Monday, 24 March 2014

सूक्त - 104

[ऋषि- पर्वत नारद । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]

8675
सखाय आ नि षीदत पुनानाय प्र गायत ।
शिशुं न यज्ञैः परि भूषत श्रिये ॥1॥

हे भक्त सखा तुम सब आओ पावन तन-मन के सँग आओ ।
यश-वैभव यदि तुम्हें चाहिए तो परमेश्वर के गुण गाओ॥1॥

8676
समी वत्सं न मातृभिः सृजता गयसाधनम् ।
देवाव्यं1 मदमभि द्विशवसम् ॥2॥

साधक के अपने भावों पर निर्भर होती  है  ध्यान - साधना ।
सज्जन तभी सफल होता है दुर्जन रखता अलग भावना॥2॥

8677
पुनाता दक्षसाधनं यथा शर्धाय वीतये ।
यथा मित्राय वरुणाय शंतमः ॥3॥

आलोक- देव सविता की पावन पृथ्वी परिक्रमा करती है ।
संतों की टोली भी वैसे ही प्रभु की परिक्रमा करती  है ॥3॥

8678
अस्मभ्यं त्वा वसुविदमभि वाणीरनूषत ।
गोभिष्टे वर्णमभि वासयामसि॥4॥

परमेश्वर यश-वैभव देते  नीति-निपुण  हैं  कृपा - निधान ।
चिंतन मनन निदिध्यासन में आते ही रहते हैं भगवान॥4॥

8679
स नो मदानां पत इन्दो देवप्सरा असि ।
सखेव सख्ये गातुवित्तमो भव ॥5॥

प्रभु सबको सन्मार्ग दिखाते हित-चिन्तन वे  ही करते हैं ।
सख्य-भाव है उनके मन में सखा-सदृश ही वे लगते हैं॥5॥

8680
सनेमि कृध्य1स्मदा रक्षसं कं चिदत्रिणम् ।
अपादेवं द्वयुमंहो युयोधि नः ॥6॥

दुष्ट-दमन अति आवश्यक है हे प्रभु तुम ही रक्षा करना ।
मित्र-नेम को सदा निभाना मेरी विपदा तुम ही हरना॥6॥    

3 comments:

  1. मन में रहते, पथ दिखलाते।

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  2. आलोक- देव सविता की पावन पृथ्वी परिक्रमा करती है ।
    संतों की टोली भी वैसे ही प्रभु की परिक्रमा करती है ॥3॥
    बहुत सुंदर भाव !

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  3. प्रभु का सानिध्य सदैव अनुभव करना चाहिए...

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