Sunday, 16 March 2014

सूक्त - 114

[ऋषि- कश्यप मारीच । देवता- पवमान सोम । छन्द- पंक्ति ।]

8795
य इन्द्रोः पवमानस्यानु धामान्यक्रमीत् ।
तमाहुः सुप्रजा इति यस्ते सोमाविधन्मन इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥1॥

जब  कोई  अनुष्ठान  करता  है  उपासना  में  रत  रहता  है ।
तब नित-नूतन अनुभव होते मन में प्रभु-प्रेम उमडता है॥1॥

8796
ऋषे मंत्रकृतां स्तोमैः कश्यपोद्वर्धयन्गिरः ।
सोमं नमस्य राजानं यो जज्ञे वीरुधां पतिरिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥2॥

परमेश्वर तुम ही प्रणम्य हो तुम हमें ज्ञान का दे  दो  दान ।
वाणी के वैभव के द्वारा हे प्रभु  मुझे  सिखा  दो  ध्यान ॥2॥

8797
सप्त दिशो नानासूर्या: सप्त होतार ऋत्विजः ।
देवा आदित्या ये सप्त तेभिःसोमाभि रक्ष न इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥3॥

दिव्य- दृष्टि  मिल जाती उसको जो मनुज मुक्त  हो  जाता है ।
सात-लोक शुभ- फल देते हैं मन-वृन्दावन बन  जाता  है॥3॥

8798
यत्ते राजञ्छृतं हविस्तेन सोमाभि रक्ष नः ।
अरातीवा मा नस्तारीन्मो च नःकिं चनाममदिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥4॥

हे   परमेश्वर  तुम   रक्षा  करना  सतत  सफल  हो  अनुष्ठान ।
वरद-हस्त तुम हम पर रखना मिले मुक्ति हे कृपा-निधान॥4॥

॥ इति नवमं मण्डलम् समाप्तम् ॥     

3 comments:

  1. रंगों से सराबोर होली की शुभकामनायें...

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  2. मन-वृन्दावन बन जाता है

    मन मोह लिया इस पंक्ति ने।

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  3. होली की शुभ कामनाएं ...बहुत सुंदर अनुवाद है आपका

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