[ऋषि- त्रित आप्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]
8661
क्राणा शिशुर्महीनां हिन्वन्नृतस्य दीधितिम् ।
विश्वा परि प्रिया भुवदध द्विता ॥1॥
महिमा - वान वही परमेश्वर सत् - प्रकाश को फैलाता है ।
प्रेम - सेतु निर्मित करता है कवच वही बन जाता है॥1॥
8662
उप त्रितस्य पाष्यो3रभक्त यद् गुहा पदम् ।
यज्ञस्य सप्त धामभिरध प्रियम् ॥2॥
प्रकृति-पुरुष की उपस्थिति में सत रज तम हर जगह समाया ।
तभी अचानक प्रभु के मन में जग रचने का विचार आया ॥2॥
8663
त्रीणि त्रितस्य धारया पृष्ठेष्वेरया रयिम् ।
मिमीते अस्य योजना वि सुक्रतुः ॥3॥
सत रज तम से ही निर्मित है अद्भुत है जगती की रचना ।
कर्म-योग का मार्ग अनूठा कठिन बहुत है इससे बचना ॥3॥
8664
जज्ञानं सप्त मातरो वेधामशासत श्रिये ।
अयं ध्रुवो रणीयां चिकेत यत् ॥4॥
सप्त - धार से बना सोम यह तन - मन की शक्ति बढाता है ।
धन का अनुकूलन करता है यश - वैभव का वह ज्ञाता है ॥4॥
8665
अस्य व्रते सजोषसो विश्वे देवासो अद्रुहः ।
स्पार्हा भवन्ति रन्तयो जुषन्त यत् ॥5॥
राग - द्वेष दोनों से बच - कर जो करते हैं प्रभु का ध्यान ।
वे जग - सागर से तर जाते जग-हित का होता अभियान ॥5॥
8666
यमी गर्भमृतावृधो दृशे चारुमजीजनन् ।
कविं मंहिष्ठमध्वरे पुरुस्पृहम् ॥6॥
प्रभु सर्जक पालक पोषक हैं वे रखते हैं सबका ध्यान ।
उपासना की राह अनोखी साधक को मिलता सम्मान ॥6॥
8667
समीचीने अभि त्मना यह्वी ऋतस्य मातरा ।
तन्वाना यज्ञमानुषग्यदञ्जते ॥7॥
जग की रचना अति अद्भुत है अति सुन्दर है यह वसुन्धरा ।
निज कर्मानुरूप ही प्राणी पाता है भोग परा- अपरा ॥7॥
8668
क्रत्वा शुक्रेभिरक्षभिरृणोरप व्रजं दिवः ।
हिन्वन्नृतस्य दीधितिं प्राध्वरे ॥8॥
प्रभु मेरा अज्ञान मिटाओ मुझको सत्पथ पर ले आओ ।
अति-तेजस्वी रूप तुम्हारा मुझे लुभाता पास बुलाओ॥8॥
8661
क्राणा शिशुर्महीनां हिन्वन्नृतस्य दीधितिम् ।
विश्वा परि प्रिया भुवदध द्विता ॥1॥
महिमा - वान वही परमेश्वर सत् - प्रकाश को फैलाता है ।
प्रेम - सेतु निर्मित करता है कवच वही बन जाता है॥1॥
8662
उप त्रितस्य पाष्यो3रभक्त यद् गुहा पदम् ।
यज्ञस्य सप्त धामभिरध प्रियम् ॥2॥
प्रकृति-पुरुष की उपस्थिति में सत रज तम हर जगह समाया ।
तभी अचानक प्रभु के मन में जग रचने का विचार आया ॥2॥
8663
त्रीणि त्रितस्य धारया पृष्ठेष्वेरया रयिम् ।
मिमीते अस्य योजना वि सुक्रतुः ॥3॥
सत रज तम से ही निर्मित है अद्भुत है जगती की रचना ।
कर्म-योग का मार्ग अनूठा कठिन बहुत है इससे बचना ॥3॥
8664
जज्ञानं सप्त मातरो वेधामशासत श्रिये ।
अयं ध्रुवो रणीयां चिकेत यत् ॥4॥
सप्त - धार से बना सोम यह तन - मन की शक्ति बढाता है ।
धन का अनुकूलन करता है यश - वैभव का वह ज्ञाता है ॥4॥
8665
अस्य व्रते सजोषसो विश्वे देवासो अद्रुहः ।
स्पार्हा भवन्ति रन्तयो जुषन्त यत् ॥5॥
राग - द्वेष दोनों से बच - कर जो करते हैं प्रभु का ध्यान ।
वे जग - सागर से तर जाते जग-हित का होता अभियान ॥5॥
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यमी गर्भमृतावृधो दृशे चारुमजीजनन् ।
कविं मंहिष्ठमध्वरे पुरुस्पृहम् ॥6॥
प्रभु सर्जक पालक पोषक हैं वे रखते हैं सबका ध्यान ।
उपासना की राह अनोखी साधक को मिलता सम्मान ॥6॥
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समीचीने अभि त्मना यह्वी ऋतस्य मातरा ।
तन्वाना यज्ञमानुषग्यदञ्जते ॥7॥
जग की रचना अति अद्भुत है अति सुन्दर है यह वसुन्धरा ।
निज कर्मानुरूप ही प्राणी पाता है भोग परा- अपरा ॥7॥
8668
क्रत्वा शुक्रेभिरक्षभिरृणोरप व्रजं दिवः ।
हिन्वन्नृतस्य दीधितिं प्राध्वरे ॥8॥
प्रभु मेरा अज्ञान मिटाओ मुझको सत्पथ पर ले आओ ।
अति-तेजस्वी रूप तुम्हारा मुझे लुभाता पास बुलाओ॥8॥
सत रज तम से ही निर्मित है अद्भुत है जगती की रचना ।
ReplyDeleteकर्म-योग का मार्ग अनूठा कठिन बहुत है इससे बचना ॥3॥
त्रिगुणी यह सृष्टि कितनी सुंदर है..
त्रिगुण बँधा यह विश्व अनोखा।
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