[ऋषि- त्रिशिरा त्वाष्ट्र । देवता- आपो देवता । छन्द- गायत्री ।]
8857
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे ॥1॥
हे वरुण - देव तुम ही वरेण्य हो जल ने ही सुख-श्रोत गढे हैं ।
तुमसे पोषक - रस पाकर हम श्रेष्ठ - कर्म की ओर बढे हैं॥1॥
8858
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः॥2॥
औषधियॉ फल - फूल अन्न भी पोषण जल से ही पाते हैं ।
मातृ-सदृश होती जल-धारा शिशु-समान हम पल जाते हैं ॥2॥
8859
तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।आपो जनयथा च नः॥3॥
जीवन - दायी रस जल से है जल के हैं अनगिन आयाम ।
जगती का वह पोषण करता यह सचमुच है सुधा-समान॥3॥
8860
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु नः॥4॥
सुख - शान्ति - सतत जो देती हो प्रभु देना ऐसी जल - धारा ।
रोग कष्ट और प्यास बुझा-कर हर ले जग का संकट सारा ॥4॥
8861
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम् । अपो याचामि भेषजम् ॥5॥
जल है सबका आश्रय - दाता वह हम सबकी है अभिलाषा ।
औषधि में जो रस बन जाती वह है मेरे मन की भाषा ॥5॥
8862
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।अग्निं च विश्वशम्भुवम्॥6॥
जल और अग्नि युग्म हैं दोनों औषधि - रस तब ही बनता है ।
जल - विद्युत से सुख - साधन है जीव-जगत जिससे पलता है ॥6॥
8863
आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वे3 मम । ज्योक्च सूर्यं दृशे ॥7॥
औषधि से तन-मन पोषित हो जग को आरोग्य-लाभ मिल जाए ।
सौ - बरस सूर्य को करूँ नमन दीर्घ - आयु हर मानव पाए ॥7॥
8864
इदमापः प्र वहतं यत्किं च दुरितं मयि ।
यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेप उतानृतम्॥8॥
दोषों को दूर भगा दो भगवन मन की पीडा कर दो दूर ।
हे जल-धारा मातृ-सदृश हो अपना-पन देना भर-पूर॥8॥
8865
आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि ।
पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥9॥
जल - धारा तुम आश्रय देना अविरल देना पोषक - रस ।
सान्निध्य-लाभ का गौरव देना वरद-हस्त रख देना बस॥9॥
8857
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे ॥1॥
हे वरुण - देव तुम ही वरेण्य हो जल ने ही सुख-श्रोत गढे हैं ।
तुमसे पोषक - रस पाकर हम श्रेष्ठ - कर्म की ओर बढे हैं॥1॥
8858
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः॥2॥
औषधियॉ फल - फूल अन्न भी पोषण जल से ही पाते हैं ।
मातृ-सदृश होती जल-धारा शिशु-समान हम पल जाते हैं ॥2॥
8859
तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।आपो जनयथा च नः॥3॥
जीवन - दायी रस जल से है जल के हैं अनगिन आयाम ।
जगती का वह पोषण करता यह सचमुच है सुधा-समान॥3॥
8860
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु नः॥4॥
सुख - शान्ति - सतत जो देती हो प्रभु देना ऐसी जल - धारा ।
रोग कष्ट और प्यास बुझा-कर हर ले जग का संकट सारा ॥4॥
8861
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम् । अपो याचामि भेषजम् ॥5॥
जल है सबका आश्रय - दाता वह हम सबकी है अभिलाषा ।
औषधि में जो रस बन जाती वह है मेरे मन की भाषा ॥5॥
8862
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।अग्निं च विश्वशम्भुवम्॥6॥
जल और अग्नि युग्म हैं दोनों औषधि - रस तब ही बनता है ।
जल - विद्युत से सुख - साधन है जीव-जगत जिससे पलता है ॥6॥
8863
आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वे3 मम । ज्योक्च सूर्यं दृशे ॥7॥
औषधि से तन-मन पोषित हो जग को आरोग्य-लाभ मिल जाए ।
सौ - बरस सूर्य को करूँ नमन दीर्घ - आयु हर मानव पाए ॥7॥
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इदमापः प्र वहतं यत्किं च दुरितं मयि ।
यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेप उतानृतम्॥8॥
दोषों को दूर भगा दो भगवन मन की पीडा कर दो दूर ।
हे जल-धारा मातृ-सदृश हो अपना-पन देना भर-पूर॥8॥
8865
आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि ।
पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥9॥
जल - धारा तुम आश्रय देना अविरल देना पोषक - रस ।
सान्निध्य-लाभ का गौरव देना वरद-हस्त रख देना बस॥9॥
जल ही जीवन है...तन मन को निर्मल करता सरस बनाता धरती को..
ReplyDeleteजल ही सारे स्वादों का स्रोत है, सुन्दर अनुवाद
ReplyDeleteजल की उपयोगिता दर्शाते सूक्त...
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