[ऋषि- चक्षुमानव । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]
8687
इन्द्रमच्छ सुता इमे वृषणं यन्तु हरयः ।
श्रुष्टी जातास इन्दवः स्वर्विदः ॥1॥
परब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है सत्कर्म मार्ग पर वह रहता है ।
उसको उद्योगी अति प्रिय है वह सबकी विपदा हरता है॥1॥
8688
अयं भराय सानसिरिन्द्राय पवते सुतः ।
सोमो जैत्रस्य चेतति यथा विदे ॥2॥
परम ईष्ट है वह परमात्मा पूजनीय है वह प्रणम्य है ।
वह सज्जन के साथ खडा है वही परम है वह वरेण्य है॥2॥
8689
अस्येदिन्द्रो मदेष्वा ग्राभं गृभ्णीत सानसिम् ।
वज्रं च वृषणं भरत्समप्सुजित् ॥3॥
प्रभु ही हैं सबके सुख- दाता सबसे प्रेम वही करते हैं ।
कर्म-योग के राही को वे अपने साथ सदा रखते हैं॥3॥
8690
प्र धन्वा सोम जागृविरिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव ।
द्युमन्तं शुष्ममा भरा स्वर्विदम् ॥4॥
जो प्राणी उद्यम करता है प्रभु उसको सब कुछ देते हैं ।
सबको सत्पथ पर प्रेरित करते सज्जन को अपना लेते हैं॥4॥
8691
इन्द्राय वृषणं मदं पवस्व विश्वदर्शतः ।
सहस्त्रयामा पथिकृद्विचक्षणः ॥5॥
कर्म मार्ग पर हर मानव को अपना अभीष्ट मिल जाता है ।
सान्निध्य उसे प्रभु का मिलता है मन में आनन्द समाता है॥5॥
8692
अस्मभ्यं गातुवित्तमो देवेभ्यो मधुमत्तमः ।
सहस्त्रं याहि पथिभिः कनिक्रदत् ॥6॥
प्रभु पथ को आलोकित करता भक्तों का करता बेडा-पार ।
निराकार है वह परमेश्वर फिर भी आता है कई बार ॥6॥
8693
पवस्व देववीतय इन्दो धाराभिरोजसा ।
आ कलशं मधुमान्त्सोम नः सदः॥7॥
वह परमात्मा परमानन्द है वह ही है रस से भर-पूर ।
भक्तों को दर्शन देता है यद्यपि रहता है बहुत दूर ॥7॥
8694
तव द्रप्सा उदप्रुत इन्द्रं मदाय वावृधुः ।
त्वां देवासो अमृताय कं पपुः ॥8॥
सर्वोत्तम रस है ब्रह्मानन्द उद्योगी इस रस को पाता है ।
योगी को मिलता अमृत-रस कर्मयोग यह समझाता है॥8॥
8695
आ नः सुतास इन्दवः पुनाना धावता रयिम् ।
वृष्टिद्यावो रीत्यापः स्वर्विदः ॥9॥
अनन्त शक्तियॉ क्रीडा करतीं पृथ्वी पर होती बरसात ।
ज्ञानी के मन में रस वर्षा हो सकती है अकस्मात ॥9॥
8696
सोमः पुनान ऊर्मिणाव्यो वारं वि धावति ।
अग्रे वाचः पवमानः कनिक्रदत् ॥10॥
वह परमेश्वर गुण - ग्राही है उसने सब देखा - परखा है ।
हम सबके अत्यंत निकट है कर्मानुरूप लेखा-जोखा है॥10॥
8697
धीभिर्हिन्वन्ति वाजिनं वने क्रीळन्तमत्यविम् ।
अभि त्रिपृष्ठं मतयः समस्वरन् ॥11॥
अति समर्थ है वह परमात्मा नहीं है कोई समय का बन्धन ।
देश-काल से परे है वह प्रभु ऐसा अद्भुत है आनन्द-घन॥11॥
8698
असर्जि कलशॉ अभि मीळ्हे सप्तिर्न वाजयुः ।
पुनानो वाचं जनयन्नसिष्यदत् ॥12॥
वैसे परमात्मा सर्व-व्याप्त है पर निर्मल मन में रहता है ।
कर्म-योग की राह चलो तुम वह हम सबसे कहता है॥12॥
8699
पवते हर्यतो हरिरति ह्वरांसि रंह्या ।
अभ्यर्षन्त्स्तोतृभ्यो वीरवद्यशः॥13॥
कर्म-वीर ही पा सकता है उसका सरल सहज व्यवहार ।
वह अवगुण को हर लेता है सद्-गति का देता उपहार॥13॥
8700
अया पवस्व देवयुर्मधोर्धारा असृक्षत ।
रेभन्पवित्रं पर्येषि विश्वतः॥14॥
पावन मन वाला मानव ही पा सकता है प्रभु का प्यार ।
हे परमेश्वर सब प्राणी को दे देना समुचित व्यवहार॥14॥
8687
इन्द्रमच्छ सुता इमे वृषणं यन्तु हरयः ।
श्रुष्टी जातास इन्दवः स्वर्विदः ॥1॥
परब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है सत्कर्म मार्ग पर वह रहता है ।
उसको उद्योगी अति प्रिय है वह सबकी विपदा हरता है॥1॥
8688
अयं भराय सानसिरिन्द्राय पवते सुतः ।
सोमो जैत्रस्य चेतति यथा विदे ॥2॥
परम ईष्ट है वह परमात्मा पूजनीय है वह प्रणम्य है ।
वह सज्जन के साथ खडा है वही परम है वह वरेण्य है॥2॥
8689
अस्येदिन्द्रो मदेष्वा ग्राभं गृभ्णीत सानसिम् ।
वज्रं च वृषणं भरत्समप्सुजित् ॥3॥
प्रभु ही हैं सबके सुख- दाता सबसे प्रेम वही करते हैं ।
कर्म-योग के राही को वे अपने साथ सदा रखते हैं॥3॥
8690
प्र धन्वा सोम जागृविरिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव ।
द्युमन्तं शुष्ममा भरा स्वर्विदम् ॥4॥
जो प्राणी उद्यम करता है प्रभु उसको सब कुछ देते हैं ।
सबको सत्पथ पर प्रेरित करते सज्जन को अपना लेते हैं॥4॥
8691
इन्द्राय वृषणं मदं पवस्व विश्वदर्शतः ।
सहस्त्रयामा पथिकृद्विचक्षणः ॥5॥
कर्म मार्ग पर हर मानव को अपना अभीष्ट मिल जाता है ।
सान्निध्य उसे प्रभु का मिलता है मन में आनन्द समाता है॥5॥
8692
अस्मभ्यं गातुवित्तमो देवेभ्यो मधुमत्तमः ।
सहस्त्रं याहि पथिभिः कनिक्रदत् ॥6॥
प्रभु पथ को आलोकित करता भक्तों का करता बेडा-पार ।
निराकार है वह परमेश्वर फिर भी आता है कई बार ॥6॥
8693
पवस्व देववीतय इन्दो धाराभिरोजसा ।
आ कलशं मधुमान्त्सोम नः सदः॥7॥
वह परमात्मा परमानन्द है वह ही है रस से भर-पूर ।
भक्तों को दर्शन देता है यद्यपि रहता है बहुत दूर ॥7॥
8694
तव द्रप्सा उदप्रुत इन्द्रं मदाय वावृधुः ।
त्वां देवासो अमृताय कं पपुः ॥8॥
सर्वोत्तम रस है ब्रह्मानन्द उद्योगी इस रस को पाता है ।
योगी को मिलता अमृत-रस कर्मयोग यह समझाता है॥8॥
8695
आ नः सुतास इन्दवः पुनाना धावता रयिम् ।
वृष्टिद्यावो रीत्यापः स्वर्विदः ॥9॥
अनन्त शक्तियॉ क्रीडा करतीं पृथ्वी पर होती बरसात ।
ज्ञानी के मन में रस वर्षा हो सकती है अकस्मात ॥9॥
8696
सोमः पुनान ऊर्मिणाव्यो वारं वि धावति ।
अग्रे वाचः पवमानः कनिक्रदत् ॥10॥
वह परमेश्वर गुण - ग्राही है उसने सब देखा - परखा है ।
हम सबके अत्यंत निकट है कर्मानुरूप लेखा-जोखा है॥10॥
8697
धीभिर्हिन्वन्ति वाजिनं वने क्रीळन्तमत्यविम् ।
अभि त्रिपृष्ठं मतयः समस्वरन् ॥11॥
अति समर्थ है वह परमात्मा नहीं है कोई समय का बन्धन ।
देश-काल से परे है वह प्रभु ऐसा अद्भुत है आनन्द-घन॥11॥
8698
असर्जि कलशॉ अभि मीळ्हे सप्तिर्न वाजयुः ।
पुनानो वाचं जनयन्नसिष्यदत् ॥12॥
वैसे परमात्मा सर्व-व्याप्त है पर निर्मल मन में रहता है ।
कर्म-योग की राह चलो तुम वह हम सबसे कहता है॥12॥
8699
पवते हर्यतो हरिरति ह्वरांसि रंह्या ।
अभ्यर्षन्त्स्तोतृभ्यो वीरवद्यशः॥13॥
कर्म-वीर ही पा सकता है उसका सरल सहज व्यवहार ।
वह अवगुण को हर लेता है सद्-गति का देता उपहार॥13॥
8700
अया पवस्व देवयुर्मधोर्धारा असृक्षत ।
रेभन्पवित्रं पर्येषि विश्वतः॥14॥
पावन मन वाला मानव ही पा सकता है प्रभु का प्यार ।
हे परमेश्वर सब प्राणी को दे देना समुचित व्यवहार॥14॥
हमारे हर कर्म का साक्षी है परमेश्वर।
ReplyDeleteप्रेरणादायक विचार...
ReplyDeleteजो प्राणी उद्यम करता है प्रभु उसको सब कुछ देते हैं ।
ReplyDeleteसबको सत्पथ पर प्रेरित करते सज्जन को अपना लेते हैं॥4॥
...कर्म ही जीवन है...अनुपम प्रस्तुति...