Sunday 27 April 2014

सूक्त - 69

[ऋषि- हिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]

8311
इषुर्न धन्वन् प्रति धीयते मतिर्वत्सो न मातुरुप सर्ज्यूधनि ।
उरुधारेव  दुहे अग्र आयत्यस्य  व्रतेष्वपि  सोम  इष्यते ॥1॥

लक्ष्य - भेद  करने  वाला  ज्यों  पूरे  मन  से  करता ध्यान ।
वैसे  ही  प्रभु  के  साधक  को  करना  होता  है अनुष्ठान ॥1॥

8312
उपो मतिः पृच्यते सिच्यते मधु मन्द्राजनी चोदते अन्तरासनि।
पवमानः संतनिः प्रघ्नतामिव मधुमान्द्रप्सःपरि वारमर्षति॥2॥

शूर - वीर  के  शर  समान  ही  परमेश्वर  का  रौद्र - रूप  है ।
सत्संगति अति शान्त-मधुर है भक्त हेतु सुख-कर अनूप है॥2॥

8313
अव्ये वधूयुः  पवते  परि  त्वचि  श्रथ्नीते  नप्तीरदितेरृतं   यते ।
हरिरक्रान्यजतःसंयतो मदो नृम्णा शिशानो महिषो न शोभते॥3॥

जो  निष्काम - कर्म  करते  हैं  सुन्दर सुख सन्तति पाते हैं ।
प्रभु उनकी  रक्षा  करते  हैं  सन्मार्ग उन्हें  दिखलाते  हैं ॥3॥

8314
उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवो देवस्य देवी-रुप यन्ति निष्कृतम् ।
अत्यक्रमीदर्जुनं वारमव्ययमत्कं न  निक्तं  परि  सोमो अव्यत ॥4॥

जो  मन  से और  काया  से  भी  सबल स्वस्थ बन जाता है ।
प्रभु उसको सत्पात्र बनाते प्रभु सान्निध्य वही पाता  है ॥4॥

8315
अमृक्तेन  रुशता  वाससा  हरिरमर्त्यो निर्णिजानः परि व्यत ।
दिवस्पृष्ठं बर्हणा निर्णिजे कृतोपस्तरणं चम्वोर्नभस्मयम्॥5॥

प्रकृति  सम्पदा  पुष्ट  बनाती  मानव  अन्न - धान  पाता  है ।
औषधियॉ  भी अजब  निराली  मनस्ताप  मिट जाता है ॥5॥

8316
सूर्यस्येव रश्मयो द्रावयित्नवो मत्सरासः प्रसुपः साकमीरते ।
तन्तुं ततं परि सर्गास आशवो नेन्द्रादृते पवते धाम किं चन॥6॥

परमेश्वर  अद्भुत  सर्जक  है  अत्यन्त  चतुर  है  रचना - कार ।
सूर्य-किरण सम गति है उसकी उसकी छुवन बसन्त-बहार॥6॥

8317
सिन्धोरिव प्रवणे निम्र आशवो वृषच्युता मदासो गातुमाशत ।
शं नो निवेशे द्विपदे चतुष्पदेSस्मे वाजा:सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः॥7॥

सबका कल्याण वही करता है कृपा-सिन्धु करुणा का सागर ।
आओ उस  प्रभु  के  गुण  गायें  भर  जाए मेरा भी गागर ॥7॥

8318
आ नः पवस्व वसुमध्दिरण्यवदश्वावद् गोमद्यवमत्सुवीर्यम् ।
यूयं हि सोम पितरो मम स्थन दिवो मूर्धानःप्रस्थिता वयस्कृतः॥8॥

हे  परम - मित्र  हे  परमेश्वर  अन्न - धान  का  देना  दान ।
तुम  ही हो हम सबके पालक यश-वैभव देना भगवान ॥8॥

8319
एते  सोमा: पवमानास  इन्द्रं  रथाइव  प्र  ययुः  सातिमच्छ ।
सुता: पवित्रमति यन्त्यव्यं हित्वी वव्रिं हरितो वृष्टिमच्छ॥9॥

जीवन- रण  में  हम  विजयी हों कर्म - योग का मार्ग बताओ ।
भूल से भी कोई भूल न होवे सत्पथ पर चलना सिखलाओ॥9॥

8320
इन्दविन्द्राय  बृहते  पवस्व  सुमृळीको  अनवद्यो  रिशादा: ।
भरा चन्द्राणि गृणते वसूनि देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः॥10॥

यश - वैभव के तुम स्वामी हो हमको भी यश- वैभव  देना ।
कर्म-मार्ग पर सदा चलें हम अपने-पन से अपना लेना॥10॥   

2 comments:

  1. अति सुन्दर...

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  2. परमेश्वर अद्भुत सर्जक है अत्यन्त चतुर है रचना - कार ।
    सूर्य-किरण सम गति है उसकी उसकी छुवन बसन्त-बहार॥6॥
    मनमोहक पंक्तियाँ..

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