[ऋषि--त्रित आप्त्य । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8820
प्र ते यक्षि प्र त इयर्मि मन्म भुवो यथा वन्द्यो नो हवेषु ।
धन्वन्निव प्रपा असि त्वमग्न इयक्षवे पूरवे प्रत्न राजन्॥1॥
अग्नि - देव की इच्छा से ही अविरल होते हैं अनुष्ठान ।
सब सत्कर्म निरन्तर करते वे रखते हैं सबका ध्यान ॥1॥
8821
यं त्वा जनासो अभि सञ्चरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ।
दूतो देवानामसि मर्त्यानामन्तर्महॉश्चरसि रोचनेन ॥2॥
परमेश्वर तुम ही प्रणम्य हो एक - मात्र हो तुम्हीं सहारा ।
सबको आकर्षित करता है अति तेजस्वी रूप तुम्हारा ॥2॥
8822
शिशुं न त्वा जेन्यं वर्धयन्ती माता बिभर्ति सचनस्यमाना ।
धनोरधि प्रवता यासि हर्यञ्जिगीषसे पशुरिवावसृष्टः ॥3॥
सभी प्यार करते हैं तुमको आओ चिदाकाश के द्वारा ।
तुम जल थल नभ में रहते हो नर-तन में है वास तुम्हारा॥3॥
8823
मूरा अमूर न वयं चिकित्वो महित्वमग्ने त्वमङ्ग वित्से ।
शये वव्रिश्चरति जिह्वयादन्रेरिह्यते युवतिं विश्पतिः सन्॥4॥
हम नहीं जानते तेरी महिमा तुम्हीं बताओ और समझाओ।
हम हैं प्रजा तुम्हारी भगवन पावन-प्रसाद देते जाओ ॥4॥
8824
कूचिज्जायते सनयासु नव्यो वने तस्थौ पलितो धूमकेतुः ।
अस्नातापो वृषभो न प्र वेति सचेतसो यं प्रणयन्त मर्ता:॥5॥
स्वतः प्रकट हो जाते हो तुम सूखी - समिधाओं के द्वारा ।
सर्व-व्याप्त हो फिर भी तो सान्निध्य चाहिए हमें तुम्हारा॥5॥
8825
तनूत्यजेव तस्करा वनर्गू रशनाभिर्दशाभिरभ्यधीताम् ।
इयं ते अग्ने नव्यसी मनीषा युक्ष्वा रथं न शुचयद्भिरङ्गैः॥6॥
विषय - डोर से बँधे हुए हैं कैसे मिटे मोह का बन्धन ।
तुम ही बेडा पार लगाओ अभय रहे मेरा यह तन - मन ॥6॥
8826
ब्रह्म च ते जातवेदो नमश्चेयं च गीः सदमिद्वर्धनी भूत् ।
रक्षाणो अग्ने तनयानि तोका रक्षोत नस्तन्वो3 अप्रयुच्छन्॥7॥
स्तुति का अर्घ्य तुम्हीं स्वीकारो तेरे दर्शन की है अभिलाषा ।
तुम वरद-हस्त मुझ पर रखना यह अन्तर्मन की है भाषा॥7॥
8820
प्र ते यक्षि प्र त इयर्मि मन्म भुवो यथा वन्द्यो नो हवेषु ।
धन्वन्निव प्रपा असि त्वमग्न इयक्षवे पूरवे प्रत्न राजन्॥1॥
अग्नि - देव की इच्छा से ही अविरल होते हैं अनुष्ठान ।
सब सत्कर्म निरन्तर करते वे रखते हैं सबका ध्यान ॥1॥
8821
यं त्वा जनासो अभि सञ्चरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ।
दूतो देवानामसि मर्त्यानामन्तर्महॉश्चरसि रोचनेन ॥2॥
परमेश्वर तुम ही प्रणम्य हो एक - मात्र हो तुम्हीं सहारा ।
सबको आकर्षित करता है अति तेजस्वी रूप तुम्हारा ॥2॥
8822
शिशुं न त्वा जेन्यं वर्धयन्ती माता बिभर्ति सचनस्यमाना ।
धनोरधि प्रवता यासि हर्यञ्जिगीषसे पशुरिवावसृष्टः ॥3॥
सभी प्यार करते हैं तुमको आओ चिदाकाश के द्वारा ।
तुम जल थल नभ में रहते हो नर-तन में है वास तुम्हारा॥3॥
8823
मूरा अमूर न वयं चिकित्वो महित्वमग्ने त्वमङ्ग वित्से ।
शये वव्रिश्चरति जिह्वयादन्रेरिह्यते युवतिं विश्पतिः सन्॥4॥
हम नहीं जानते तेरी महिमा तुम्हीं बताओ और समझाओ।
हम हैं प्रजा तुम्हारी भगवन पावन-प्रसाद देते जाओ ॥4॥
8824
कूचिज्जायते सनयासु नव्यो वने तस्थौ पलितो धूमकेतुः ।
अस्नातापो वृषभो न प्र वेति सचेतसो यं प्रणयन्त मर्ता:॥5॥
स्वतः प्रकट हो जाते हो तुम सूखी - समिधाओं के द्वारा ।
सर्व-व्याप्त हो फिर भी तो सान्निध्य चाहिए हमें तुम्हारा॥5॥
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तनूत्यजेव तस्करा वनर्गू रशनाभिर्दशाभिरभ्यधीताम् ।
इयं ते अग्ने नव्यसी मनीषा युक्ष्वा रथं न शुचयद्भिरङ्गैः॥6॥
विषय - डोर से बँधे हुए हैं कैसे मिटे मोह का बन्धन ।
तुम ही बेडा पार लगाओ अभय रहे मेरा यह तन - मन ॥6॥
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ब्रह्म च ते जातवेदो नमश्चेयं च गीः सदमिद्वर्धनी भूत् ।
रक्षाणो अग्ने तनयानि तोका रक्षोत नस्तन्वो3 अप्रयुच्छन्॥7॥
स्तुति का अर्घ्य तुम्हीं स्वीकारो तेरे दर्शन की है अभिलाषा ।
तुम वरद-हस्त मुझ पर रखना यह अन्तर्मन की है भाषा॥7॥
आप क्लिष्ट श्लोकों का भावानुवाद सहज हिंदी दोहों में कर के अत्यंत पुण्य का कार्य कर रही हैं...बधाईयां...
ReplyDeleteस्वतः प्रकट हो जाते हो तुम सूखी - समिधाओं के द्वारा ।
ReplyDeleteसर्व-व्याप्त हो फिर भी तो सान्निध्य चाहिए हमें तुम्हारा॥5॥
जो सब जगह है.. फिर भी नजर नहीं आता..वही ती जानने योग्य है
आपका ये कार्य सराहनीय है...बेहद सुंदर।।।
ReplyDeleteबहुत ही प्यारा अनुवाद..
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