[ऋषि- पर्वत नारद । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]
8675
सखाय आ नि षीदत पुनानाय प्र गायत ।
शिशुं न यज्ञैः परि भूषत श्रिये ॥1॥
हे भक्त सखा तुम सब आओ पावन तन-मन के सँग आओ ।
यश-वैभव यदि तुम्हें चाहिए तो परमेश्वर के गुण गाओ॥1॥
8676
समी वत्सं न मातृभिः सृजता गयसाधनम् ।
देवाव्यं1 मदमभि द्विशवसम् ॥2॥
साधक के अपने भावों पर निर्भर होती है ध्यान - साधना ।
सज्जन तभी सफल होता है दुर्जन रखता अलग भावना॥2॥
8677
पुनाता दक्षसाधनं यथा शर्धाय वीतये ।
यथा मित्राय वरुणाय शंतमः ॥3॥
आलोक- देव सविता की पावन पृथ्वी परिक्रमा करती है ।
संतों की टोली भी वैसे ही प्रभु की परिक्रमा करती है ॥3॥
8678
अस्मभ्यं त्वा वसुविदमभि वाणीरनूषत ।
गोभिष्टे वर्णमभि वासयामसि॥4॥
परमेश्वर यश-वैभव देते नीति-निपुण हैं कृपा - निधान ।
चिंतन मनन निदिध्यासन में आते ही रहते हैं भगवान॥4॥
8679
स नो मदानां पत इन्दो देवप्सरा असि ।
सखेव सख्ये गातुवित्तमो भव ॥5॥
प्रभु सबको सन्मार्ग दिखाते हित-चिन्तन वे ही करते हैं ।
सख्य-भाव है उनके मन में सखा-सदृश ही वे लगते हैं॥5॥
8680
सनेमि कृध्य1स्मदा रक्षसं कं चिदत्रिणम् ।
अपादेवं द्वयुमंहो युयोधि नः ॥6॥
दुष्ट-दमन अति आवश्यक है हे प्रभु तुम ही रक्षा करना ।
मित्र-नेम को सदा निभाना मेरी विपदा तुम ही हरना॥6॥
8675
सखाय आ नि षीदत पुनानाय प्र गायत ।
शिशुं न यज्ञैः परि भूषत श्रिये ॥1॥
हे भक्त सखा तुम सब आओ पावन तन-मन के सँग आओ ।
यश-वैभव यदि तुम्हें चाहिए तो परमेश्वर के गुण गाओ॥1॥
8676
समी वत्सं न मातृभिः सृजता गयसाधनम् ।
देवाव्यं1 मदमभि द्विशवसम् ॥2॥
साधक के अपने भावों पर निर्भर होती है ध्यान - साधना ।
सज्जन तभी सफल होता है दुर्जन रखता अलग भावना॥2॥
8677
पुनाता दक्षसाधनं यथा शर्धाय वीतये ।
यथा मित्राय वरुणाय शंतमः ॥3॥
आलोक- देव सविता की पावन पृथ्वी परिक्रमा करती है ।
संतों की टोली भी वैसे ही प्रभु की परिक्रमा करती है ॥3॥
8678
अस्मभ्यं त्वा वसुविदमभि वाणीरनूषत ।
गोभिष्टे वर्णमभि वासयामसि॥4॥
परमेश्वर यश-वैभव देते नीति-निपुण हैं कृपा - निधान ।
चिंतन मनन निदिध्यासन में आते ही रहते हैं भगवान॥4॥
8679
स नो मदानां पत इन्दो देवप्सरा असि ।
सखेव सख्ये गातुवित्तमो भव ॥5॥
प्रभु सबको सन्मार्ग दिखाते हित-चिन्तन वे ही करते हैं ।
सख्य-भाव है उनके मन में सखा-सदृश ही वे लगते हैं॥5॥
8680
सनेमि कृध्य1स्मदा रक्षसं कं चिदत्रिणम् ।
अपादेवं द्वयुमंहो युयोधि नः ॥6॥
दुष्ट-दमन अति आवश्यक है हे प्रभु तुम ही रक्षा करना ।
मित्र-नेम को सदा निभाना मेरी विपदा तुम ही हरना॥6॥
मन में रहते, पथ दिखलाते।
ReplyDeleteआलोक- देव सविता की पावन पृथ्वी परिक्रमा करती है ।
ReplyDeleteसंतों की टोली भी वैसे ही प्रभु की परिक्रमा करती है ॥3॥
बहुत सुंदर भाव !
प्रभु का सानिध्य सदैव अनुभव करना चाहिए...
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