[ऋषि- ऋषभ वैश्वामित्र । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]
8331
आ दक्षिणा सृज्यते शुष्म्या3सदं वेति द्रुहो रक्षसःपाति जागृविः ।
हरिरोपशं कृणुते नभस्पय उपस्तिरे चम्वो 3र्ब्रह्म निर्णिजे ॥1॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा वरद- हस्त हम पर रखता है ।
उपासना दक्षिणा - सदृश है नर कृतज्ञता - ज्ञापन करता है ॥1॥
8332
प्र कृष्टिहेव शूष एति रोरुवदसुर्यं1 वर्णं नि रिणीते अस्य तम् ।
जहाति वव्रिं पितुरेति निष्कृतमुपप्रुतं कृणुते निर्णिजं तना॥2॥
परमात्मा योध्दा समान ही सबका पालन-पोषण करता ।
दुष्टों से रक्षा करता है हम सबकी विपदा वह हरता ॥2॥
8333
अद्रिभिः सुतः पवते गभस्त्योर्वृषायते नभसा वेपते मती ।
स मोदते नसते साधते गिरा नेनिक्ते यजते परीमणि ॥3॥
प्रभु ही ज्ञान - ज्योति देते हैं वह ही हैं सत् चित् आनन्द ।
उद्योगी - जन उनको पाते हैं वे हैं पूरण - परमानन्द ॥3॥
8334
परि द्युक्षं सहसः पर्वतावृधं मध्वः सिञ्चन्ति हर्म्यस्य सक्षणिम् ।
आ यस्मिनगावःसुहुताद ऊधनि मूर्धञ्छ्रीणन्त्यग्रियं वरीमभिः॥4॥
क्षमा - शील वह परमात्मा ही देता है अविरल - आनन्द ।
खट- रागों से वही बचाता भक्तों को देता ब्रह्मा - नन्द ॥4॥
8335
समी रथं न भुरिजोरहेषत दश स्वसारो अदितेरुपस्थ आ ।
जिगादुप ज्रयति गोरपीच्यं पदं यदस्य मतुथा अजीजनन्॥5॥
दश - रथ को वे प्रेरित करते पावन - पथ पर पहुँचाते हैं ।
मनो - कामना पूरी करते मोक्ष - द्वार वे दिखलाते हैं ॥5॥
8336
श्येनो न योनिं सदनं धिया कृतं हिरण्ययमासदं देव एषति ।
ए रिणन्ति बर्हिषि प्रियं गिराश्वो न देवॉ अप्येति यज्ञियः॥6॥
आत्म- ज्ञान में रुचि हो जिनकी परमेश्वर का ध्यान करें ।
उषा - सदृश सब ओर वही है चलो उसी की डगर धरें ॥6॥
8337
परा व्यक्तो अरुषो दिवः कविर्वृषा त्रिपृष्ठो अनविष्ट गा अभि ।
सहस्त्रणीतिर्यतिः परायती रेभो न पूर्वीरुषसो वि राजति॥7॥
परमेश्वर आलोक - प्रदाता आनन्द की वर्षा करता है ।
अनन्त -शक्ति का वह स्वामी आलोक हमें देता रहता है॥7॥
8338
त्वेषं रूपं कृणुते वर्णो अस्य स यत्राशयत्समृता सेधति स्त्रिधः।
अप्सा याति स्वधया दैव्यं जनं सं सुष्टुती नसते सं गोअग्रया॥8॥
वह वन्दनीय है वह वरेण्य है रूप - ज्योति सबको देता है ।
वह परिपूर्ण पूज्य परमेश्वर अपनेपन से अपना लेता है॥8॥
8339
उक्षेव यूथा परियन्नरावीदधि त्विषीरधित सूर्यस्य ।
दिव्यःसुपर्णोSव चक्षत क्षां सोमःपरि क्रतुना पश्यते जा:॥9॥
दिव्य-गुणों का वह मालिक है करता है सबका अवलोकन ।
उनकी दृष्टि सभी पर रहती कर्मानुरूप होता मूल्याञ्कन॥9॥
8331
आ दक्षिणा सृज्यते शुष्म्या3सदं वेति द्रुहो रक्षसःपाति जागृविः ।
हरिरोपशं कृणुते नभस्पय उपस्तिरे चम्वो 3र्ब्रह्म निर्णिजे ॥1॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा वरद- हस्त हम पर रखता है ।
उपासना दक्षिणा - सदृश है नर कृतज्ञता - ज्ञापन करता है ॥1॥
8332
प्र कृष्टिहेव शूष एति रोरुवदसुर्यं1 वर्णं नि रिणीते अस्य तम् ।
जहाति वव्रिं पितुरेति निष्कृतमुपप्रुतं कृणुते निर्णिजं तना॥2॥
परमात्मा योध्दा समान ही सबका पालन-पोषण करता ।
दुष्टों से रक्षा करता है हम सबकी विपदा वह हरता ॥2॥
8333
अद्रिभिः सुतः पवते गभस्त्योर्वृषायते नभसा वेपते मती ।
स मोदते नसते साधते गिरा नेनिक्ते यजते परीमणि ॥3॥
प्रभु ही ज्ञान - ज्योति देते हैं वह ही हैं सत् चित् आनन्द ।
उद्योगी - जन उनको पाते हैं वे हैं पूरण - परमानन्द ॥3॥
8334
परि द्युक्षं सहसः पर्वतावृधं मध्वः सिञ्चन्ति हर्म्यस्य सक्षणिम् ।
आ यस्मिनगावःसुहुताद ऊधनि मूर्धञ्छ्रीणन्त्यग्रियं वरीमभिः॥4॥
क्षमा - शील वह परमात्मा ही देता है अविरल - आनन्द ।
खट- रागों से वही बचाता भक्तों को देता ब्रह्मा - नन्द ॥4॥
8335
समी रथं न भुरिजोरहेषत दश स्वसारो अदितेरुपस्थ आ ।
जिगादुप ज्रयति गोरपीच्यं पदं यदस्य मतुथा अजीजनन्॥5॥
दश - रथ को वे प्रेरित करते पावन - पथ पर पहुँचाते हैं ।
मनो - कामना पूरी करते मोक्ष - द्वार वे दिखलाते हैं ॥5॥
8336
श्येनो न योनिं सदनं धिया कृतं हिरण्ययमासदं देव एषति ।
ए रिणन्ति बर्हिषि प्रियं गिराश्वो न देवॉ अप्येति यज्ञियः॥6॥
आत्म- ज्ञान में रुचि हो जिनकी परमेश्वर का ध्यान करें ।
उषा - सदृश सब ओर वही है चलो उसी की डगर धरें ॥6॥
8337
परा व्यक्तो अरुषो दिवः कविर्वृषा त्रिपृष्ठो अनविष्ट गा अभि ।
सहस्त्रणीतिर्यतिः परायती रेभो न पूर्वीरुषसो वि राजति॥7॥
परमेश्वर आलोक - प्रदाता आनन्द की वर्षा करता है ।
अनन्त -शक्ति का वह स्वामी आलोक हमें देता रहता है॥7॥
8338
त्वेषं रूपं कृणुते वर्णो अस्य स यत्राशयत्समृता सेधति स्त्रिधः।
अप्सा याति स्वधया दैव्यं जनं सं सुष्टुती नसते सं गोअग्रया॥8॥
वह वन्दनीय है वह वरेण्य है रूप - ज्योति सबको देता है ।
वह परिपूर्ण पूज्य परमेश्वर अपनेपन से अपना लेता है॥8॥
8339
उक्षेव यूथा परियन्नरावीदधि त्विषीरधित सूर्यस्य ।
दिव्यःसुपर्णोSव चक्षत क्षां सोमःपरि क्रतुना पश्यते जा:॥9॥
दिव्य-गुणों का वह मालिक है करता है सबका अवलोकन ।
उनकी दृष्टि सभी पर रहती कर्मानुरूप होता मूल्याञ्कन॥9॥
वह वन्दनीय है वह वरेण्य है रूप - ज्योति सबको देता है ।
ReplyDeleteवह परिपूर्ण पूज्य परमेश्वर अपनेपन से अपना लेता है॥8॥
भक्ति रस में डूबी पंक्तियाँ..
अति सुन्दर...
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