Monday, 31 March 2014

सूक्त - 97

[ऋषि- वसिष्ठ मैत्रावरुणि । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

8558
अस्य  प्रेषा  हेमना  पूयमानो देवो देवेभिः समपृक्त  रसम् ।
सुतः पवित्रं  पर्येति  रेभन्मितेव सद्म  पशुमान्ति  होता॥1॥

सज्जन का मन निर्मल होता है वह सत्संगति में रहता है ।
यश-वैभव से आच्छादित वह दिव्य-भावना में बहता है॥1॥

8559
भद्रा वस्त्रा समन्या3 वसानो महान्कविर्निवचनानि शंसन् ।
आ वच्यस्व चम्वोःपूयमानो विचक्षणो जागृविर्देववीतौ॥2॥

मंगल- मति संग जागृत रहता सबका रखता है वह ध्यान ।
शुभ  भावों  में  वह  जीता है मधुर-वचन से होता भान ॥2॥

8560
समु प्रियो मृज्यते सानो अव्ये यशस्तरो यशसां क्षैतो अस्मे।
अभि स्वर धन्वा पूयमानो यूयं पात स्वस्तिभिःसदा नः॥3॥

सबके  हित  में  अपना  हित  है जो करता हो स्वीकार सदा ।
सबसे सत्कार सदा पाता है मिलता  है  ऐसा  यदा-कदा ॥3॥

8561
प्र    गायताभ्यर्चाम   देवान्त्सोमं   हिनोत   महते   धनाय ।
स्वादुः पवाते अति वारमव्यमा सीदाति कलशं देवयुर्नः ॥4॥

वैभव  में   रुचि   लेने  वाले  विद्वत् - जन  को  करें  प्रणाम ।
जिज्ञासा-शमन जहॉ हो जाए सत्संग कीजिए आठों-याम॥4॥

8562
इन्दुर्देवानामुप    सख्यमायन्त्सहत्रधारः    पवते     मदाय ।
नृभिः स्तवानो अनु धाम पूर्वमगन्निन्द्रं महते सौभगाय ॥5॥

कर्म - योग  का  राही  ही  तो  सख्य - भाव  को  भजता  है ।
विविध-शक्तियों संग जीता है प्रगति- पंथ पर चलता है ॥5॥

8563
स्तोत्रे  राये  हरिरर्षा  पुनान  इन्द्रं  मदो  गच्छतु  ते  भराय ।
देवैर्याहि सरथं राधो अच्छा यूयं पात स्वस्तिभिःसदा नः॥6॥

कर्म - योग  है  धाम  प्रभु  का  मिलता  है उनका सान्निध्य ।
स्वस्ति - भाव  से  रक्षित  होते  पाते हैं प्रभु का सामीप्य ॥6॥

8564
प्र   काव्यमुशनेव   ब्रुवाणो   देवो   देवानां  जनिमा  विवक्ति ।
महिव्रतः शुचिबन्धुः पावकः पदा वराहो अभ्येति रेभन् ॥7॥

अद्भुत -प्रतिभा  वाले  जन  ही  रचते  हैं सुख - कर साहित्य ।
वह  ही  सदुपदेश  बनता  है मानो हो आलोक- आदित्य ॥7॥

8565
प्र   हंसासस्तृपलं   मन्युमच्छामादस्तं   वृषगणा  अयासुः ।
आङ्गूष्यं1 पवमानं सखायो दुर्मर्षं साकं प्र वदन्ति वाणम्॥8॥

परमात्मा के सद्गुण को हम  इस  जीवन  में  धारण  कर  लें ।
सख्य-भाव से हम अपना लें उनको अपने मन में धर लें ॥8॥

8566
स  रंहत उरुगायस्य  जूतिं  वृथा  क्रीळन्तं  मिमते  न गावः ।
परीणसं  कृणुते  तिग्मश्रृङ्गो  दिवा  हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः ॥9॥

परमेश्वर की गति  न्यारी  है अति  रोचक है उसकी आख्या ।
कोई कहीं विकार नहीं है नेति-नेति  है  उसकी  व्याख्या ॥9॥

8567
इन्दुर्वाजी  पवते  गोन्योघा  इन्द्रे  सोमः  सह  इन्वन्मदाय ।
हन्ति रक्षो बाधते पर्यरातीर्वरिवः कृण्वन्वृजनस्य राजा॥10॥

तेज-पुञ्ज  है  वह  परमात्मा अति - अद्भुत  है  ऐश्वर्य- वान ।
दुष्ट - दमन  वह  ही करता है आत्म-भाव का है आह्वान ॥10॥

8568
अध   धारया  मध्वा  पृचानस्तिरो   रोम  पवते  अद्रिदुग्धः ।
इन्दुरिन्द्रस्य सख्यं जुषाणो देवो देवस्य मत्सरो मदाय ॥11॥

चित्त - वृत्ति  पावन  बन  जाती  ऐसी  है  उसकी  उपासना ।
रोम-रोम में तृप्ति समाती प्रभु की रहती सख्य- भावना ॥11॥

8569
अभि प्रियाणि पवते पुनानो देवो देवान्त्स्वेन रसेन पृञ्चन् ।
इन्दुर्धर्माण्यृतुथा वसानो दश क्षिपो अव्यत सानो अव्ये॥12॥

परम  तृप्ति  वह  ही  देता  है  सज्जन  मन  पाता  सन्तोष ।
सबको पावन वही बनाता  परम  प्रेम  पाता  परितोष ॥12॥

8570
वृषा शोणो अभिकनिक्रदद्गा नदयन्नेति पृथिवीमुत द्याम् ।
इन्द्रस्येव वग्नुरा श्रृण्व आजौ प्रचेतयन्नर्षति वाचमेमाम्॥13॥

वह तेजस्वी परमात्मा ही गर्जन-ध्वनि से कुछ कहता है ।
पावस से समृध्द बनाता आनन्द की वर्षा करता है ॥13॥

8571
रसाय्यः पयसा पिन्वमान  ईरयन्नेषि  मधुमन्तमंशुम् ।
पवमानः संतनिमेषि कृण्वन्निन्द्राय सोम परिषिच्यमानः॥14॥

उपासनीय  है  वह  परमात्मा  वह  है  वैभव  का  विस्तार ।
अष्ट-सिध्दि का वह दाता है उसकी लीला है अपरम्पार॥14॥

8572
एवा  पवस्व  मदिरो  मदायोदग्राभस्य  नमयन्वधस्नैः ।
परि वर्णं भरमाणो रुशन्तं गव्युर्नो अर्ष परि सोम सिक्तः॥15॥

भक्ति - भाव  से  जो  भजते  है  मिटता  है  उनका अज्ञान ।
ज्ञानालोक उन्हें मिलता है मुझको भी प्रभु दे दो ज्ञान॥15॥

8573
जुष्ट्वी न इन्दो सुपथा सुगान्युरौ पवस्व वरिवांसि कृण्वन् ।
घनेव विष्वग्दुरितानि विघ्नन्नधि ष्णुना धन्व सानो अव्ये॥16॥

प्रेम - रूप  है  वह  परमात्मा  ज्ञान - कर्म  है  उसका  घर ।
हम भी उसको पासकते हैं प्रेम के पथ पर है परमेश्वर॥16॥

8574
वृष्टिं  नो अर्ष दिव्यां जिगत्नुमिळावतीं  शंगयीं  जीरदानुम् ।
स्तुकेव वीता धन्वा विचिन्वन् बन्धूँरिमॉ अवरॉ इन्दो वायून्॥17॥

हम उस प्रभु से जुडे हुए हैं वह प्रेरित  करता  शुभ  पथ  पर ।
यद्यपि कर्मानुकूल फल पाते फिर भी अपने हैं परमेश्वर॥17॥

8575
ग्रन्थिं न वि ष्य ग्रथितं पुनान ऋजुं च गातुं  वृजिनं  च सोम ।
अत्यो न क्रदो हरिरा सृजानो मर्यो देव धन्व पस्त्यावान्॥18॥

वे  नीति - नेम  से  बँधे  हुए  हैं  सज्जन  की  रक्षा  करते  हैं ।
मन में आकर कुछ समझाते सत्पथ पर ले कर चलते हैं॥18॥

8576
जुष्टो मदाय देवतात इन्दो  परि  ष्णुना  धन्व  सानो  अव्ये ।
सहस्त्रधारः सुरभिरदब्धः परि  स्त्रव  वाजसातौ  नृषह्ये ॥19॥

जो  प्रभु  पर  निर्भर  होते  हैं  परमेश्वर उनका  रखते ध्यान ।
अनन्त शक्ति है परमात्मा मन वे हैं सबके सखा समान॥19॥

8577
अरश्मानो येSरथा अयुक्ता अत्यासो  न  ससृजानास  आजौ ।
एते शुक्रासो धन्वन्ति सोमा देवासस्तॉ उप याता पिबध्यै॥20॥

जो  जीवन्मुक्त  अवस्था  में  हैं  वे  हैं  सब  बन्धन  से  दूर ।
वे विहग समान विचरते हैं मिलती है उन्हें प्रीति भरपूर॥20॥

8578
एवा  न  इन्दो  अभि  देववीतिं  परि  स्त्रव  नभो अर्णश्चमूषु ।
सोमो अस्मभ्यं काम्यं बृहन्तं रयिं ददातु वीरवन्तमुग्रम्॥21॥

हे आलोक - रूप  परमात्मा ज्ञान - यज्ञ  की  हो  बरसात ।
हे प्रभु तुम यश-वैभव देना पावन-बिहान हो यह प्रभात॥21॥

8579
तक्षद्यदी मनसो वेनतो  वाग्ज्येष्ठस्य  वा  धर्मणि  क्षोरनीके ।
आदीमायन्वरमा वावशाना जुष्टं पतिं कलशे गाव इन्दुम्॥22॥

कर्म-ज्ञान  से  प्रेरित  मन  को  वाणी  संस्कारित  करती  है ।
हे प्रभु अन्तर्मन में आओ आतुर इन्द्रिय यह कहती है ॥22॥

8580
प्र  दानुदो  दिव्यो  दानुपिन्व  ऋतमृताय  पवते  सुमेधा: ।
धर्मा भुवद्वृजन्यस्य राजा प्र रश्मिभिर्दशभिर्भारि भूम॥23॥

सज्जन को जिज्ञासा देता  संग - संग  ले  कर  चलता  है ।
यश - वैभव वह ही देता है सीमा निर्धारित करता  है ॥23॥

8581
पवित्रेभिः पवमानो नृचक्षा राजा देवानामुत  मर्त्यानाम् ।
द्विता भुवद्रयिपती रयीणामृतं भरत्सुभृतं चार्विन्दुः ॥24॥

वह परमेश्वर हमें हमेशा जगती  का  सब  सुख  देता  है ।
कर्मों का वह ही द्रष्टा है अपने-पन से अपना लेता है ॥24॥

8582
अर्वॉ  इव  श्रवसे  सातिमच्छेन्द्रस्य  वायोरभि  वीतिमर्ष ।
स नःसहस्त्रा बृहतीरिषो दा भवा सोम द्रविणोवित्पुनानः॥25॥

सज्जन को वह विविध-विधा से देता है अनुपम उपहार ।
आओ ज्ञान-योग को जानें ज्ञान-योग है अपरम्पार ॥25॥

8583
देवाव्यो नः परिषिच्यमाना: क्षयं सुवीरं धन्वन्तु सोमा: ।
आयज्यवःसुमतिं विश्ववारा होतारो न दिवियजो मन्द्रतमा:॥26॥

बडे पुण्य से ही मिलता  है  सुख  सन्मति  सुन्दर  सन्तान ।
साधक यह सब कुछ पाता है विधि-प्रदत्त है यह वितान॥26॥

8584
एवा देव देवताते पवस्व महे सोम प्सरसे देवपानः ।
महश्चिध्दि ष्मसि हिता: समर्ये कृधि सुष्ठाने रोदसी पुनानः॥27॥

हे  दिव्य- रूप  हे  परमात्मा  तुम  हम  सबकी  रक्षा  करना ।
हम चरैवेति के पथ पर हैं तुम हमको प्रेरित करते रहना॥27॥

8585
अश्वो न क्रदो वृषभिर्युजानः सिहो न भीमो मनसो जवीयान् ।
अर्वाचीनैः पथिभिर्ये रजिष्ठा आ पवस्व सौमनसं न इनदो॥28॥

हे पावन पूजनीय परमात्मा तुम अन्तर्मन में बस जाओ ।
सर्व समर्थ तुम्हीं हो प्रभु-वर मेरी नैया पार लगाओ ॥28॥

8586
शतं  धारा  देवजाता असृग्रन्त्सहस्त्रमेना: कवयो मृजन्ति ।
इन्दो सनित्रं दिव आ पवस्व पुरएतासि महतो धनस्य॥29॥

अति अद्भुत  है  वैभव  तेरा अद्भुत  है  तेरा  विस्तार ।
वैभव ही तेरा आभूषण है वसुन्धरा तेरा उपहार॥29॥  

8587
दिवो न सर्गा अससृग्रमह्नां राजा न  मित्रं  प्र  मिनाति  धीरः ।
पितुर्न पुत्रः क्रतुभिर्यतान आ पवस्व विशे अस्या अजीतिम्॥30॥

अजय भाव दे देना भगवन तुम सज्जन की  रक्षा करना ।
विभूति-वान तुम ही वरेण्य हो यश-वैभव देते रहना ॥30॥

8588
प्र  ते  धारा  मधुमतीरसृग्रन्वारान्यत्पूतो  अत्येष्यव्यान् ।
पवमान पवसे धाम गोनां जज्ञानः सूर्यमपिन्वो अर्कैः॥31॥

सूर्य - किरण  धरती  को  छूती  करती  है  वह  अठखेली ।
अत्यंत मधुर आनंद लहर है यह है मेरी सुखद-सहेली॥31॥

8589
कनिक्रददनु पन्थामृतस्य  शुक्रो  वि  भास्यमृतस्य  धाम ।
स इन्द्राय पवसे मत्सरवान्हिन्वानो वाचं मतिभिः कवीनाम्॥32॥

सत्पथ पर चलना सिखलाओ कर्म-योग  का  पथ है पावन ।
तुम अमृत के परम-धाम हो तुम ही हो मेरे मन-भावन॥32॥

8590
दिव्यः सुपर्णोSव चक्षि सोम पिन्वन्धारा: कर्मणा देववीतौ ।
एन्दो विश कलशं सोमधानं क्रन्दन्निहि सूर्यस्योप रश्मिम्॥33॥

तुम  उपदेश  हमें  देना  प्रभु  हम  पर  दया - दृष्टि  रखना ।
अन्न-धान फल हमको देना तुम सबकी विपदा हरना॥33॥

8591
तिस्त्रो  वाच  ईरयति प्र वह्निरृतस्य धीतिं ब्रह्मणो मनीषाम् ।
गावो यन्ति गोपतिं पृच्छमाना:सोमं यन्ति मतयो वावशाना:॥34॥

सूरज को ज्यों किरण मिली है सज्जन को मिलती है वाणी ।
हम संस्कारित हो सकते हैं श्रुति कहती है यही कहानी ॥34॥

8592
सोमं गावो धेनवो वावशाना: सोमं विप्रा मतिभिः पृच्छमाना:।
सोमःसुतःपूतये अज्यमानःसोमे अर्कास्त्रिष्टुभःसं नवन्ते॥35॥

वाणी  की  महिमा  अद्भुत  है  वह  है  प्रभु  की  अभिलाषी । 
वह प्रभु से ही जुडी हुई है वह  मृदुला  है  मधु - भाषी ॥35॥

8593
एवा नः सोम परिषिच्यमान आ पवस्व पूयमानः स्वस्ति ।
इन्द्रमा विश बृहता रवेण वर्धया वाचं जनया पुरंधिम्॥36॥

परमेश्वर तुम  ही  प्रणम्य  हो करना हम सबका कल्याण ।
सत्पथ पर ही हम चलते हैं जब तक है इस तन में प्राण॥36॥

8594
आ जागृविर्विप्र ऋता मतीनां सोमः पुनानो असदच्चमूषु ।
सपन्ति यं मिथुनासो निकामा अध्वर्यवो रथिरासःसुहस्ता:॥37॥

हे प्रभु सर्व समर्थ तुम्हीं  हो  हमको  भी  चारों  बल देना ।
नेक राह पर हम चलते हैं अपने-पन से अपना लेना॥37॥

8595
स पुनान उप सूरे न धातोभे अप्रा रोदसी वि ष आवः ।
प्रिया चिद्यस्य प्रियसास ऊती स तू धनं कारिणे न प्र यंसत्॥38॥

सूर्य समान वही परमात्मा अज्ञान-तमस को दूर भगाता ।
जीवन सार्थक करता है विद्या आलोक वही दे जाता ॥38॥

8596
स वर्धिता वर्धनः पूयमानःसोमो मीढ्वॉ अभि नो ज्योतिषावीत्।
येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञा: स्वर्विदो अभि गा अद्रिमुष्णन्॥39॥

परमात्मा  प्रेरित  करते  हैं सत्पथ पर चलना सिखलाते ।
राह में कोई भटक न जाए ज्ञानालोक उसे दिखलाते॥39॥

8597
अक्रान्त्समुद्रः प्रथमे विधर्मञ्जनयन्प्रजा भुवनस्य राजा ।
वृषा पवित्रे अधि सानो अव्ये बृहत्सोमो वावृधे सुवान इन्दुः॥40॥

प्रभु सबका हित-चिन्तन करते सबसे है उनका अनुराग ।
मनो-कामना पूरी  करते और  भगाते  हैं  खट-राग ॥40॥

8598
महत्तत्सोमो   महिषश्चकारापां   यद्गर्भोSवृणीत   देवान् ।
अदधादिन्द्रे पवमान ओजोSजनयत्सूर्ये ज्योतिरिन्दुः॥41॥

उद्यम  की  महिमा   भारी  है  सार्थक  हो  जाता  है  जीवन ।
साधक ओजस्वी हो जाता हरिया जाता जीवन उपवन॥41॥

8599
मत्सि वायुमिष्टये राधसे च मत्सि मित्रावरुणा पूयमानः ।
मत्सि शर्धो मारुतं मत्सि देवान्मत्सि द्यावापृथिवी देव सोम॥42॥

उपदेशक अध्यापक दोनों अपना  दायित्व  निभाते  हैं ।
विद्वत्-जन अन्वेषण करते दूर-दृष्टि दे कर जाते हैं॥42॥

8600
ऋजुः पवस्व वृजिनस्य हन्तापामीवां बाधमानो मृधश्च ।
अभिश्रीणन्पयःपयसाभि गोनामिन्द्रस्य त्वं वयं सखायः॥43॥
  
हे प्रभु सबकी विपदा हरना अज्ञान  तमस  को  दूर  भगाना ।
कर्म मार्ग तुम हमें दिखाना सख्य-भाव से ही अपनाना॥43॥

8601
मध्वः सूदं पवस्व वस्व उत्सं वीरं च न आ पवस्वा भगं च ।
स्वदस्वेन्द्राय पवमान इन्दो रयिं च न आ पवस्वा समुद्रात्॥44॥

उद्योगी  ही  वैभव  पाता  है  कर्म - योग   देता  ऐश्वर्य । 
आओ हम उद्योगी बन-कर प्रभु से पायें शौर्य-धैर्य॥44॥

8602
सोमः सुतो धारयात्यो न हित्वा सिन्धुर्न निम्रमभि वाज्यक्षा: ।
आ योनिं वन्यमसदत्पुनानः समिन्दुर्गोभिरसरत्समद्भिः॥45॥

फल-दार  वृक्ष  ही  झुकते  हैं  वे  ही  मिठास  सबको  देते  हैं ।
प्रभु का प्यार इन्हीं को मिलता प्रभु इनको अपना लेते हैं॥45॥

8603
एष स्य ते पवत  इन्द्र  सोमश्चमूषु  धीर  उशते  तवस्वान् ।
स्वर्चक्षा रथिरः सत्यशुष्मःकामो न यो देवयतामसर्जि॥46॥

कर्म -योग से सब कुछ मिलता यश - वैभव  हो  चाहे सुख ।
आओ इसी राह पर चल कर बिसरा दें हम अपना दुख॥46॥ 

8604
एष   प्रत्नेन   वयसा  पुनानस्तिरो  वर्पांसि  दुहितुर्दधानः ।
वसानः शर्म त्रिवरूथमप्सु होतेव याति समनेषु रेभन्॥47॥

अति अद्भुत  है  प्रकृति  हमारी  लगती  है  सहचरी  हमारी ।
सद्गति-द्वार यही दिखलाती मॉ समान लगती है प्यारी॥47॥

8605
नू नस्त्वं रथिरो देव सोम परि स्त्रव चम्वोः पूयमानः ।
अप्सु स्वादिष्ठो मधुमॉ ऋतावा देवो न यः सविता सत्यमन्मा॥48॥

हे  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  तुम्हीं  प्रेय हो तुम ही श्रेय ।
कैसी  पूजा  करें  तुम्हारी  सब  कुछ  है  तेरा  प्रदेय ॥48॥

8606
अभि वायुं वीत्यर्षा गृणानो3Sभि मित्रावरुणा पूयमानः ।
अभी नरं धीजवनं रथेष्ठामभीन्द्रं वृषणं वज्रबाहुम् ॥49॥

जिसको तेरा सान्निध्य चाहिए कर्म-राह में बढ-कर आए ।
शूर-वीर बन-कर उभरे वह अन्वेषण की प्रतिभा पाए ॥49॥

8607
अभि   वस्त्रा   सुवसनान्यर्षाभि   धेनूः  सुदुघा:  पूयमानः ।
अभि चन्द्रा भर्तवे नो हिरण्याभ्यश्वान्रथिनो देव सोम ॥50॥

कर्म-योग की महिमा अद्भुत जीवन  सार्थक  हो  जाता  है ।
वाणी का वैभव मिलता है मानव यश-वैभव पाता  है ॥50॥

8608
अभी  नो  अर्ष दिव्या वसून्यभि विश्वा पार्थिवा पूयमानः ।
अभि  येन  द्रविणमश्नवामाभ्यार्षेयं जमदग्निवन्नः ॥51॥

पृथ्वी पर सब सुख है लेकिन वीर ही करते  इसका  भोग ।
ऐश्वर्य उसे ही मिलता है  जो  कर  पाता   है उपभोग ॥51॥

8609
अया पवा पवस्वैना वसूनि मॉश्चत्व इन्दो सरसि प्र धन्व ।
ब्रध्नश्चिदत्र वातो न जूतः पुरुमेधश्चित्तकवे नरं दात् ॥52॥

उद्योगी  ही  पा  सकता  है  मालिक  का  उत्तम  उपहार ।
प्रभु की प्रीति वही पाते हैं जो करता उत्तम व्यवहार॥52॥

8610
उत  न  एना  पवया  पवस्वाधि  श्रुते  श्रवाय्यस्य  तीर्थे ।
षष्टिं सहस्त्रा नैगुतो वसूनि वृक्षं न पक्वं धूनवद्रणाय॥53॥

कर्म  -  मार्ग   के   अनुयायी  ही  विद्या  का  पाते  वरदान ।
रिपु-दल से छुटकारा पाते अविरल चलता है अभियान॥53॥

8611
महीमे अस्य वृषनाम  शूषे  मॉश्चत्वे  वा  पृशने   वा   वधत्रे ।
अस्वापयन्निगुतःस्त्रेहयच्चापामित्रॉ अपाचितो अचेतः॥54॥

पृथ्वी   है  परिवार  हमारा  जन्म -  भूमि   का   गाओ  गान ।
माता मातृ-भूमि प्यारी है उसकी महिमा का करें बखान॥54॥

8612
सं त्री पवित्रा विततान्येष्यन्वेकं धावसि पूयमानः ।
असि भगो असि दात्रस्य दातासि मघवा मघवद्भ्य इन्दो॥55॥

हे   प्रभु  यश - वैभव  के  स्वामी  अन्न - धान  का  देना  दान । 
वरद-हस्त हम पर भी रखना कृपा-सिन्धु  हे  श्री भगवान॥55॥

8613
एष विश्ववित्पवते मनीषी सोमो  विश्वस्य  भुवनस्य राजा ।
द्रप्सॉ ईरयन्विदथेष्विन्दुर्वि वारमव्यं समयाति याति॥56॥

पात्रानुकूल  ही  वैभव मिलता  इसीलिए  योग्यता  बढा  लो ।
प्रभु अनुरूप बनो फिर देखो सुख-सागर में यहॉ नहा लो॥56॥

8614
इन्दुं रिहन्ति महिषा अदब्धा: पदे  रेभन्ति  कवयो  न  गृध्रा: ।
हिन्वन्ति धीरा दशभिःक्षिपाभिःसमञ्जते रूपमपां रसेन॥57॥

निष्काम - कर्म अति उत्तम  है  इस  राज-मार्ग  पर  चलना है ।
प्रति-दिन प्राणायाम करें हम अविरल आगे ही बढना है ॥57॥

8615
त्वया  वयं  पवमानेनसोम  भरे  कृतं  वि  चिनुयाम  शश्वत् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥58॥

जीवन-रण में हम  विजयी  हों अपना  ध्येय  समझ  में आए ।
अज्ञान तमस यह मिट जाए आलोक ज्ञान का मिल जाए॥58॥           
        


 
 





Sunday, 30 March 2014

सूक्त - 98

[ऋषि- अम्बरीष वार्षागिर । देवता- पवमान सोम । छन्द- अनुष्टुप्-बृहती ।]

8616
अभि नो वाजसातमं रयिमर्ष पुरुस्पृहम् ।
इन्दो सहस्त्रभर्णसं तुविद्युम्नं विभ्वासहम्॥1॥

अनन्त शक्ति के तुम स्वामी हो दे देना प्रभु अतुलित बल ।
अक्षय धन-धान हमें दे देना हर मुश्किल का देना हल॥1॥

8617
परि ष्य सुवानो अव्ययं रथे न वर्माव्यत ।
इन्दुरभि द्रुणा हितो हियानो धारभिरक्षा:॥2॥

तुम  ही सबकी रक्षा करते कर्म-योग भी सिखलाते हो ।
जीवन-ज्योति तुम्हीं देते हो सत्पथ पर ले जाते हो॥2॥

8618
परि ष्य सुवानो अक्षा इन्दुरव्ये मदच्युतः ।
धारा य ऊर्ध्वो अध्वरे भ्राजा नैति गव्ययुः॥3॥

वह आलोक रूप परमात्मा देता सब सुख  सुखद- सलाह ।
सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा आनंद-मय है ज्ञान-प्रवाह॥3॥

8619
स हि त्वं देव शश्वते वसु मर्ताय दाशुषे ।
इन्दो सहस्त्रिणं रयिं शतात्मानं विवाससि॥4॥

जो  समर्थ  सर्वथा  योग्य  है  वह  ही  तो  पाता  है  ऐश्वर्य ।
प्रभु वैभव सम्पन्न बना दो संतोषी हूँ मन  में  है  धैर्य ॥4॥

8620
वयं ते अस्य वृत्रहन्वसो वस्वः पुरुस्पृहः ।
नि नेदिष्ठतमा इषः स्याम सुम्रस्याध्रिगो॥5॥

तुमसे  बहुत प्रभावित  हैं हम तुम हो सब वैभव के स्वामी ।
तुम सन्मार्ग हमें दिखलाना प्रभु तुम ही हो अन्तर्यामी॥5॥

8621
द्विर्यं पञ्च स्वयशसं स्वसारो अद्रिसंहतम् ।
प्रियमिन्द्रस्य काम्यं प्रस्नापयन्त्यूर्मिणम्॥6॥

कर्म-योग कमनीय  बहुत  है  यही  मार्ग  हमको  है  प्यारा ।
सान्निध्य तुम्हारा मिल जाए तो मिल जाए एक सहारा॥6॥

8622
परि त्यं हर्यतं हरि बभ्रुं पुनन्ति वारेण ।
यो देवान्विश्वॉ इत्परि मदेन सह गच्छति॥7॥

वह  सर्जक  पालक - पोषक  है  वह   ही  करता  है  संहार ।
हम उसकी पूजा करते  हैं  वह  ही  वरेण्य  है  बारम्बार॥7॥

8623
अस्य वो ह्यवसा पान्तो दक्षसाधनम् ।
यः सूरिषु श्रवो बृहद्दधे स्व1र्ण हर्यतः॥8॥

उद्यम सबसे  बडी  साधना  जिससे अभीष्ट  मिल  जाता  है ।
प्राणी परमात्मा से रक्षित है सान्निध्य उसी का पाता है॥8॥

8624
स वां यज्ञेषु मानवी इन्दुर्जनिष्ट रोदसी ।
देवो देवी गिरिष्ठा अस्त्रेधन्तं तुविष्वणि॥9॥

ज्ञान-कर्म का फल भी शुभ है शुभ-चिन्तन का है शुभ फल ।
कर्मानुरूप हम फल पाते हैं शुभ- कर्मों  का शुभ है फल ॥9॥ 

8625
इन्द्राय सोम पातवे वृत्रघ्ने परि षिच्यसे ।
नरे च दक्षिणावते देवाय सदनासदे ॥10॥

अज्ञान-तमस को तुम्हीं  मिटाओ कर्म-योग का पाठ पढाओ।
सत्संगी हम भी बन जायें उपासना की विधि समझाओ॥10॥

8626
ते प्रत्नासो व्युष्टिषु सोमा: पवित्रे अक्षरन् ।
अपप्रोथन्तः सनुतर्हुरश्चितः प्रातस्तॉ अप्रचेतसः॥11॥

सज्जन को  ही  मिल सकता है परमेश्वर का पावन प्रसाद ।
सरल चित्त में वह पलता है मिट जाता है सब अवसाद॥11॥

8627
तं सखायः पुरोरुचं यूयं वयं च सूरयः ।
अश्याम वाजगन्ध्यं सनेम वाजपस्त्यम्॥12॥

पावन परमेश्वर ही प्रणम्य है जिसको सखा- भाव से भजते ।
आनन्द-घन है वह परमेश्वर वेद-पुराण सभी यह कहते॥12॥ 
    

Saturday, 29 March 2014

सूक्त - 99

[ऋषि- रेभसूनू काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- अनुष्टुप्-बृहती ।]

8628
आ   हर्यताय   धृष्णवे   धनुस्तन्वन्ति   पौंस्यम् ।
शुक्रां वयन्त्यसुराय निर्णिजं विपामग्रे महीयुवः॥1॥

यदि जीवन का ध्येय बडा हो परमेश्वर का कर लो ध्यान ।
विस्तृत होगा आभा-मण्डल बनता है अनुकूल वितान॥1॥

8629
अध  क्षपा  परिष्कृतो  वाजॉ  अभि  प्र  गाहते ।
यदी विवस्वतो धियो हरिं हिन्वन्ति यातवे॥2॥

जिसकी  सोच  सकारात्मक  है  वही  सफलता  पाता  है ।
कर्म योग है मार्ग परीक्षित पथिक आगे बढता जाता है॥2॥

8630
तमस्य मर्जयामसि मदो य  इन्द्रपातमः ।
यं गाव आसभिर्दधुः पुरा नूनं च सूरयः॥3॥

प्रभु - कृपा  बरसती  रहती  है  हम सब हैं उनकी सन्तान ।
सत्पथ  पर  चलने  वाला  ही  पूरा  करता है अभियान॥3॥

8631
तं गाथया पुराण्या पुनानमभ्यनूषत् ।
उतो कृपन्त धीतयो देवानां नाम बिभ्रतीः॥4॥

अति  पावन  है  वह  परमेश्वर  वेद - ऋचायें  करतीं  गान ।
उसकी महिमा अति-अद्भुत है ऋषि को होता उसका भान॥4॥

8632
तमुक्षमाणमव्यये  वारे पुनन्ति धर्णसिम् ।
दूतं न पूर्वचित्तय आ शासते मनीषिणः॥5॥

अनन्त-शक्ति  का  वह स्वामी  है  वह सबकी रक्षा करता है ।
वह ही हम सबका आश्रय है वह  सबकी  विपदा हरता है॥5॥

8633
स  पुनानो मदिन्तमः सोमश्चमूषु  सीदति ।
पशौ न रेत आदधत्पतिर्वचस्यते धियः॥6॥

हे  आनन्द - रूप  परमेश्वर  वरद - हस्त  हम  पर  रखना । 
उपासना के योग्य तुम्हीं हो समुचित शिक्षा देते रहना॥6॥

8634
स  मृज्यते सुकर्मभिर्देवो देवेभ्यः सुतः ।
विदे यदासु संददिर्महीरपो वि गाहते॥7॥

कर्म - मार्ग  की  महिमा  भारी  यह  है  परमेश्वर  की राह ।
जो भी मॉगो वह देता है छोटी  न  रखना अपनी  चाह ॥7॥

8635
सुत  इन्दो पवित्र आ नृभिर्यतो  वि  नीयसे ।
इन्द्राय मत्सरिन्तमश्चमूष्वा नि षीदसि॥8॥

हे  प्रकाश - पुञ्ज  परमेश्वर  हम  करते  हैं  तेरा  आवाहन । 
सखा-सदृश हो तुम्हीं हमारे कहॉ छिपे हो हे मन-भावन॥8॥ 

Friday, 28 March 2014

सूक्त - 100

[ऋषि- रेभसूनू काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- अनुष्टुप् ।]

8636
अभी नवन्ते  अद्रुहः प्रियमिन्द्रस्य  काम्यम् ।
वत्सं न पूर्व आयुनि जातं रिहन्ति मातरः॥1॥

कर्म-योग  कमनीय  बहुत  है  प्रेम-भाव  से  मिलता  है ।
सत्पथ के अभिलाषी जन को कर्म-योग ही फलता है॥1॥

8637
पुनान इन्दवा  भर  सोम  द्विबर्हसं  रयिम् ।
त्वं वसूनि पुष्यसि विश्वानि दाशुषो गृहे॥2॥

पावन-स्वरूप वह परमात्मा ही सुख सन्मति सम्मान है ।
पर-हित ही सबसे ऊपर है सुख-दुख दोनों अभिराम है॥2॥

8638
त्वं  धियं  मनोयुजं  सृजा  वृष्टिं  न  तन्यतुः ।
त्वं वसूनि पार्थिवा दिव्या च सोम पुष्यसि॥3॥

प्रभु  मन  में  उदारता  भर  दो ज्यों  बादल  देते  बरसात ।
कर्मयोग का सँग अमर हो बस बन जाए बातों से बात॥3॥

8639
परि ते जिग्युषो यथा धारा सुतस्य धावति ।
रंहमाणा व्य1व्ययं वारं वाजीव सानसिः॥4॥

जो जल  के  भीतर  घुसते  हैं  वापस  वही  तैर-कर आते ।
जो प्रभु का सामीप्य चाहते मनुज वही परमानंद पाते॥4॥

8640
क्रत्वे  दक्षाय नः कवे पवस्व सोम धारया ।
इन्द्राय पातवे सुतो मित्राय वरुणाय च॥5॥

हे  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  दया- दृष्टि  का  देना  दान ।
कर्मयोग को समझें जानें हमको भी देना आत्म-ज्ञान॥5॥

8641
पवस्व  वाजसातमः  पवित्रे  धारया  सुतः ।
इन्द्राय सोम विष्णवे देवेभ्यो मधुमत्तमः॥6॥

वह अद्भुत  विभूति का स्वामी सज्जन को देता आनन्द ।
ज्ञान-कर्म दोनों ही पथ  पर  प्रभु  देते  हैं  परमानन्द॥6॥

8642
त्वां  रिहन्ति  मातरो  हरिं  पवित्रे  अद्रुहः ।
वत्सं जातं न धेनवः पवमान विधर्मणि॥7॥

प्रेम के  भूखे  हैं  परमेश्वर  वह  प्रभु  तो  है  प्रेम-स्वरूप ।
राग-द्वेष से जो  ऊपर  है  वह  पाता  प्रभु-प्रेम  अनूप॥7॥

8643
पवमान  महि  श्रवश्चित्रेभिर्यासि  रश्मिभिः ।
शर्धन्तमांसि जिघ्नसे विश्वानि दाशुषो गृहे॥8॥

वह प्रभु यश-वैभव का स्वामी अपना-पन देता भर-पूर ।
वह सबके अन्तर्मन से अज्ञान-तमस को करता दूर॥8॥

8644
त्वं  द्यां  च  महिव्रत  पृथिवीं  चाति जभ्रिषे ।
प्रति द्रापिममुञ्चथा:पवमान महित्वना॥9॥

पृथ्वी पर ही कितना वैभव है यह  भी  है  उनका अनुदान ।
नेति-नेति कह चुप हैं श्रुतियॉ अद्भुत होगा वह भगवान॥9॥
 

 

Thursday, 27 March 2014

सूक्त - 101

[ऋषि- अन्धीगु श्यावाश्वि । देवता- पवमान सोम । छन्द-अनुष्टुप्-गायत्री ।]

8645
पुरोजिती  वो अन्धसः  सुताय  मादयित्नवे ।
अप श्वानं श्नथिष्टन सखायो दीर्घजिह्वय्म्॥1॥

शब्द-ब्रह्म है वह परमात्मा वही  पूज्य  है वह प्रणम्य  है ।
परमात्मा को कवि कहते हैं पूजनीय वह ही वरेण्य है॥1॥

8646
यो धारया पावकया परिप्रस्यन्दते सुतः ।
इन्दुरश्वो न कृत्व्यः ॥2॥

अति समर्थ है वह परमात्मा सबको पावन  वही  बनाता ।
सर्व-व्याप्त है उसकी सत्ता घट-घट में वही नज़र आता॥2॥

8647
तं दुरोषमभी नरः सोमं विश्वाच्या धिया ।
यज्ञं हिन्वन्त्यद्रिभिः ॥3॥

उस पावन प्रभु परमात्मा  का चित्त - वृत्ति  से होता बोध ।
वेदों में वे यज्ञ - देव हैं इस पर  भी हो जाए परि- शोध॥3॥

8648
सुतासो  मधुमत्तमा: सोमा  इन्द्राय  मन्दिनः ।
पवित्रवन्तो अक्षरन्देवान्गच्छन्तु वो मदा:॥4॥

प्रभु का सौम्य भाव हम पा लें तो सार्थक  हो  जाए जीवन ।
धर्म आचरण में आ जाए तो पुलकित हो जाए तन-मन॥4॥

8649
इन्दुरिन्द्राय   पवत   इति   देवासो   अब्रुवन् ।
वाचस्पतिर्मखस्यते विश्वस्येशान ओजसा॥5॥

हे  देदीप्यमान  परमात्मा  कर्म - योग  का  पाठ - पढाओ ।
हम भी सान्निध्य तुम्हारा पायें ऐसी कोई युक्ति बताओ॥5॥

8650
सहस्त्रधारः  पवते   समुद्रो   वाचमीङ्खयः ।
सोमः पती रयीणां सखेन्द्रस्य दिवे-दिवे॥6॥

अनन्त-बलों  का  वह  स्वामी  है वह आनन्द का सागर है ।
वह  ही वाणी का वैभव है अमृत से भरा हुआ गागर  है ॥6॥

8651
अयं  पूषा  रयिर्भगः सोमः पुनानो अर्षति ।
पतिर्विश्वस्य भूमनो व्यख्यद्रोदसी उभे॥7॥

हे  परम - मित्र  हे  परमेश्वर तुम यश - वैभव का देना दान ।
पावन हमें बनाना प्रभु - वर  दीन - बन्धु  मेरे भगवान ॥7॥

8652
समु  प्रिया  अनूषत  गावो  मदाय  घृष्वयः ।
सोमासः कृण्वते पथः पवमानास इन्दवः॥8॥

जो  इन्द्रिय  प्रभु  से  प्रेरित  है  वह  ही पाती  है परमानन्द ।
परमात्मा का पद पावन है गुण-निधान हैं आनंद- कन्द॥8॥

8653
य ओजिष्ठस्तमा  भर पवमान श्रवाय्यम् ।
यः पञ्च चर्षणीरभि रयिं येन वनामहै॥9॥

वह   परमेश्वर  ओजस्वी   है   है   श्रवणीय   और   मननीय ।
पञ्च - प्राण संस्कारित करते यश - वैभव देना नमनीय ॥9॥

8654
सोमा:  पवन्त  इन्दवोSस्मभ्यं गातुवित्तमा: ।
मित्रा: सुवाना अरेपसः स्वाध्यः स्वर्विदः॥10॥

परमेश्वर गुण के निधान हैं कण - कण  में  वह  विद्यमान  हैं ।
जो भी पावन आत्मायें हैं प्रभु के निकट उदीय- मान हैं ॥10॥

8655
सुष्वाणासो  व्यद्रिभिश्चिताना  गोरधि त्वचि ।
इषमस्मभ्यमभितः समस्वरन् वसुविदः॥11॥

सुमिरन से  सुख - वैभव  बढता  योग  से  मिलता ब्रह्मानन्द ।
अपने  हाथों  में  सब कुछ  है पायें दुख या फिर आनन्द ॥11॥

8656
एते  पूता  विपश्चितः  सोमासो  दध्याशिरः ।
सूर्यासो न दर्शतासो जिगत्नवो ध्रुवा घृते॥12॥

जो  जन  अन्वेषण  करते  हैं  अपने  मन  की  जो  सुनते   हैं ।
उनके मुख की आभा अद्भुत प्रभु की झलक लिए फिरते हैं॥12॥

8657
प्र सुन्वानस्यान्धसो मर्तो  न  वृत तद्वचः ।
अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः॥13॥

प्रभु  उपासना  करने  वाले  सत् - संगति  का   रखें  ध्यान ।
सोच-समझ कर चलें राह पर छू न ले उनको अभिमान॥13॥

8658
आ जामिरत्के  अव्यत  भुजे  न  पुत्र  ओण्योः ।
सरज्जारो न योषणां वरो न योनिमासदम्॥14॥

श्रुतियॉ सदाचार सिखलातीं शुभ- चिन्तन है अपना ध्येय ।
प्रभु-सान्निध्य हमें मिल जाए यही प्रेय है यही है श्रेय॥14॥

8659
स  वीरो  दक्षसाधनो  वि  यस्तस्तम्भ  रोदसी।
हरिः पवित्रे अव्यत वेधा न योनिमासदम्॥15॥

सभी  गुणों  का  वह  मालिक है सभी शक्तियों का स्वामी ।
वह अवगुण को  हर लेता  है अति अद्भुत अन्तर्यामी ॥15॥

8660
अव्यो  वारेभिः पवते  सोमो  गव्ये  अधि  त्वचि ।
कनिक्रदद्वृषा हरिरिन्द्रस्याभ्येति निष्कृतम्॥16॥

कर्म-योग का साधक प्रभु के अत्यन्त निकट ही रहता है ।
प्रभु  सबको  आनन्द  लुटाता  सबकी  रक्षा करता है ॥16॥ 
   

Wednesday, 26 March 2014

सूक्त - 102

[ऋषि- त्रित आप्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]

8661
क्राणा शिशुर्महीनां हिन्वन्नृतस्य दीधितिम् ।
विश्वा परि प्रिया भुवदध द्विता ॥1॥

महिमा - वान  वही  परमेश्वर  सत् - प्रकाश को फैलाता है ।
प्रेम - सेतु  निर्मित  करता  है  कवच  वही बन जाता है॥1॥

8662
उप त्रितस्य पाष्यो3रभक्त यद् गुहा पदम् ।
यज्ञस्य सप्त धामभिरध प्रियम् ॥2॥

प्रकृति-पुरुष की उपस्थिति में सत रज तम हर जगह समाया ।
तभी अचानक प्रभु के मन में जग रचने का  विचार आया ॥2॥

8663
त्रीणि त्रितस्य धारया पृष्ठेष्वेरया रयिम् ।
मिमीते अस्य योजना वि सुक्रतुः ॥3॥

सत  रज  तम  से  ही  निर्मित  है  अद्भुत  है  जगती  की रचना ।
कर्म-योग  का  मार्ग अनूठा  कठिन  बहुत  है  इससे बचना ॥3॥

8664
जज्ञानं सप्त मातरो वेधामशासत श्रिये ।
अयं ध्रुवो रणीयां चिकेत यत् ॥4॥

सप्त - धार  से  बना  सोम  यह  तन - मन  की  शक्ति  बढाता है ।
धन  का  अनुकूलन  करता  है  यश - वैभव का वह ज्ञाता है ॥4॥

8665
अस्य व्रते सजोषसो विश्वे देवासो अद्रुहः ।
स्पार्हा  भवन्ति रन्तयो जुषन्त यत् ॥5॥

राग - द्वेष  दोनों  से  बच - कर  जो  करते  हैं  प्रभु  का  ध्यान ।
वे  जग - सागर से तर जाते जग-हित का होता अभियान ॥5॥

8666
यमी गर्भमृतावृधो दृशे चारुमजीजनन् ।
कविं मंहिष्ठमध्वरे पुरुस्पृहम् ॥6॥

प्रभु  सर्जक  पालक  पोषक  हैं  वे  रखते  हैं  सबका  ध्यान ।
उपासना की  राह अनोखी साधक  को मिलता सम्मान ॥6॥

8667
समीचीने अभि त्मना यह्वी ऋतस्य मातरा ।
तन्वाना यज्ञमानुषग्यदञ्जते ॥7॥

जग की रचना अति अद्भुत है अति सुन्दर है यह  वसुन्धरा ।
निज  कर्मानुरूप  ही  प्राणी  पाता  है  भोग  परा- अपरा ॥7॥

8668
क्रत्वा शुक्रेभिरक्षभिरृणोरप व्रजं दिवः ।
हिन्वन्नृतस्य  दीधितिं    प्राध्वरे ॥8॥

प्रभु  मेरा अज्ञान  मिटाओ  मुझको  सत्पथ  पर  ले आओ ।
अति-तेजस्वी रूप तुम्हारा  मुझे  लुभाता  पास  बुलाओ॥8॥

Tuesday, 25 March 2014

सूक्त - 103

[ऋषि- द्वित आप्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]

8669
प्र पुनानाय वेधसे सोमाय वच उद्यतम् ।
भूतिं न भरा मतिभिर्जुजोषते ॥1॥

जो परमेश्वर- प्रेमी- प्राणी  है प्रभु रखते हैं उनका ध्यान ।
यश-वैभव उनको देते हैं व्यवहृत करते सखा-समान॥1॥

8670
परि वारान्यव्यया गोभिरञ्जानो अर्षति ।
त्री षधस्था पुनानः कृणुते हरिः ॥2॥

प्रभु साधक  की  रक्षा  करते  कल्मष  को  करते  हैं  दूर ।
आत्म-ज्ञान तक पहुँचाते हैं अपना-पन देते हैं भरपूर॥2॥

8671
परि कोशं मधुश्चुतमव्यये वारे अर्षति ।
अभि वाणीरृषीणां सप्त नूषत ॥3॥

जिनका अन्तर्मन  पावन  है  वे  परमेश्वर  को  पाते  हैं ।
भक्ति-मार्ग से वे आते हैं आत्म-ज्ञान देकर  जाते  हैं॥3॥

8672
परि णेता मतीनां विश्वदेवो अदाभ्यः ।
सोमः पुनानश्चम्वोर्विशध्दरिः ॥4॥

जो जग को आलोकित करता वह ही  है सबका पूजनीय ।
जीव-जगत दोनों का रक्षक वह नमनीय वही वरणीय॥4॥

8673
परि दैवीरनु स्वधा इन्द्रेण याहि सरथम् ।
पुनानो वाघद्वाघद्भिरमर्त्यः ॥5॥

वह कर्म-योग का उद्-घोषक सबको सिखलाता है आचार ।
दैवी-धन का वर्धन करता कोटि - कोटि उसका आभार॥5॥

8674
परि सप्तिर्न वाजयुर्देवो देवेभ्यः सुतः ।
व्यानशिः  पवमानो   वि  धावति ॥6॥

परम-दिव्य है वह परमेश्वर वह है  यश - वैभव  की खान ।
सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा वरद-हस्त रखना भगवान॥6॥     

Monday, 24 March 2014

सूक्त - 104

[ऋषि- पर्वत नारद । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]

8675
सखाय आ नि षीदत पुनानाय प्र गायत ।
शिशुं न यज्ञैः परि भूषत श्रिये ॥1॥

हे भक्त सखा तुम सब आओ पावन तन-मन के सँग आओ ।
यश-वैभव यदि तुम्हें चाहिए तो परमेश्वर के गुण गाओ॥1॥

8676
समी वत्सं न मातृभिः सृजता गयसाधनम् ।
देवाव्यं1 मदमभि द्विशवसम् ॥2॥

साधक के अपने भावों पर निर्भर होती  है  ध्यान - साधना ।
सज्जन तभी सफल होता है दुर्जन रखता अलग भावना॥2॥

8677
पुनाता दक्षसाधनं यथा शर्धाय वीतये ।
यथा मित्राय वरुणाय शंतमः ॥3॥

आलोक- देव सविता की पावन पृथ्वी परिक्रमा करती है ।
संतों की टोली भी वैसे ही प्रभु की परिक्रमा करती  है ॥3॥

8678
अस्मभ्यं त्वा वसुविदमभि वाणीरनूषत ।
गोभिष्टे वर्णमभि वासयामसि॥4॥

परमेश्वर यश-वैभव देते  नीति-निपुण  हैं  कृपा - निधान ।
चिंतन मनन निदिध्यासन में आते ही रहते हैं भगवान॥4॥

8679
स नो मदानां पत इन्दो देवप्सरा असि ।
सखेव सख्ये गातुवित्तमो भव ॥5॥

प्रभु सबको सन्मार्ग दिखाते हित-चिन्तन वे  ही करते हैं ।
सख्य-भाव है उनके मन में सखा-सदृश ही वे लगते हैं॥5॥

8680
सनेमि कृध्य1स्मदा रक्षसं कं चिदत्रिणम् ।
अपादेवं द्वयुमंहो युयोधि नः ॥6॥

दुष्ट-दमन अति आवश्यक है हे प्रभु तुम ही रक्षा करना ।
मित्र-नेम को सदा निभाना मेरी विपदा तुम ही हरना॥6॥    

Sunday, 23 March 2014

सूक्त - 105

[ऋषि- पर्वत- नारद । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।] 

8681
तं वः सखायो मदाय पुनानमभि गायत ।
शिशुं  न  यज्ञैः  स्वदयन्त  गूर्तिभिः ॥1॥

प्रभु की महिमा का जो मानव सुमिरन सदा किया करता है ।
वह साधक पावन मन पाकर प्रभु की कृपा प्राप्त करता है॥1॥

8682
सं वत्सइव मातृभिरिन्दुर्हिन्वानो अज्यते ।
देवावीर्मदो मतिभिः परिष्कृतः ॥2॥

आलोक-रूप है वह परमात्मा हम जिसकी पूजा करते हैं ।
निर्मल मन वाले सज्जन का सुमिरन साधक करते हैं॥2॥

8683
अयं दक्षाय साधनोSयं शर्धाय वीतये ।
अयं देवेभ्यो मधुमत्तमः सुतः ॥3॥

अत्यन्त दक्ष है वह परमात्मा वह बलशाली आनन्द-मय है।
यदि उनसे कुछ पाना चाहें मञ्जिल शरणमात्र में तय है॥3॥

8684
गोमन्न इन्द्रो अश्ववत्सुतः सुदक्ष धन्व ।
शुचिं ते वर्णमधि गोषु दीधरम् ॥4॥

सभी जगह अभिव्यक्ति तुम्हारी तुम कण-कण में रहते हो ।
हम में जो थोडा सा गुण है उसको रेखाञ्कित  करते  हो॥4॥

8685
स नो हरीणां पत इन्दो देवप्सरस्तमः ।
सखेव सख्ये नर्यो रुचे भव ॥5॥

आलोक लुटाता जैसे  सूरज हम सबको मुखर बनाता है । 
वैसे ही सबके ज्ञान- कोष को प्रभु ही प्रखर बनाता है ॥5॥

8686
सनेमि त्वमस्मदॉ अदेवं कं चिदत्रिणम् ।
साह्वॉ इन्दो परि बाधो अप द्वयुम् ॥6॥

हे प्रभु दया-दृष्टि तुम देना तुम हम सबकी रक्षा करना ।
दुष्टों से तुम हमें बचाना वरद-हस्त हम पर रखना ॥6॥ 

   

Saturday, 22 March 2014

सूक्त - 106

[ऋषि- चक्षुमानव । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]

8687
इन्द्रमच्छ सुता इमे वृषणं यन्तु हरयः ।
श्रुष्टी जातास इन्दवः स्वर्विदः ॥1॥

परब्रह्म  सर्वत्र  व्याप्त  है  सत्कर्म  मार्ग  पर  वह  रहता है ।
उसको उद्योगी अति प्रिय है वह सबकी विपदा हरता है॥1॥

8688
अयं भराय सानसिरिन्द्राय पवते सुतः ।
सोमो   जैत्रस्य  चेतति  यथा  विदे ॥2॥

परम ईष्ट है वह  परमात्मा  पूजनीय  है  वह  प्रणम्य  है ।
वह सज्जन के साथ खडा है वही परम है वह वरेण्य है॥2॥

8689
अस्येदिन्द्रो मदेष्वा ग्राभं गृभ्णीत सानसिम् ।
वज्रं च वृषणं भरत्समप्सुजित् ॥3॥

प्रभु ही हैं सबके सुख- दाता सबसे प्रेम वही करते हैं ।
कर्म-योग के राही को वे अपने साथ सदा रखते हैं॥3॥

8690
प्र धन्वा सोम जागृविरिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव ।
द्युमन्तं शुष्ममा भरा स्वर्विदम् ॥4॥

जो  प्राणी  उद्यम  करता  है  प्रभु  उसको  सब  कुछ  देते  हैं ।
सबको सत्पथ पर प्रेरित करते सज्जन को अपना लेते हैं॥4॥

8691
इन्द्राय वृषणं मदं पवस्व विश्वदर्शतः ।
सहस्त्रयामा पथिकृद्विचक्षणः ॥5॥

कर्म  मार्ग  पर  हर  मानव  को  अपना अभीष्ट  मिल  जाता है ।
सान्निध्य उसे प्रभु का मिलता है मन में आनन्द समाता है॥5॥

8692
अस्मभ्यं गातुवित्तमो देवेभ्यो मधुमत्तमः ।
सहस्त्रं याहि पथिभिः कनिक्रदत् ॥6॥

प्रभु पथ को आलोकित करता भक्तों का करता बेडा-पार ।
निराकार है  वह  परमेश्वर फिर भी आता है कई बार ॥6॥

8693
पवस्व देववीतय इन्दो धाराभिरोजसा ।
आ कलशं मधुमान्त्सोम नः सदः॥7॥

वह परमात्मा परमानन्द है वह ही है रस से भर-पूर ।
भक्तों को दर्शन देता है यद्यपि रहता है  बहुत  दूर ॥7॥

8694
तव द्रप्सा उदप्रुत इन्द्रं मदाय वावृधुः ।
त्वां देवासो अमृताय कं पपुः ॥8॥

सर्वोत्तम  रस  है ब्रह्मानन्द उद्योगी  इस  रस  को  पाता  है ।
योगी को मिलता अमृत-रस कर्मयोग यह समझाता है॥8॥

8695
आ नः सुतास इन्दवः पुनाना धावता रयिम् ।
वृष्टिद्यावो रीत्यापः स्वर्विदः ॥9॥

अनन्त शक्तियॉ क्रीडा करतीं पृथ्वी पर होती बरसात ।
ज्ञानी के मन में रस वर्षा हो सकती है अकस्मात ॥9॥

8696
सोमः पुनान ऊर्मिणाव्यो वारं वि धावति ।
अग्रे वाचः पवमानः कनिक्रदत् ॥10॥

वह  परमेश्वर  गुण - ग्राही  है  उसने  सब  देखा - परखा  है ।
हम सबके अत्यंत निकट है कर्मानुरूप लेखा-जोखा है॥10॥

8697
धीभिर्हिन्वन्ति वाजिनं वने क्रीळन्तमत्यविम् ।
अभि त्रिपृष्ठं मतयः समस्वरन् ॥11॥

अति समर्थ है वह परमात्मा नहीं है कोई समय का बन्धन ।
देश-काल से परे है वह प्रभु ऐसा अद्भुत है आनन्द-घन॥11॥

8698
असर्जि कलशॉ अभि मीळ्हे सप्तिर्न वाजयुः ।
पुनानो वाचं जनयन्नसिष्यदत् ॥12॥

वैसे परमात्मा सर्व-व्याप्त है पर निर्मल मन में  रहता है ।
कर्म-योग की राह चलो तुम वह हम सबसे कहता है॥12॥

8699
पवते हर्यतो हरिरति ह्वरांसि रंह्या ।
अभ्यर्षन्त्स्तोतृभ्यो वीरवद्यशः॥13॥

कर्म-वीर ही पा सकता है उसका  सरल  सहज  व्यवहार ।
वह अवगुण को हर लेता है सद्-गति का देता उपहार॥13॥

8700
अया पवस्व देवयुर्मधोर्धारा असृक्षत ।
रेभन्पवित्रं पर्येषि विश्वतः॥14॥

पावन मन वाला मानव ही पा सकता है प्रभु  का  प्यार ।
हे परमेश्वर सब प्राणी को दे देना समुचित व्यवहार॥14॥   

   

Friday, 21 March 2014

सूक्त - 107

[ऋषि- सप्तर्षि । देवता- पवमान सोम । छन्द- बृहती- गायत्री- पंक्ति ।]

8701
परीतो षिञ्चता सुतं सोमो य उत्तमं हविः ।
दधन्वॉ यो नर्यो अप्स्व1न्तरा सुषाव सोममद्रिभिः॥1॥

सोम सृजन का ही माध्यम है यह सौम्य-स्वभाव बनाता है ।
सोम - रूप प्रभु सर्व-व्याप्त है योगी प्रभु - दर्शन पाता  है ॥1॥

8702
नूनं पुनानोSविभिः परि स्त्रवादब्धः सुरभिन्तरः ।
सुते चित्त्वाप्सु मदामो अन्धसा श्रीणन्तो गोभिरुत्तरम्॥2॥

परमात्मा तुम आनन्द-रूप  हो  हे  प्रभु  मेरे  मन  में  आओ ।
हम प्रेम से आमन्त्रित करते हैं तुम ही आकर हमें जगाओ॥2॥

8703
परि      सुवानश्चक्षसे      देवमादनः      क्रतुरिन्दुर्विचक्षणः ।

परमेश्वर ज्ञानी को सुख देता जो निराकार का करता ध्यान ।
साधक आनन्द अनुभव करता परमानन्द का होता भान॥3॥

8704
पुनानः सोम धारयापो वसानो अर्षसि ।
आ रत्नधा योनिमृतस्य सीदस्युत्सो देव हिरण्ययः॥4॥

प्रभु  हमको  सत्कर्म  सिखाओ तुम  मेरे  मन  में  बस  जाओ ।
ज्योति-रूप तुम्हीं विराजे अज्ञान-तमस को तुम्हीं मिटाओ॥4॥

8705
दुहान  ऊधर्दिव्यं  मधु  प्रियं  प्रत्नं  सधस्थमासदत् ।
आपृच्छ्यं धरुणं वाज्यर्षति नृभिर्धूतो विचक्षणः॥5॥

अन्तरिक्ष प्रभु को अति-प्रिय है नभ असीम का द्योतक है ।
हम भी तुमको पा सकते हैं वह भी जो तेरा उपासक है॥5॥

8706
पुनानः सोम जागृविरव्यो वारे परि प्रियः ।
त्वं विप्रो अभवोSङ्गिरस्तमो मध्वा यज्ञं मिमिक्ष नः॥6॥

प्रभु  पावन - दृष्टि  मुझे  देना  मेरे  अन्तः पुर  में  आना ।
तुम प्राणों के प्राण प्रभु जी आनन्द-वर्षा करते जाना ॥6॥

8707
सोमो मीढ्वान्पवते गातुवित्तम ऋषिर्विप्रो विचक्षणः ।
त्वं  कविरभवो  देववीतम आ  सूर्यं  रोहयो  दिवि ॥7॥

परमेश्वर ज्ञानी के मन को दिव्य-तेज से  भर  देते हैं ।
मनोकामना पूरी करते सबका अवगुण हर लेते हैं॥7॥

8708
सोम उ षुवाणः सोतृभिरधि ष्णुभिरवीनाम् ।
अश्वयेव हरिता याति धारया मन्द्रया याति धारया॥8॥

जैसे बिजली सुख-साधन देती जीवन को सरल बनाती  है।
प्रभु अन्वेषण-बल देना जो जन-जन के काम आती है॥8॥

8709
अनूपे  गोमान्गोभिरक्षा:   सोमो   दुग्धाभिरक्षा: ।
समुद्रं न संवरणान्यग्मन्मन्दी मदाय तोशते॥9॥

परमेश्वर  सज्जन  को  देते  हैं  पावन  परमानन्द  प्रसाद ।
सरिता सागर से मिलती है मन का मिटता है अवसाद॥9॥

8710
आ   सोम   सुवानो  अद्रिभिस्तिरो   वाराण्यव्यया ।
जनो न पुरि चम्वोर्विशध्दरिःसदो वनेषु दधिषे॥10॥

प्रभु तुम सबकी रक्षा करते सत्-पथ  पर  पहुँचाते  हो ।
ज्ञान-प्रकाश तुम्हीं देते हो सबकी प्यास बुझाते हो॥10॥

8711
स मामृजे  तिरो अण्वानि  मेष्यो  मीळ्हे  सप्तिर्न  वाजयुः ।
अनुमाद्यःपवमानो मनीषिभिः सोमो विप्रेभिरृक्वभिः॥11॥

वह  ही  सर्वो - परि  सत्ता  है  वह  निराकार  है  अद्वितीय ।
वह उपासना से मिलता है वह है अद्भुत-अनिवर्चनीय॥11॥

8712
प्र सोम देववीतये सिन्धुर्न पिप्ये अर्णसा ।
अंशोः पयसा मदिरो न जागृविरच्छा कोशं मधुश्चुतम्॥12॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  वह  आनन्द का सागर है ।
वह  निर्मल मन में रहता है वह हम सबका सहचर है ॥12॥

8713
आ हर्यतो अर्जुने अत्के अव्यत  प्रियः सूनुर्न  मर्ज्यः ।
तमीं हिन्वन्त्यपसो यथा रथं नदीष्वा गभस्त्योः॥13॥

कर्म-निरूपण वे करते हैं  हम  सब  पाते  कर्मों  का  फल ।
सत्पथ पर वे प्रेरित करते जिससे मिले सभी को हल॥13॥

8714
अभि सोमास आयवः पवन्ते मद्यं मदम् ।
समुद्रस्याधि विष्टपि मनीषिणो मत्सरासः स्वर्विदः ॥14॥

विज्ञानी - ज्ञानी  दोनों  करते  अपना - अपना अन्वेषण ।
प्राप्ति हेतु यह आवश्यक है होते रहें  सफल  प्रक्षेपण॥14॥

8715
तरत्समुद्रं   पवमान  ऊर्मिणा   राजा   देव   ऋतं   बृहत् ।
अर्षन्मित्रस्य वरुणस्य धर्मणा प्र हिन्वान ऋतं बृहत्॥15॥

आलोक-प्रदाता  परमात्मा  का   हमसे  होता  है सम्भाषण ।
पण्डित के प्रवचन में होता उसका सुखद-सहज संप्रेषण॥15॥

8716
नृभिर्येमानो  हर्यतो  विचक्षणो  राजा  देवः  समुद्रियः ॥16॥

प्रभु से प्रेरित होकर हम सब विविध -विधा से फल पाते हैं ।
सत्पथ के सब पथिक वस्तुतःमन की प्यास बुझाते हैं॥16॥

8717
इन्द्राय पवते मदः सोमो मरुत्वते सुतः ।
सहस्त्रधारो  अत्यव्यमर्षति  तमी  मृजन्त्यायवः॥17॥

कर्म - योग के पावन-पथ पर परमात्मा रक्षा करते  हैं ।
मनो-कामना पूरी करते मन की व्यथा समझते हैं॥17॥

8718
पुनानश्च  जनयन्मतिं  कविः सोमो  देवेषु  रण्यति ।
अपो वसानः परि गोभिरुत्तरः सीदन्वनेष्वव्यत॥18॥

प्रभु कर्मों के अधिपति हैं हम कर्मानुरूप फल चखते हैं ।
जीव - जगत  दोनों की रक्षा परमेश्वर ही करते हैं ॥18॥

8719
तवाहं सोम रारण सख्य इन्द्रो दिवेदिवे ।
पुरूणि बभ्रो नि चरन्ति मामव परिधिँरति तॉ इहि॥19॥

दुष्ट - दमन अति आवश्यक  है  बढाना  है आयुध  का  मान ।
प्रभु असुरों से रक्षा करना जीव-जगत का रखना ध्यान॥19॥

8720
उताहं नक्तमुत सोम ते दिवा सख्याय बभ्र ऊधनि ।
घृणा तपन्तमति सूर्यं परः शकुना इव पप्तिम॥20॥

हे   देदीप्यमान   परमेश्वर  तुम   ही   हो  आलोक -  प्रदाता ।
तुमसे मिलने को आतुर हैं तुम्हीं पिता हो तुम हो माता॥20॥

8721
मृज्यमानः सुहस्त्य समुद्रे वाहमिन्वसि ।
रयिं पिशङ्ग बहुलं पुरुस्पृहं पवमानाभ्यर्षसि॥21॥

सर्व   समर्थ   तुम्हारी   सत्ता  वाणी  का  दे  दो  वर - दान ।
प्रज्ञा-धन ही मुझको प्रिय है प्रभु मुझको दे देना ज्ञान ॥21॥

8722
मृजानो वारे पवमानो अव्यये वृषाव चक्रदो वने ।
देवानां सोम पवमान निष्कृतं गोभिरञ्जानो अर्षसि ॥22॥

तुम्हीं  सुरक्षा  देना  प्रभु - वर  सत्कर्मों  की बात बताना ।
मैं पावन-मन कैसे पाऊँ ज्ञानामृत से तुम समझाना ॥22॥

8723
पवस्व वाजसातयेSभि विश्वानि काव्या ।
त्वं  समुद्रं  प्रथमो   वि  धारयो  देवेभ्यः  सोम  मत्सरः ॥23॥  

उज्ज्वल  भाव  सदा  हो  मन  में  ऐसी  कोई  जुगत बताना ।
यश-वैभव हमको देना प्रभु ज्ञान-योग हमको समझाना॥23॥

8724
स  तू  पवस्व  परि  पार्थिवं  रजो  दिव्या  च  सोम  धर्मभिः ।
त्वां विप्रासो मतिभिर्विचक्षण शुभ्रं  हिन्वन्ति धीतिभिः॥24॥

धरा  प्रदूषित  हुई  जा  रही  अब  क्या  होगा तुम्हीं  बताओ ।
कर्म-योग हम कैसे सीखें तुम्हीं  प्रेम से अब समझाओ ॥24॥

8725
पवमाना असृक्षत पवित्रमति धारया ।
मरुत्वन्तो मत्सरा इन्द्रिया  हया  मेधामभि  प्रयांसि च ॥25॥

ध्यान-धारणा क्या  जानें  हम क्रिया - योग   हम  कैसे जानें ।
आकर तुम्हीं हमें सिखलाओ तभी तुम्हें हम अपना मानें॥25॥

8726
अपो वसानः परि कोशमर्षतीन्दुर्हियानः सोतृभिः ।
जनयञ्ज्योतिर्मन्दना अवीवशद्गा:कृण्वानो न निर्णिजम्॥26॥

कर्म-योग के पथ पर ही सब मानव तुम्हें जान पाते हैं ।
वरद-हस्त हम पर भी रखना बिन तेरे हम अकुलाते हैं ॥26॥             
      
   

Thursday, 20 March 2014

सूक्त - 108

[ऋषि- गौरिवीति शाक्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- बृहती-पंक्ति-गायत्री ।]

8727
पवस्व    मधुमत्तम    इन्द्राय    सोम    क्रतुवित्तमो    मदः ।
महि द्युक्षतमो मदः ॥1॥

हे  परम - मित्र   हे  परमेश्वर  शुभ - कर्मों  के  प्रेरक  बनना ।
कर्म-योग को हम भी जानें मन में शुभ भाव तुम्हीं भरना॥1॥

8728
यस्य   ते   पीत्वा   वृषभो   वृषायतेSस्य   पीता   स्वर्विदः ।
स     सुप्रकेतो    अभ्यक्रमीदिषोSच्छा    वाजं    नैतशः॥2॥

तन और मन दोनों के बल से कर्म - योग को समझें  जानें ।
हम जीवन- रण में जीतें मन-मति की महिमा को मानें॥2॥

8729
त्वं    ह्य1ङ्ग    दैव्या    पवमान    जनिमानि    द्युमत्तमः ।
अमृतत्वाय घोषयः ॥3॥ 

सत्कर्मी सदा सफल होता है प्रभु करते सबका कल्याण ।
प्रभु ही पालन-पोषण करते परमेश्वर हैं प्राणों के प्राण॥3॥

8730
येना    नवग्वो   दध्यङ्ङपोर्णुते    येन    विप्रास  आपिरे ।
देवानां  सुम्ने  अमृतस्य  चारुणो  येन  श्रवांस्यानशुः॥4॥

परमात्मा  प्रेरित  करते  हैं  वे  सत्पथ  पर  ले  जाते  हैं ।
सत्मर्म सभी को सिखलाते सुख-सागर में नहलाते हैं॥4॥

8731
एष स्य धारया सुतोSव्यो वारेभिः पवते मदिन्तमः ।
क्रीळन्नूर्मिरपामिव ॥5॥

जैसे हम सहज श्वास लेते हैं वैसे ही प्रभु  रचना  करते  हैं ।
हम भी उनके ही स्वरूप हैं हम अन्वेषण कर सकते हैं॥5॥

8732
य  उस्त्रिया  अप्या  अन्तरश्मनो  निर्गा  अकृन्तदोजसा ।
अभि  व्रजं तत्निषे  गव्यमश्व्यं  वर्मीव  धृष्णवा  रुज ॥6॥

कण- कण में वह विद्यमान है घट-घट में है उसका वास ।
वह सब प्राणी को सुख देता है यहीं हमारे आस- पास॥6॥

8733
आ सोता  परि  षिञ्चताश्वं  न  स्तोममप्तुरं  रजस्तुरम् ।
वनक्रक्षमुदप्रुतम् ॥7॥

श्रध्दा - सरिता का जल लेकर हम उसका अभिषेक करें ।
हम नूतन आविष्कार करें मन के वृन्दावन में विचरें॥7॥

8734
सहस्त्रधारं    वृषभं    पयोवृधं    प्रियं    देवाय   जन्मने ।
ऋतेन य ऋतजातो विवावृधे  राजा  देव  ऋतं  बृहत्॥8॥

हे  प्रभु अन्न और  धन देना मनो - कामना पूरी करना ।
तुमसे बस एक निवेदन है मुझ पर दया-दृष्टि रखना॥8॥

8735
अभि   द्युम्नं   बृहद्यश   इषस्पते   दिदीह   देव   देवयुः ।
वि कोशं मध्यमं युव ॥9॥

हे  पूजनीय  हे परमेश्वर तुम अपने - पन से अपना लेना ।
यह जीवन सार्थक हो जाए अपना सान्निध्य हमें देना॥9॥

8736
आ वच्यस्व सुदक्ष चम्वोः सुतो विशां वह्निर्न विश्पतिः ।
वृष्टिं दिवः पवस्य रीतिमपां जिन्वा गविष्टये धियः॥10॥

हे प्रभु तुम सर्वत्र व्याप्त हो सज्जन को प्रेरित करते  हो ।
योगी को सद्गति देते हो सत्पथ पर प्रेषित करते हो॥10॥

8737
एतमु   त्यं   मदच्युतं   सहस्त्रधारं   वृषभं   दिवो   दुहुः ।
विश्वा वसूनि बिभ्रतम् ॥11॥

अनन्त-शक्तियों के स्वामी हो तुम हो आनन्द के आगार।
हम भी आनन्द पा सकते हैं कोटि-कोटि तेरा आभार॥11॥ 

8738
वृषा  वि  जज्ञे  जनयन्नमर्त्यः  प्रतपञ्ज्योतिषा  तमः ।
स  सुष्टुतः  कविभिर्निर्णिजं दधे त्रिधात्वस्य दंससा॥12॥

वह अनन्त है वह अमर्त्य है अज्ञान- तमस को हरता है ।
सबका सुख -साधन वह ही है सबके मन में रहता है॥12॥

8739
स   सुन्वे   यो   वसूनां   यो   रायामानेता   य  इळानाम्  ।
सोमो यः सुक्षितीनाम् ॥13॥

तुम ही जगती के सर्जक हो तुम ही यश-वैभव के स्वामी ।
हमें ज्ञान - धन देना प्रभु जी हम हैं तेरे ही अनुगामी॥13॥

8740
यस्य  न  इन्द्रः पिबाद्यस्य  मरुतो यस्य वार्यमणा भगः । 
आ   येन   मित्रावरुणा   करामह   एन्द्रमवसे   महे ॥14॥

तुम ही आनन्द के सागर हो सज्जन पाते सँग तुम्हारा ।
सद्विद्या के तुम स्वामी हो हम सबके हो तुम्हीं सहारा॥14॥

8741
इन्द्राय   सोम   पातवे   नृभिर्यतः  स्वायुधो   मदिन्तमः ।
पवस्व मधुमत्तमः ॥15॥

हे आनन्द- जनक  परमात्मा  हम भी पायें सँग तुम्हारा ।
ज्ञान-कर्म से जुड जायें हम हो जाए कल्याण हमारा॥15॥

8742
इन्द्रस्य  हार्दि  सोमधानमा  विश  समुद्रमिव  सिन्धवः ।
जुष्टो  मित्राय  वरुणाय  वायवे दिवो विष्टम्भ उत्तमः॥16॥

हे पावन पूजनीय परमेश्वर यह हवि-भोग ग्रहण कर लेना।
प्रश्न कई हैं मन के भीतर मुझको अन्वेषण बल देना॥16॥      

Wednesday, 19 March 2014

सूक्त - 109

[ऋषि-अग्नि धिष्ण्य ईश्वर । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8743
परि  प्र  धन्वेन्द्राय  सोम  स्वादुर्मित्राय  पूष्णे  भगाय ॥1॥

उद्योगी नर ही पा सकता है विविध भॉति के फल और फूल ।
धर्म अर्थ और काम मोक्ष में रहता  है  वह  ही अनुकूल ॥1॥

8744
इन्द्रस्ते सोम सुतस्य पेया: क्रत्वे दक्षाय विश्वे च देवा: ॥2॥

सरल  सहज  सज्जन  साधू  ही  पा सकता है परमानन्द ।
ज्ञान- कर्म  दोनों  उत्तम  हैं  इन्हीं  मार्ग पर है आनन्द॥2॥

8745
एवामृताय  महे  क्षयाय  स  शुक्रो अर्ष  दिव्यः पीयूषः ॥3॥

आनन्द - अमृत  भी  कहते  हैं   अपर नाम है परमानन्द ।
विविध नाम से अभिहित होता बस वह ही है ब्रह्मानन्द॥3॥

8746
पवस्य सोम महान्त्समुद्रःपिता देवानां विश्वाभि धाम ॥4॥

व्योम  रूप  में  वही  व्याप्त  है  वह है परम पिता परमेश्वर ।
उपासना से वह मिलता है नर उद्यम करता जीवन भर॥4॥

8747
शुक्रः पवस्य देवेभ्यः सोम  दिवे  पृथिव्यै शं च प्रजायै ॥5॥

आनन्द का  वह श्रोत हमारा सबके सुख का रखता ध्यान ।
ऊर्मि उफन कर उठती-गिरती होता ब्रह्मानन्द का भान॥5॥

8748
दिवो धर्तासि शुक्रः पीयूषः सत्ये विधर्मन्वाजी पवस्व ॥6॥

वह अनन्त अमृत-मय आभा अतुलित बल का है स्वामी ।
वह ईश्वर ही ईष्ट - देव है जन-जन है उसका अनुगामी ॥6॥

8749
पवस्व   सोम  द्युम्नी  सुधारो  महामवीनामनु   पूर्व्यः ॥7॥

यश - वैभव  का  वह  स्वामी है सर्वो - परि है उसकी सत्ता ।
वह ही रक्षक है हम सबका उसका वैभव स्वयं थिरकता॥7॥

8750
नृभिर्येमानो जज्ञानः पूतः क्षरद्विश्वानि मन्द्रः स्वर्वित् ॥8॥

जो  भोले  हैं  अत्यन्त  सरल  हैं  वे प्रभु का दर्शन पाते हैं ।
दिव्य-शक्ति के श्रोत वही हैं प्रेम के पथ पर पहुँचाते हैं ॥8॥

8751
इन्दुः पुनानः प्रजामुराणः करद्विश्वानि द्रविणानि नः ॥9॥

परमेश्वर  प्रेरक  हैं  मेरे  शुभ - चिन्तक  हैं  वही  हमारे ।
आलोक प्रदान वही करते हैं वे हैं सबके सखा- सहारे॥9॥

8752
पवस्व सोम क्रत्वे दक्षायाश्वो न निक्तो वाजी धनाय ॥10॥

जैसे  सूरज  तमस  मिटाता  घर-घर  मैं  देता  उजियारा ।
वह ही सत्पथ पर ले जाता सुखमय होता जीवन सारा॥10॥

8753
तं  ते  सोतारो रसं मदाय पुनन्ति सोमं  महे  द्युम्नाय ॥11॥

प्रभु के विराट-रूप का साधक मन में ध्यान किया करता है।
यह श्रध्दा की गली अनोखी मानव सत्पथ पर चलता है॥11॥

8754
शिशुं जज्ञानं हरिं मृजन्ति पवित्रे सोमं देवेभ्य इन्दुम् ॥12॥

ऋतु आती  है और  जाती  है  हर  ऋतु  में  होती  उपासना ।
परमेश्वर की महिमा अद्भुत पूरी होती है मनो- कामना॥12॥

8755
इन्दुः    पविष्ट     चारुर्मदायापामुपस्थे     कविर्भगाय ॥13॥

सज्जन सत्कर्म किया करते हैं होता रहता उनका उत्थान ।
उनको यश-वैभव मिलता है करते हैं परमानन्द- पान॥13॥

8756
बिभर्ति  चार्विन्द्रस्य  नाम  येन  विश्वानि  वृत्रा जघान ॥14॥

सभी जीव  को  देह  प्राप्त  है  पर उद्यम  की  है भारी महिमा ।
कर्म-मार्ग मै ज्ञान भरा है यह है कर्म-योग की  गरिमा॥14॥

8757
पिबन्त्यस्य विश्वे देवासो गोभिः श्रीतस्य नृभिःसुतस्य॥15॥

उद्यम  ही  गुरु - वर  है  मेरा  बिन  प्रयास  है  जीवन  व्यर्थ ।
चिन्तन मनन निदिध्यासन से बन सकते हैं सभी समर्थ॥15॥

8758
प्र सुवानो अक्षा: सहस्त्रधारस्तिरः पवित्रं वि वारमव्यम् ॥16॥

जब   अज्ञान तमस  मिटता  है  होता  है  चहुँदिशि  उजियारा ।
तन-मन-जीवन उज्ज्वल होता बहती है आनन्द की धारा॥16॥

8759
स  वाज्यक्षा:  सहस्त्ररेता अद्भिर्मृजानो  गोभिः  श्रीणानः ॥17॥

जब साधक समाधान पाता है आनन्द - ऊर्मि मिल जाती है ।
वह अभिषिक्त हुआ जाता है तब उपासना फल पाती  है॥17॥

8760
प्र  सोम  याहीद्रस्य   कुक्षा नृभिर्येमानो अद्रिभिः  सुतः ॥18॥

जो ईश्वर का सान्निध्य चाहते वे लक्ष्य- मार्ग पर चलते हैं ।
परमेश्वर सबकी अभिलाषा हर युग में  पूरी  करते  हैं ॥18॥

8761
असर्जि  वाजी   तिरः पवित्रमिन्द्रा  सोमः सहत्रधारः ॥19॥

अति समर्थ है वह परमात्मा उसकी  बनी   नहीं परिभाषा ।
पर हम उसको पा सकते हैं वही समझता प्रेम की भाषा॥19॥

8762
अञ्जन्त्येनं मध्वो रसेनेन्द्राय वृष्ण इन्दुं मदाय ॥20॥

परमात्मा को कई उपासक ज्ञान-मार्ग से भी पाते हैं ।
वे आनन्द - लहर की महिमा में अवगाहन करते जाते हैं॥20॥ 

8763
देवेभ्यस्त्वा  वृथा  पाजसेSपो  वसानं  हरिं  मृजन्ति ॥21॥

विद्या बल यश वैभव पाना नहीं असम्भव किन्तु विरल है ।
ज्ञान-कर्म की युति हो जाए तो यह थोडा सहज-सरल है॥21॥

8764
इन्दुरिन्द्राय तोशते नि तोशते श्रीणन्नुग्रो रिणन्नपः ॥22॥

जैसी  मन  की अभिलाषा  है उसी  दिशा  में  हम  जाते  हैं ।
सुख अपने हाथों में ही है कर्मानुसार हम फल  पाते  हैं॥22॥         

Tuesday, 18 March 2014

सूक्त - 110

[ऋषि- त्र्यरुण त्रसदस्यु । देवता- पवमान सोम । छन्द- अनुष्टुप् - बृहती ।]

8765
पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः ।
द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे ॥1॥

ब्रह्म  परायण  नर  ही  सचमुच  परमेश्वर  को  पाता  है ।
वही वीर फिर दुष्ट-दलन कर देश को सबल बनाता है॥1॥

8766
अनु हि त्वा सुतं सोम मदामसि महे समर्यराज्ये ।
वाजॉ अभि पवमान प्र गाहसे ॥2॥

सर्व  समर्थ  वही  सत्ता  है  वह  ही  यश- वैभव  की  खान ।
कर्मानुरूप सुख- दुख मिलता है चिंतन से होता है भान॥2॥

8767
अजीजनो हि पवमान सूर्यं विधारे शक्मना पयः ।
गोजीरया रंहमाणः पुरन्ध्या ॥3॥

वह  दामिनी  प्रभा  का  दाता  बिना  श्रेय  के  सब  देता  है ।
गति-यति दोनों में माहिर है अपने-पन से अपना लेता है॥3॥

8768
अजीजनो अमृत मर्त्येष्वॉ ऋतस्य धर्मन्नमृतस्य चारुणः ।
सदासरो वाजमच्छा सनिष्यदत् ॥4॥

जन - जन उसके  लिए  बराबर  दृष्टि  सभी  पर  रहती  है ।
दया-दृष्टि हम पर भी रखना मन-मैना तुझ में रमती है ॥4॥

8769
अभ्यभि हि श्रवसा ततर्दिथोत्सं न कं चिज्जनपानमक्षितम्।
शर्याभिर्न भरमाणो गभस्त्योः ॥5॥

रवि की किरणें सब विकार को बिना-विलम्ब मिटा देती हैं ।
ऐसे ही सज्जन की भूलों को देव- शक्तियॉ  हर  लेती  हैं ॥5॥

8770
आदीं के चित्पश्यमानास आप्यं वसुरुचो दिव्या अभ्यनूषत् ।
वारं न देवः सविता व्यूर्णुते ॥6॥

रवि-किरणें हर जगह पहुँचतीं ज्ञानी कण-कण में प्रभु पाता है।
घट-घट में प्रभु दर्शन करके वह आनन्द से  भर  जाता  है ॥6॥

8771
त्वे सोम प्रथमा वृक्तबर्हिषो महे वाजाय श्रवसे धियं दधुः ।
स त्वं वीर वीर्याय चोदय ॥7॥

हे प्रभु हम सत्पथ पर चल-कर बन जायें धीर-वीर -उत्साही ।
तुम वरद-हस्त हम  पर  रखना  हम  हैं  चरैवेति के राही ॥7॥

8772
दिवः पीयूषं पूर्व्यं यदुक्थ्यं महो गाहाद्दिव आ निरधुक्षत ।
इन्द्रमभि जायमानं समस्वरन् ॥8॥

परमात्मा अमृत - स्वरूप है यह  जगती  है  उसका  रूप ।
सर्व-व्याप्त है वह परमेश्वर वह है अनन्त अद्भुत अनूप॥8॥

8773
अध यदिमे पवमान रोदसी इमा च विश्वा भुवनाभि मज्मना।
यूथे न निःष्ठा वृषभो वि तिष्ठसे ॥9॥

हम  सबको  अपना  बल  देकर  उसने  हमें  समर्थ  बनाया ।
फिर भी स्वाधीन रखा है उसने यह है बस उसकी ही माया ॥9॥

8774
सोमः  पुनानो  अव्यये  वारे  शिशुर्न  क्रीळन्पवमानो  अक्षा:  ।
सहस्त्रधारः शतवाज इन्दुः ॥10॥ 

वह अनन्त बल का स्वामी  है  सब  सद्गुण  का  वही  निधान ।
विविध - अनन्त  रूप  हैं  उसके  ऐसा है अपना भगवान ॥10॥

8775
एष   पुनानो   मधुमॉ   ऋतावेन्द्रायेन्दुः   पवते   स्वादुरूर्मिः । 
वाजसनिर्वरिवोविद्वयोधा: ॥11॥

जो  ज्ञान - कर्म  से  आगे  बढते  उनको  प्रभु  मिल  जाते  हैं ।
तब सबका प्यार उन्हें मिलता वे अनुपम आनन्द पाते हैं॥11॥

8776
स    पवस्व    सहमानः   पृतन्यून्त्सेधन्रक्षांस्यप    दुर्गहाणि ।  
स्वायुधः सासह्वान्त्सोम शत्रून् ॥12॥

जननी - जन्मभूमि रक्षित हो अतुलित आयुध का अन्वेषण हो ।
देश- भूमि यह  रहे सुरक्षित हर हाल में इसका संरक्षण हो ॥12॥