[ऋषि- वसिष्ठ मैत्रावरुणि । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8501
प्र हिन्वानो जनिता रोदस्यो रथो न वाजं सनिष्यन्नयासीत् ।
इन्द्रं गच्छन्नायुधा संशिशानो विश्वा वसु हस्तयोरादधानः॥1॥
आयुध विविध धार वाला हो तभी रहेगा देश सुरक्षित ।
नूतन अस्त्र-शस्त्र जुडने से सेना होगी पुनः परीक्षित॥1॥
8502
अभि त्रिपृष्ठं वृषणं वयोधामाङ्गूषाणामवावशन्त वाणीः ।
वना वसानो वरुणो न सिन्धून्वि रत्नधा दयते वार्याणि॥2॥
वाणी अविरल वैभव गाती सोम - देव की बारम्बार ।
अम्बर अवनि और अम्बुज पर सोम-देव का है घर-द्वार॥2॥
8503
शूरग्रामः सर्ववीरः सहावाञ्जेता पवस्व सनिता धनानि ।
तिग्मायुधःक्षिप्रधन्वा समत्स्वषाळ्हःसाह्वान् पृतनासु शत्रून्॥3॥
धीर-वीर वह कहलाता है जो सबका हित लेकर चलता
विविध-विधा के आयुध द्वारा देश-भूमि को रक्षित करता॥3॥
8504
उरुगव्यूतिरभयानि कृण्वन्त्समीचीने आ पवस्वा पुरन्धी ।
अपःसिषासन्नुषसःस्व1र्गा:सं चिक्रदो महो अस्मभ्यं वाजान्॥4॥
धर्म-राह पर निर्भय हो-कर जो साधक चलते रहते हैं ।
कर्मानुरूप शुभ फल पाते हैं प्रगति पन्थ पर वे बढते हैं ॥4॥
8505
मत्सि सोम वरुणं मत्सि मित्रं मत्सीन्द्रमिन्दो पवमान विष्णुम् ।
मत्सि शर्धो मारुतं मत्सि देवान्मत्सि महामिन्द्रमिन्दो मदाय॥5॥
कर्म-मार्ग का पथिक हमेशा सबका प्रिय बन जाता है ।
अध्यात्म राह पर वह चलता है यश-वैभव वह पाता है॥5॥
8506
एवा राजेव क्रतुमॉ अमेन विश्वा घनिघ्नद् दुरिता पवस्व ।
इन्दो सूक्ताय वचसे वयो धा यूयं पात स्वस्तिभिःसदा नः॥6॥
शुभ- चिन्तन ही शुभ फल देता आओ यही मार्ग अपनायें ।
सबके हित-चिन्तन से हम भी परमेश्वर का प्रसाद पायें॥6॥
8501
प्र हिन्वानो जनिता रोदस्यो रथो न वाजं सनिष्यन्नयासीत् ।
इन्द्रं गच्छन्नायुधा संशिशानो विश्वा वसु हस्तयोरादधानः॥1॥
आयुध विविध धार वाला हो तभी रहेगा देश सुरक्षित ।
नूतन अस्त्र-शस्त्र जुडने से सेना होगी पुनः परीक्षित॥1॥
8502
अभि त्रिपृष्ठं वृषणं वयोधामाङ्गूषाणामवावशन्त वाणीः ।
वना वसानो वरुणो न सिन्धून्वि रत्नधा दयते वार्याणि॥2॥
वाणी अविरल वैभव गाती सोम - देव की बारम्बार ।
अम्बर अवनि और अम्बुज पर सोम-देव का है घर-द्वार॥2॥
8503
शूरग्रामः सर्ववीरः सहावाञ्जेता पवस्व सनिता धनानि ।
तिग्मायुधःक्षिप्रधन्वा समत्स्वषाळ्हःसाह्वान् पृतनासु शत्रून्॥3॥
धीर-वीर वह कहलाता है जो सबका हित लेकर चलता
विविध-विधा के आयुध द्वारा देश-भूमि को रक्षित करता॥3॥
8504
उरुगव्यूतिरभयानि कृण्वन्त्समीचीने आ पवस्वा पुरन्धी ।
अपःसिषासन्नुषसःस्व1र्गा:सं चिक्रदो महो अस्मभ्यं वाजान्॥4॥
धर्म-राह पर निर्भय हो-कर जो साधक चलते रहते हैं ।
कर्मानुरूप शुभ फल पाते हैं प्रगति पन्थ पर वे बढते हैं ॥4॥
8505
मत्सि सोम वरुणं मत्सि मित्रं मत्सीन्द्रमिन्दो पवमान विष्णुम् ।
मत्सि शर्धो मारुतं मत्सि देवान्मत्सि महामिन्द्रमिन्दो मदाय॥5॥
कर्म-मार्ग का पथिक हमेशा सबका प्रिय बन जाता है ।
अध्यात्म राह पर वह चलता है यश-वैभव वह पाता है॥5॥
8506
एवा राजेव क्रतुमॉ अमेन विश्वा घनिघ्नद् दुरिता पवस्व ।
इन्दो सूक्ताय वचसे वयो धा यूयं पात स्वस्तिभिःसदा नः॥6॥
शुभ- चिन्तन ही शुभ फल देता आओ यही मार्ग अपनायें ।
सबके हित-चिन्तन से हम भी परमेश्वर का प्रसाद पायें॥6॥
सबका हित, सर्वाधिक।
ReplyDeleteशुभ- चिन्तन ही शुभ फल देता...शुभ करमन ते कबहुँ न टरो...
ReplyDeleteकितने उज्ज्वल विचार ! संस्कृत साहित्य में जैसी विश्व-मंगल की कामना और मानव एवं प्रकृति का तादात्म्य है वह अन्यत्र दुर्लभ है - आप उसे सब के लिए सुलभ कर रही हैं आभार आपका !
ReplyDeleteशुभ- चिन्तन ही शुभ फल देता आओ यही मार्ग अपनायें ।
ReplyDeleteसबके हित-चिन्तन से हम भी परमेश्वर का प्रसाद पायें॥6॥
सार्थक पोस्ट !