Friday, 25 April 2014

सूक्त - 71

[ऋषि- ऋषभ वैश्वामित्र । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

8331
आ दक्षिणा सृज्यते शुष्म्या3सदं वेति द्रुहो रक्षसःपाति जागृविः ।
हरिरोपशं कृणुते नभस्पय  उपस्तिरे  चम्वो  3र्ब्रह्म  निर्णिजे ॥1॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  वरद- हस्त  हम  पर  रखता  है ।
उपासना दक्षिणा - सदृश है नर कृतज्ञता - ज्ञापन करता  है ॥1॥

8332
प्र  कृष्टिहेव  शूष एति रोरुवदसुर्यं1 वर्णं नि रिणीते अस्य तम् ।
जहाति वव्रिं पितुरेति निष्कृतमुपप्रुतं कृणुते निर्णिजं तना॥2॥

परमात्मा  योध्दा  समान  ही  सबका  पालन-पोषण  करता ।
दुष्टों  से  रक्षा  करता  है  हम  सबकी  विपदा  वह  हरता ॥2॥

8333
अद्रिभिः सुतः पवते  गभस्त्योर्वृषायते  नभसा  वेपते  मती ।
स  मोदते  नसते  साधते गिरा नेनिक्ते  यजते  परीमणि ॥3॥

प्रभु  ही  ज्ञान - ज्योति  देते  हैं  वह ही हैं सत् चित् आनन्द ।
उद्योगी - जन  उनको  पाते  हैं  वे  हैं  पूरण - परमानन्द ॥3॥

8334
परि द्युक्षं सहसः पर्वतावृधं मध्वः सिञ्चन्ति हर्म्यस्य सक्षणिम् ।
आ यस्मिनगावःसुहुताद ऊधनि मूर्धञ्छ्रीणन्त्यग्रियं वरीमभिः॥4॥

क्षमा - शील  वह  परमात्मा  ही  देता  है  अविरल - आनन्द ।
खट- रागों  से  वही  बचाता  भक्तों  को  देता ब्रह्मा - नन्द ॥4॥

8335
समी  रथं  न  भुरिजोरहेषत  दश  स्वसारो  अदितेरुपस्थ आ ।
जिगादुप ज्रयति गोरपीच्यं पदं यदस्य मतुथा अजीजनन्॥5॥

दश - रथ  को  वे  प्रेरित  करते  पावन - पथ  पर  पहुँचाते  हैं ।
मनो - कामना  पूरी  करते  मोक्ष -  द्वार  वे  दिखलाते  हैं ॥5॥

8336
श्येनो न योनिं सदनं धिया कृतं हिरण्ययमासदं  देव  एषति ।
ए  रिणन्ति बर्हिषि प्रियं गिराश्वो न देवॉ अप्येति यज्ञियः॥6॥

आत्म- ज्ञान   में रुचि  हो  जिनकी  परमेश्वर का ध्यान करें ।
उषा - सदृश  सब ओर  वही  है  चलो उसी  की  डगर धरें ॥6॥

8337
परा  व्यक्तो अरुषो दिवः कविर्वृषा त्रिपृष्ठो अनविष्ट गा अभि ।
सहस्त्रणीतिर्यतिः परायती रेभो न पूर्वीरुषसो वि राजति॥7॥

परमेश्वर  आलोक -  प्रदाता  आनन्द  की  वर्षा  करता  है ।
अनन्त -शक्ति का वह स्वामी आलोक हमें देता रहता है॥7॥

8338
त्वेषं रूपं कृणुते वर्णो अस्य स यत्राशयत्समृता  सेधति  स्त्रिधः।
अप्सा याति स्वधया दैव्यं जनं सं सुष्टुती नसते सं गोअग्रया॥8॥

वह वन्दनीय है वह वरेण्य है रूप - ज्योति सबको देता  है ।
वह परिपूर्ण पूज्य परमेश्वर अपनेपन से अपना लेता है॥8॥

8339
उक्षेव  यूथा  परियन्नरावीदधि  त्विषीरधित  सूर्यस्य ।
दिव्यःसुपर्णोSव चक्षत क्षां सोमःपरि क्रतुना पश्यते जा:॥9॥

दिव्य-गुणों का वह मालिक है करता है सबका अवलोकन ।
उनकी दृष्टि सभी पर रहती कर्मानुरूप होता मूल्याञ्कन॥9॥    





2 comments:

  1. वह वन्दनीय है वह वरेण्य है रूप - ज्योति सबको देता है ।
    वह परिपूर्ण पूज्य परमेश्वर अपनेपन से अपना लेता है॥8॥

    भक्ति रस में डूबी पंक्तियाँ..

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  2. अति सुन्दर...

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