[ऋषि- हरिमन्त आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]
8340
हरिं मृजन्त्यरुषो न युज्यते सं धेनुभिः कलशे सोमो अज्यते ।
उद्वाचमीरयति हिन्वते मती पुरुष्टुतस्य कति चित्परिप्रियः॥1॥
परमेश्वर पावन मन देते हैं साधक को प्रेरित करते हैं ।
सज्जन के ध्यान में वे आते हैं प्रभु उसके मन में रहते हैं ॥1॥
8341
साकं वदन्ति बहवो मनीषिण इन्द्रस्य सोमं जठरे यदादुहुः ।
यदी मृजन्ति सुभगस्तयो नरःसनीळाभिर्दशभिःकाम्यं मधु॥2॥
जब योगी प्रभु - दर्शन पाता सामाजिक -तन्द्रा होती ध्वस्त ।
जागरूक हो जाता मानव हर कोई बन जाता भक्त ॥2॥
8342
अरममाणो अत्येति गा अभि सूर्यस्य प्रियं दुहितुस्तिरो रवम् ।
अन्वस्मै जोषमभरद्विनंगृसःसं द्वयीभिःस्वसृभिःक्षेति जामिभिः॥3॥
ऐसी जागरूक आत्मा का हर समाज करता अभिनन्दन ।
सबको सीढी मिल जाती है मिट जाता है मन का क्रन्दन॥3॥
8343
नृधूतो अद्रिषुतो बर्हिषि प्रियः पतिर्गवां प्रदिव इन्दुरृत्वियः ।
पुरन्धिवान्मनुषो यज्ञसाधनः शुचिर्धिया पवते सोम इन्द्र ते॥4॥
जब अदृश्य ईश्वर से कोई अपना परिचित हो जाता है ।
लगता है दिल्ली दूर नहीं है मन अद्भुत आन्न्द पाता है ॥4॥
8344
नृबाहुभ्यां चोदितो धारया सुतोSनुष्वधं पवते सोम इन्द्र ते ।
आप्रा:क्रतून्त्समजैरध्वरे मतीर्वेर्न द्रुषच्चम्वो3रासदध्दरिः॥5॥
धीर - वीर निर्भय मानव ही दुष्टों - पर पडता है भारी ।
धर्म - युध्द तुम लडो परस्पर राम-राज्य की हो तैयारी ॥5॥
8345
अंशुं दुहन्ति स्तनयन्तमक्षितं कविं कवयोSपसो मनीषिणः ।
समी गावो मतयो यन्ति संयत ऋतस्य योना सदने पुनर्भुवः॥6॥
बुध्दि - शस्त्र से रण जीतो तुम बारम्बार करो अभ्यास ।
परमात्मा को जानो समझो वह यहीं है तेरे आस - पास ॥6॥
8346
नाभा पृथिव्या धरुणो महो दिवो3Sपामूर्मौ सिन्धुष्वन्तरुक्षितः ।
इन्द्रस्य वज्रो वृषभो विभूवसुः सोमो हृदे पवते चारु मत्सरः॥7॥
प्रभु पर जिनकी अटल - भक्ति है वही मनुज आनन्द पाते हैं ।
अहंकार है सुख का दुश्मन इसको तज-कर हम मुस्काते हैं॥7॥
8347
स तू पवस्व परि पार्थिवं रजः स्तोत्रे शिक्षन्नाधून्वते च सुक्रतो ।
मा नो निर्भाग्वसुनःसादनस्पृशो रयिं पिशङगं बहुलं वसीमहि॥8॥
हे प्रभु पावन मुझे बना दो अन्न - धान का दे दो दान ।
वसुन्धरा का सब सुख देना साहस सुमति और सम्मान ॥8॥
8348
आ तू न इन्दो शतदात्वश्रृयं सहत्रदातु पशुमध्दिरण्यवत् ।
उप मास्व बृहती रेवतीरिषोSधि स्तोत्रस्य पवमान नो गहि॥9॥
कर्म- योग का पथिक निरन्तर बिना कामना करता ध्यान ।
वह है सच्चा - साधक उसको निश्चित अपनाते भगवान ॥9॥
8340
हरिं मृजन्त्यरुषो न युज्यते सं धेनुभिः कलशे सोमो अज्यते ।
उद्वाचमीरयति हिन्वते मती पुरुष्टुतस्य कति चित्परिप्रियः॥1॥
परमेश्वर पावन मन देते हैं साधक को प्रेरित करते हैं ।
सज्जन के ध्यान में वे आते हैं प्रभु उसके मन में रहते हैं ॥1॥
8341
साकं वदन्ति बहवो मनीषिण इन्द्रस्य सोमं जठरे यदादुहुः ।
यदी मृजन्ति सुभगस्तयो नरःसनीळाभिर्दशभिःकाम्यं मधु॥2॥
जब योगी प्रभु - दर्शन पाता सामाजिक -तन्द्रा होती ध्वस्त ।
जागरूक हो जाता मानव हर कोई बन जाता भक्त ॥2॥
8342
अरममाणो अत्येति गा अभि सूर्यस्य प्रियं दुहितुस्तिरो रवम् ।
अन्वस्मै जोषमभरद्विनंगृसःसं द्वयीभिःस्वसृभिःक्षेति जामिभिः॥3॥
ऐसी जागरूक आत्मा का हर समाज करता अभिनन्दन ।
सबको सीढी मिल जाती है मिट जाता है मन का क्रन्दन॥3॥
8343
नृधूतो अद्रिषुतो बर्हिषि प्रियः पतिर्गवां प्रदिव इन्दुरृत्वियः ।
पुरन्धिवान्मनुषो यज्ञसाधनः शुचिर्धिया पवते सोम इन्द्र ते॥4॥
जब अदृश्य ईश्वर से कोई अपना परिचित हो जाता है ।
लगता है दिल्ली दूर नहीं है मन अद्भुत आन्न्द पाता है ॥4॥
8344
नृबाहुभ्यां चोदितो धारया सुतोSनुष्वधं पवते सोम इन्द्र ते ।
आप्रा:क्रतून्त्समजैरध्वरे मतीर्वेर्न द्रुषच्चम्वो3रासदध्दरिः॥5॥
धीर - वीर निर्भय मानव ही दुष्टों - पर पडता है भारी ।
धर्म - युध्द तुम लडो परस्पर राम-राज्य की हो तैयारी ॥5॥
8345
अंशुं दुहन्ति स्तनयन्तमक्षितं कविं कवयोSपसो मनीषिणः ।
समी गावो मतयो यन्ति संयत ऋतस्य योना सदने पुनर्भुवः॥6॥
बुध्दि - शस्त्र से रण जीतो तुम बारम्बार करो अभ्यास ।
परमात्मा को जानो समझो वह यहीं है तेरे आस - पास ॥6॥
8346
नाभा पृथिव्या धरुणो महो दिवो3Sपामूर्मौ सिन्धुष्वन्तरुक्षितः ।
इन्द्रस्य वज्रो वृषभो विभूवसुः सोमो हृदे पवते चारु मत्सरः॥7॥
प्रभु पर जिनकी अटल - भक्ति है वही मनुज आनन्द पाते हैं ।
अहंकार है सुख का दुश्मन इसको तज-कर हम मुस्काते हैं॥7॥
8347
स तू पवस्व परि पार्थिवं रजः स्तोत्रे शिक्षन्नाधून्वते च सुक्रतो ।
मा नो निर्भाग्वसुनःसादनस्पृशो रयिं पिशङगं बहुलं वसीमहि॥8॥
हे प्रभु पावन मुझे बना दो अन्न - धान का दे दो दान ।
वसुन्धरा का सब सुख देना साहस सुमति और सम्मान ॥8॥
8348
आ तू न इन्दो शतदात्वश्रृयं सहत्रदातु पशुमध्दिरण्यवत् ।
उप मास्व बृहती रेवतीरिषोSधि स्तोत्रस्य पवमान नो गहि॥9॥
कर्म- योग का पथिक निरन्तर बिना कामना करता ध्यान ।
वह है सच्चा - साधक उसको निश्चित अपनाते भगवान ॥9॥
प्रभु पर जिनकी अटल - भक्ति है वही मनुज आनन्द पाते हैं ।
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हे प्रभु, तेरे आनंद में हम डूबते उतराते रहें..