Wednesday, 26 March 2014

सूक्त - 102

[ऋषि- त्रित आप्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]

8661
क्राणा शिशुर्महीनां हिन्वन्नृतस्य दीधितिम् ।
विश्वा परि प्रिया भुवदध द्विता ॥1॥

महिमा - वान  वही  परमेश्वर  सत् - प्रकाश को फैलाता है ।
प्रेम - सेतु  निर्मित  करता  है  कवच  वही बन जाता है॥1॥

8662
उप त्रितस्य पाष्यो3रभक्त यद् गुहा पदम् ।
यज्ञस्य सप्त धामभिरध प्रियम् ॥2॥

प्रकृति-पुरुष की उपस्थिति में सत रज तम हर जगह समाया ।
तभी अचानक प्रभु के मन में जग रचने का  विचार आया ॥2॥

8663
त्रीणि त्रितस्य धारया पृष्ठेष्वेरया रयिम् ।
मिमीते अस्य योजना वि सुक्रतुः ॥3॥

सत  रज  तम  से  ही  निर्मित  है  अद्भुत  है  जगती  की रचना ।
कर्म-योग  का  मार्ग अनूठा  कठिन  बहुत  है  इससे बचना ॥3॥

8664
जज्ञानं सप्त मातरो वेधामशासत श्रिये ।
अयं ध्रुवो रणीयां चिकेत यत् ॥4॥

सप्त - धार  से  बना  सोम  यह  तन - मन  की  शक्ति  बढाता है ।
धन  का  अनुकूलन  करता  है  यश - वैभव का वह ज्ञाता है ॥4॥

8665
अस्य व्रते सजोषसो विश्वे देवासो अद्रुहः ।
स्पार्हा  भवन्ति रन्तयो जुषन्त यत् ॥5॥

राग - द्वेष  दोनों  से  बच - कर  जो  करते  हैं  प्रभु  का  ध्यान ।
वे  जग - सागर से तर जाते जग-हित का होता अभियान ॥5॥

8666
यमी गर्भमृतावृधो दृशे चारुमजीजनन् ।
कविं मंहिष्ठमध्वरे पुरुस्पृहम् ॥6॥

प्रभु  सर्जक  पालक  पोषक  हैं  वे  रखते  हैं  सबका  ध्यान ।
उपासना की  राह अनोखी साधक  को मिलता सम्मान ॥6॥

8667
समीचीने अभि त्मना यह्वी ऋतस्य मातरा ।
तन्वाना यज्ञमानुषग्यदञ्जते ॥7॥

जग की रचना अति अद्भुत है अति सुन्दर है यह  वसुन्धरा ।
निज  कर्मानुरूप  ही  प्राणी  पाता  है  भोग  परा- अपरा ॥7॥

8668
क्रत्वा शुक्रेभिरक्षभिरृणोरप व्रजं दिवः ।
हिन्वन्नृतस्य  दीधितिं    प्राध्वरे ॥8॥

प्रभु  मेरा अज्ञान  मिटाओ  मुझको  सत्पथ  पर  ले आओ ।
अति-तेजस्वी रूप तुम्हारा  मुझे  लुभाता  पास  बुलाओ॥8॥

2 comments:

  1. सत रज तम से ही निर्मित है अद्भुत है जगती की रचना ।
    कर्म-योग का मार्ग अनूठा कठिन बहुत है इससे बचना ॥3॥

    त्रिगुणी यह सृष्टि कितनी सुंदर है..

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  2. त्रिगुण बँधा यह विश्व अनोखा।

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