Friday, 7 March 2014

सूक्त - 10

[ऋषि- यमी वैवस्वत- -यम वैवस्वत । देवता- यम-यमी । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

8866
ओ चित्सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू चिदर्वणं जगन्वान् ।
पितुर्नपातमा  दधीत  वेधा अधि  क्षमि  प्रतरं  दीध्यानः ॥1॥

हे यम इस निर्जन प्रदेश में हम  दोनों  सख्य-भाव अपनायें ।
प्रभु  की  इच्छा  से  तरणी से जग-सागर में डूबें-उतरायें॥1॥

8867
नते  सखा  सख्यं  वष्टयेतत्सलक्ष्मा  यद्विषुरूपा  भवाति ।
महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परि ख्यन्॥2॥

तुम सगी बहन हो मेरी फिर यह कैसे  सम्भव  हो  सकता है ।
हे  भगिनी  हम  सूर्य-पूत  हैं  यह मुझे भयावह लगता है ॥2॥

8868
उशन्ति  घा  ते  अमृतास  एतदेकस्य  चित्त्यजसं  मर्त्यस्य ।
नि ते मनो मनसि धाय्यस्मे जन्युःपतिस्तन्व1मा विविश्या:॥3॥

यद्यपि ऐसा सम-भोग त्याज्य है पर विपदा में क्या मर्यादा ।
ऐसे ही देव-शक्ति भी जीती सत्य यही  तुम  नर  मैं मादा॥3॥

8869
न  यत्पुरा  चकृमा  कध्द  नूनमृता  वदन्तो  अनृतं  रपेम ।
गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिःपरमं जामि तन्नौ॥4॥

सत्य-मार्ग का अनुयायी हूँ यह बात सूक्ष्म है अति महीन है ।
हम  दोनों  में  एक  योग्य  है और  दूसरा  वीर्य - हींन  है ॥4॥

8870
गर्भे  नु  नौ  जनिता  दम्पती  कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः ।
नकिरस्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथिवी उत द्यौः॥5॥

परमेश्वर  ने  हम  दोनों  को  पति - पत्नी  की  तरह  बनाया ।
प्रभु जी का यह नियम अटल है उसका नियम उसी की माया॥5॥

8871
को  अस्य  वेद  प्रथमस्याह्नः  क  ईं  ददर्श  क इह प्र वोचत् ।
बृहन्मित्रस्य वरुणस्य धाम कदु ब्रव आहनो वीच्या नृन्॥6॥

जो  हम  दोनों  को  पहचाने  कोई  भी  ऐसा  कहॉ  और  है ।
मित्र - वरुण  का धाम है यह यहॉ पतन का नहीं ठौर है ॥6॥

8872
यमस्य मा यम्यं1 काम आगन्त्समाने योनौ सहशेय्याय ।
जायेव  पत्ये  तन्वं  रिरिच्यां  वि चिद्वृहेव रथ्येव चक्रा ॥7॥

पति - पत्नी  की  तरह आज हम तृप्ति-सहित ही पायें भोग ।
हम दोनों रथ के दो पहिए हम पायें सुख-कर सम-भोग॥7॥

8873
न तिष्ठन्ति न नि मिषन्त्येते देवानां स्पश  इह  ये चरन्ति ।
अन्येन  मदाहनो  याहि  तूयं तेन  वि  वृह रथ्येव  चक्रा ॥8॥

दिन  के  बाद  रात आती  है और  पुनः  फिर  दिन आता है ।
अपना समय गँवाओ मत तुम जाओ वर लो जो भाता है॥8॥

8874
रात्रीभिरस्मा  अहभिर्दशस्येत्सूर्यस्य  चक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात् ।
ददिवा पृथिव्या मिथुना सबन्धू यमीर्यमस्य बिभृयादजामि॥9॥

दिवा - रात्रि  दोनों  अपने  हैं बस मिल जाए सहयोग तुम्हारा ।
मुझे  एक  सन्तान  चाहिए  अमर  रहे  यह   प्रेम  हमारा ॥9॥

8875
आ  घा  ता  गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि।
उप  बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्॥10॥

पति यदि  वीर्य-हींन  हो  तब  तो  पत्नी उसको तज सकती है ।
किसी और सँग जा सकती है सुख से जीवन जी सकतीहै॥10॥

8876
किं भ्रातासद्यदनाथं भवाति किमु स्वसा यन्निरृतिर्निगच्छात्।
काममूता  बह्वे3  तद्रपामि  तन्वा  मे तन्वं1 सं पिपृग्धि ॥11॥

अब  कहीं  और  मैं  क्यों  जाऊँ  तुम  क्यों  मुझे  भगाते  हो ।
बहुत  सुन  लिया  मैंने  पर  मेरे  मन  को तुम भाते हो ॥11॥

8877
न वा उ ते तन्वा तन्वं1सं पपृच्यां पापमाहुर्यःस्वसारं निगच्छात्।
अन्येन मत्प्रमुदःक क्ल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत्॥12॥

मैं  तो  वीर्य- हींन  हूँ  अब  तुम  किसी और का करो वरण ।
जहॉ रहो खुश रहो सदा तुम करो समाप्त यहीं यह रण॥12॥

8878
बतो   बतासि   यम   नैव   ते   मनो   हृदयं   चाविदाम ।
अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परि ष्वजाते लिबुजेव वृक्षम्॥13॥

तुम  हृदय-हींन  हो  गए  हो  यम  मुझसे  हो  गई भारी-भूल ।
वृक्ष लता को आश्रय देता पर मुझे मिला है सब प्रतिकूल॥13॥ 

8879
अन्यमू  षु  त्वं  यम्यन्य  उ  त्वां  परि  ष्वजाते  लिबुजेव  वृक्षम् ।
तस्य त्वा त्वं मन इच्छा स वा तवाधा कृणुष्व संविदं सुभद्राम्॥14॥

लता  वृक्ष  का आश्रय  पाती  तुम  भी  जाओ आश्रय  पाओ ।
प्रीत-डोर में बँधी रहो तुम जीवन-भर सम्बन्ध निभाओ॥14॥    
         
        

5 comments:

  1. मेरा ज्ञान वेदों की और भी बढ़ने लगा है .......आभार

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  2. नये देवों के बारे में रोचक जानकारी।

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  3. जीवन को दिशा देती सूक्त

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  4. महिला दिवस पर विशेष सूक्त...बधाईयां...

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  5. आपने अनुवाद की शुद्धता बनाये रखी -साधुवाद!
    मनुष्य विकास के उषाकाल में प्रकृति प्रेरित सृजन और संतति संवहन की अपरिहार्यता
    इस संवाद में दिखती है और अगम्यागम्य के प्रति नैतिक आग्रह भी !

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