[ऋषि- उशना काव्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8494
प्रो स्य वह्निः पथ्याभिरस्यान्दिवो न वृष्टिः पवमानो अक्षा: ।
सहस्त्रधारो असदन्न्य1स्मे मातुरुपस्थे वन आ च सोमः॥1॥
जो प्रभु पर आश्रित होते हैं निर्भय जीवन वे जीते हैं ।
मॉ की गोद सदृश ही सुख-कर प्रभु-प्रसाद को वे पीते हैं ॥1॥
8495
राजा सिन्धूनामवसिष्ट वास ऋतस्य नावमारुहद्रजिष्ठाम् ।
अप्सु द्रप्सो वावृधे श्येनजूतो दुह ईं पिता दुह ईं पितुर्जाम्॥2॥
कर्म-योग सुख की नौका है करती है कर्म-नदी को पार ।
परमेश्वर सर्वत्र व्याप्त है एक-मात्र है वह मेरा आधार ॥2॥
8496
सिंहं नसन्त मध्वो अयासं हरिमरुषं दिवो अस्य पतिम् ।
शूरो युत्सु प्रथमः पृच्छते गा अस्य चक्षसा परि पात्युक्षा॥3॥
वह पावन पूजनीय परमेश्वर धीर वीर को ही मिलता है ।
परमात्मा आश्रय देता है प्रेम-प्रसून तभी खिलता है ॥3॥
8497
मधुपृष्ठं घोरमयासमश्वं रथे युञ्जन्त्युरुचक्र ऋष्वम् ।
स्वसार ईं जामयो मर्जयन्ति सनाभयो वाजिनमूर्जयन्ति॥4॥
चित्त - वृत्तियॉ प्रेरित करती परमेश्वर का करतीं हैं ध्यान ।
अनन्त-शक्ति का वह स्वामी है दिव्य-शक्ति का देता दान॥4॥
8498
चतस्त्र ईं घृतदुहः सचन्ते समाने अन्तर्धरुणे निषत्ता: ।
ता ईमर्षन्ति नमसा पुनानास्ता ईं विश्वतःपरि षन्ति पूर्वीः॥5॥
परमेश्वर का वैभव दिखता वह वैभव का है आधार ।
पात्रानुरूप वर्चस देता है उसकी लीला अपरम्पार ॥5॥
8499
विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्या विश्वा उत क्षितयो हस्ते अस्य ।
असत्त उत्सो गृणते नियुत्वान्मध्वो अंशुः पवत इन्द्रियाय॥6॥
कर्म-राह पर चल-कर हम भी अपना अभीष्ट पा सकते हैं ।
जीवन सार्थक कर सकते हैं गुरु-जन यही कहा करते हैं ॥6॥
8500
वन्वन्नवातो अभि देववीतिमिन्द्राय सोम वृत्रहा पवस्व ।
शग्धि महः पुरुश्चन्द्रस्य रायः सुवीर्यस्य पतयः स्याम॥7॥
अज्ञान-तमस को वही मिटाते सबको देते हैं धन - धान ।
चारों- बल हमको भी देना हे परमेश्वर कृपा - निधान ॥7॥
8494
प्रो स्य वह्निः पथ्याभिरस्यान्दिवो न वृष्टिः पवमानो अक्षा: ।
सहस्त्रधारो असदन्न्य1स्मे मातुरुपस्थे वन आ च सोमः॥1॥
जो प्रभु पर आश्रित होते हैं निर्भय जीवन वे जीते हैं ।
मॉ की गोद सदृश ही सुख-कर प्रभु-प्रसाद को वे पीते हैं ॥1॥
8495
राजा सिन्धूनामवसिष्ट वास ऋतस्य नावमारुहद्रजिष्ठाम् ।
अप्सु द्रप्सो वावृधे श्येनजूतो दुह ईं पिता दुह ईं पितुर्जाम्॥2॥
कर्म-योग सुख की नौका है करती है कर्म-नदी को पार ।
परमेश्वर सर्वत्र व्याप्त है एक-मात्र है वह मेरा आधार ॥2॥
8496
सिंहं नसन्त मध्वो अयासं हरिमरुषं दिवो अस्य पतिम् ।
शूरो युत्सु प्रथमः पृच्छते गा अस्य चक्षसा परि पात्युक्षा॥3॥
वह पावन पूजनीय परमेश्वर धीर वीर को ही मिलता है ।
परमात्मा आश्रय देता है प्रेम-प्रसून तभी खिलता है ॥3॥
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मधुपृष्ठं घोरमयासमश्वं रथे युञ्जन्त्युरुचक्र ऋष्वम् ।
स्वसार ईं जामयो मर्जयन्ति सनाभयो वाजिनमूर्जयन्ति॥4॥
चित्त - वृत्तियॉ प्रेरित करती परमेश्वर का करतीं हैं ध्यान ।
अनन्त-शक्ति का वह स्वामी है दिव्य-शक्ति का देता दान॥4॥
8498
चतस्त्र ईं घृतदुहः सचन्ते समाने अन्तर्धरुणे निषत्ता: ।
ता ईमर्षन्ति नमसा पुनानास्ता ईं विश्वतःपरि षन्ति पूर्वीः॥5॥
परमेश्वर का वैभव दिखता वह वैभव का है आधार ।
पात्रानुरूप वर्चस देता है उसकी लीला अपरम्पार ॥5॥
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विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्या विश्वा उत क्षितयो हस्ते अस्य ।
असत्त उत्सो गृणते नियुत्वान्मध्वो अंशुः पवत इन्द्रियाय॥6॥
कर्म-राह पर चल-कर हम भी अपना अभीष्ट पा सकते हैं ।
जीवन सार्थक कर सकते हैं गुरु-जन यही कहा करते हैं ॥6॥
8500
वन्वन्नवातो अभि देववीतिमिन्द्राय सोम वृत्रहा पवस्व ।
शग्धि महः पुरुश्चन्द्रस्य रायः सुवीर्यस्य पतयः स्याम॥7॥
अज्ञान-तमस को वही मिटाते सबको देते हैं धन - धान ।
चारों- बल हमको भी देना हे परमेश्वर कृपा - निधान ॥7॥
यही गीता का ज्ञान है...कर्ता और कारक सब वही है...
ReplyDeleteगहरे दर्शन से संपोषित संस्कृति के अंग।
ReplyDeleteवह पावन पूजनीय परमेश्वर धीर वीर को ही मिलता है ।
ReplyDeleteपरमात्मा आश्रय देता है प्रेम-प्रसून तभी खिलता है ॥3॥
भक्तिरस में डूबी पंक्तियाँ..