Saturday, 8 March 2014

सूक्त - 9

[ऋषि- त्रिशिरा त्वाष्ट्र । देवता- आपो देवता  । छन्द- गायत्री ।]

8857
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे ॥1॥

हे  वरुण - देव  तुम  ही  वरेण्य  हो  जल  ने  ही  सुख-श्रोत गढे हैं ।
तुमसे  पोषक - रस  पाकर  हम  श्रेष्ठ - कर्म  की  ओर  बढे  हैं॥1॥

8858
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव  मातरः॥2॥

औषधियॉ  फल - फूल  अन्न  भी  पोषण  जल  से  ही  पाते  हैं ।
मातृ-सदृश  होती  जल-धारा  शिशु-समान  हम  पल जाते हैं ॥2॥

8859
तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।आपो जनयथा च नः॥3॥

जीवन - दायी  रस  जल  से  है  जल  के  हैं  अनगिन  आयाम ।
जगती  का  वह  पोषण  करता  यह सचमुच है सुधा-समान॥3॥

8860
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु नः॥4॥

सुख - शान्ति - सतत  जो  देती  हो  प्रभु  देना  ऐसी  जल - धारा ।
रोग कष्ट और प्यास बुझा-कर  हर  ले  जग  का  संकट  सारा ॥4॥

8861
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम् । अपो याचामि भेषजम् ॥5॥

जल  है  सबका  आश्रय - दाता  वह  हम  सबकी  है  अभिलाषा ।
औषधि  में  जो  रस  बन  जाती  वह  है  मेरे  मन  की  भाषा ॥5॥

8862
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।अग्निं च विश्वशम्भुवम्॥6॥

जल  और  अग्नि  युग्म  हैं  दोनों  औषधि - रस  तब  ही  बनता  है ।
जल - विद्युत  से  सुख - साधन  है  जीव-जगत जिससे पलता है ॥6॥

8863
आपः पृणीत  भेषजं  वरुथं  तन्वे3  मम । ज्योक्च  सूर्यं  दृशे ॥7॥ 

औषधि से तन-मन पोषित हो जग को आरोग्य-लाभ मिल जाए ।
सौ - बरस  सूर्य  को  करूँ  नमन  दीर्घ - आयु हर मानव पाए ॥7॥

8864
इदमापः प्र वहतं यत्किं च दुरितं मयि ।
यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेप उतानृतम्॥8॥

दोषों को दूर भगा दो भगवन मन की  पीडा कर  दो  दूर ।
हे जल-धारा मातृ-सदृश हो अपना-पन देना भर-पूर॥8॥

8865
आपो   अद्यान्वचारिषं     रसेन   समगस्महि ।
पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥9॥

जल - धारा  तुम  आश्रय  देना अविरल  देना  पोषक - रस ।
सान्निध्य-लाभ का गौरव देना वरद-हस्त रख देना बस॥9॥    
  

3 comments:

  1. जल ही जीवन है...तन मन को निर्मल करता सरस बनाता धरती को..

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  2. जल ही सारे स्वादों का स्रोत है, सुन्दर अनुवाद

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  3. जल की उपयोगिता दर्शाते सूक्त...

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