Thursday 10 April 2014

सूक्त - 87

[ऋषि- उशना काव्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

8477
प्र तु द्रव परि कोशं नि षीद नृभिः पुनानो अभि वाजमर्ष ।
अश्वं न त्वा वाजिनं मर्जयन्तोSच्छा बहीं रशनाभिर्नयन्ति॥1॥

कर्म-योग  पथ  के  साधक को हे प्रभु तुम आओ अपनाओ ।
आनन्द का वह आकॉक्षी है उसको परमानन्द दे  जाओ॥1॥

8478
स्वायुधः पवते देव इन्दुरशस्तिहा वृजनं रक्षमाणः ।
पिता देवानां जनिता सुदक्षो विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्या:॥2॥

प्रभु  सबकी  रक्षा  करता  है  वह  ही  तो  है  पिता  हमारा ।
सर्व-शक्ति-सम्पन्न वही  है  एक-मात्र  है  वही  सहारा ॥2॥

8479
ऋषिर्विप्रः पुरएता जनानामृभुर्धीर उशना काव्येन ।
स चिद्विवेद निहितं यदासामपीच्यं1 गुह्यं नाम गोनाम्॥3॥

सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा सज्जन के मन में बसता है ।
वही धीर है वीर वही है मानव-मन  में  जो  रहता  है ॥3॥

8480
एष  स्य ते मधुमॉ इन्द्र सोमो वृषा वृष्णे परि पवित्रे अक्षा: ।
सहस्त्रसा: शतसा भूरिदावा शश्वत्तमं बर्हिरा वाज्यस्थात्॥4॥

नभ  में  कई  रहस्य  छिपे  हैं अन्वेषण अति आवश्यक  है ।
यज्ञ शक्ति का महा-श्रोत है इसका प्रभाव अति व्यापक है॥4॥

8481
एते  सोमा  अभि  गव्या सहस्त्रा महे वाजायामृताय श्रवांसि ।
पवित्रेभिःपवमाना असृग्रञ्छ्रवस्यवो न पृतनाजो अत्या:॥5॥

जो  समर्थ  हो  पराक्रमी  हो  प्रभु  की  विचित्रता  अपनाये ।
जो  जिसकी  पूजा  करता  हो  वह  वैसा  ही  बन  जाए ॥5॥

8482
परि  हि  ष्मा  पुरुहूतो  जनानां  विश्वासरद्भोजना पूयमानः ।
अथा भर श्येनभृत प्रयांसि रयिं तुञ्जानो अभि वाजमर्ष॥6॥

परमेश्वर  आराध्य  हमारे  हम  सबके  भीतर  वे  रहते  हैं ।
हे प्रभु हमें समर्थ बना दो तुमसे  बस  इतना  कहते  हैं ॥6॥

8483
एष सुवानः परि सोमः  पवित्रे  सर्गो  न  सृष्टो अदधावदर्वा ।
तिग्मे शिशानो महिषो न शृङ्गे गा गव्यन्नभि शूरो न सत्वा॥7॥

जिसका  मन  पावन  होता  है  परमात्मा  बस  जाता  है ।
भक्तों को ज्ञान- दृष्टि देता है सद्-गति मन्त्र सिखाता है॥7॥

8484
एषा  ययौ  परमादन्तरद्रेः  कूचित्सतीरूर्वे  गा  विवेद ।
दिवो न विद्युत्स्तनयन्त्यभ्रैः सोमस्य ते पवत इन्द्र धारा॥8॥

कर्म-योग  का  पथिक  सदा  ही  पाता है प्रभु का सान्निध्य ।
भगवान भक्त अद्वैत हुए जब भी मिलता प्रभु का सामीप्य॥8॥

8485
उत स्म राशिं परि यासि गोनामिन्द्रेण सोम सरथं  पुनानः ।
पूर्वीरिषो बृहतीर्जीरदानो  शिक्षा शचीवस्तव ता उपष्टुत् ॥9॥

कर्म-योग  का  पथ-पुनीत  है  प्रभु  सख्य-भाव अपनाते हैं ।
अति आत्मीय मित्रता है यह जब भी पुकारो आ जाते हैं॥9॥

2 comments:

  1. जीवन में कर्म की प्रधानता है...

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  2. कर्म योग की महत्ता का बहुत सटीक आंकलन...बहुत प्रभावी प्रस्तुति...आभार

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