - सागर पार ।
प्रभु - पूजा करने वालों की होती नहीं कभी भी हार ॥6॥
8355
सहत्रधारे वितते पवित्र आ वाचं पुनन्ति कवयो मनीषिणः ।
रुद्रास एषामिषिरासो अद्रुहःस्पशःस्वञ्चःसुदृशो नृचक्षसः॥7॥
अति पावन है वह परमेश्वर जो करते हैं उनका ध्यान ।
वे ही ज्ञानी बन सकते हैं बन सकते हैं मनुज महान ॥7॥
8356
ऋतस्य गोपा न दभाय सुक्रतुस्त्री ष पवित्रा हृद्य1न्तरा दधे ।
विद्वान्त्स विश्वा भुवनानि पश्यत्यवाजुष्टान्विध्यति कर्ते अव्रतान्॥8॥
परमेश्वर पर करो भरोसा जो करते हैं उन पर विश्वास ।
वे निर्भय हो- कर जीते हैं प्रभु स्वयं यहीं हैं आस- पास ॥8॥
8357
ऋतस्य तन्तुर्विततः पवित्र आ जिह्वाया अग्रे वरुणस्य मायया ।
धीराश्चित्तत्समिनक्षन्त आशत्राता कर्तमव पदात्यप्रभुः ॥9॥
कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही अपनी मञ्जिल को पाता है ।
प्रभु बैठे हैं अन्तर्मन में चहुँ ओर सफल वह हो जाता है ॥9॥
सत्य ही ईश्वर है...
ReplyDeleteश्रद्धा जीवन का फूल है..
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