[ऋषि- रेभसूनू काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- अनुष्टुप् ।]
8636
अभी नवन्ते अद्रुहः प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् ।
वत्सं न पूर्व आयुनि जातं रिहन्ति मातरः॥1॥
कर्म-योग कमनीय बहुत है प्रेम-भाव से मिलता है ।
सत्पथ के अभिलाषी जन को कर्म-योग ही फलता है॥1॥
8637
पुनान इन्दवा भर सोम द्विबर्हसं रयिम् ।
त्वं वसूनि पुष्यसि विश्वानि दाशुषो गृहे॥2॥
पावन-स्वरूप वह परमात्मा ही सुख सन्मति सम्मान है ।
पर-हित ही सबसे ऊपर है सुख-दुख दोनों अभिराम है॥2॥
8638
त्वं धियं मनोयुजं सृजा वृष्टिं न तन्यतुः ।
त्वं वसूनि पार्थिवा दिव्या च सोम पुष्यसि॥3॥
प्रभु मन में उदारता भर दो ज्यों बादल देते बरसात ।
कर्मयोग का सँग अमर हो बस बन जाए बातों से बात॥3॥
8639
परि ते जिग्युषो यथा धारा सुतस्य धावति ।
रंहमाणा व्य1व्ययं वारं वाजीव सानसिः॥4॥
जो जल के भीतर घुसते हैं वापस वही तैर-कर आते ।
जो प्रभु का सामीप्य चाहते मनुज वही परमानंद पाते॥4॥
8640
क्रत्वे दक्षाय नः कवे पवस्व सोम धारया ।
इन्द्राय पातवे सुतो मित्राय वरुणाय च॥5॥
हे पावन पूजनीय परमेश्वर दया- दृष्टि का देना दान ।
कर्मयोग को समझें जानें हमको भी देना आत्म-ज्ञान॥5॥
8641
पवस्व वाजसातमः पवित्रे धारया सुतः ।
इन्द्राय सोम विष्णवे देवेभ्यो मधुमत्तमः॥6॥
वह अद्भुत विभूति का स्वामी सज्जन को देता आनन्द ।
ज्ञान-कर्म दोनों ही पथ पर प्रभु देते हैं परमानन्द॥6॥
8642
त्वां रिहन्ति मातरो हरिं पवित्रे अद्रुहः ।
वत्सं जातं न धेनवः पवमान विधर्मणि॥7॥
प्रेम के भूखे हैं परमेश्वर वह प्रभु तो है प्रेम-स्वरूप ।
राग-द्वेष से जो ऊपर है वह पाता प्रभु-प्रेम अनूप॥7॥
8643
पवमान महि श्रवश्चित्रेभिर्यासि रश्मिभिः ।
शर्धन्तमांसि जिघ्नसे विश्वानि दाशुषो गृहे॥8॥
वह प्रभु यश-वैभव का स्वामी अपना-पन देता भर-पूर ।
वह सबके अन्तर्मन से अज्ञान-तमस को करता दूर॥8॥
8644
त्वं द्यां च महिव्रत पृथिवीं चाति जभ्रिषे ।
प्रति द्रापिममुञ्चथा:पवमान महित्वना॥9॥
पृथ्वी पर ही कितना वैभव है यह भी है उनका अनुदान ।
नेति-नेति कह चुप हैं श्रुतियॉ अद्भुत होगा वह भगवान॥9॥
8636
अभी नवन्ते अद्रुहः प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् ।
वत्सं न पूर्व आयुनि जातं रिहन्ति मातरः॥1॥
कर्म-योग कमनीय बहुत है प्रेम-भाव से मिलता है ।
सत्पथ के अभिलाषी जन को कर्म-योग ही फलता है॥1॥
8637
पुनान इन्दवा भर सोम द्विबर्हसं रयिम् ।
त्वं वसूनि पुष्यसि विश्वानि दाशुषो गृहे॥2॥
पावन-स्वरूप वह परमात्मा ही सुख सन्मति सम्मान है ।
पर-हित ही सबसे ऊपर है सुख-दुख दोनों अभिराम है॥2॥
8638
त्वं धियं मनोयुजं सृजा वृष्टिं न तन्यतुः ।
त्वं वसूनि पार्थिवा दिव्या च सोम पुष्यसि॥3॥
प्रभु मन में उदारता भर दो ज्यों बादल देते बरसात ।
कर्मयोग का सँग अमर हो बस बन जाए बातों से बात॥3॥
8639
परि ते जिग्युषो यथा धारा सुतस्य धावति ।
रंहमाणा व्य1व्ययं वारं वाजीव सानसिः॥4॥
जो जल के भीतर घुसते हैं वापस वही तैर-कर आते ।
जो प्रभु का सामीप्य चाहते मनुज वही परमानंद पाते॥4॥
8640
क्रत्वे दक्षाय नः कवे पवस्व सोम धारया ।
इन्द्राय पातवे सुतो मित्राय वरुणाय च॥5॥
हे पावन पूजनीय परमेश्वर दया- दृष्टि का देना दान ।
कर्मयोग को समझें जानें हमको भी देना आत्म-ज्ञान॥5॥
8641
पवस्व वाजसातमः पवित्रे धारया सुतः ।
इन्द्राय सोम विष्णवे देवेभ्यो मधुमत्तमः॥6॥
वह अद्भुत विभूति का स्वामी सज्जन को देता आनन्द ।
ज्ञान-कर्म दोनों ही पथ पर प्रभु देते हैं परमानन्द॥6॥
8642
त्वां रिहन्ति मातरो हरिं पवित्रे अद्रुहः ।
वत्सं जातं न धेनवः पवमान विधर्मणि॥7॥
प्रेम के भूखे हैं परमेश्वर वह प्रभु तो है प्रेम-स्वरूप ।
राग-द्वेष से जो ऊपर है वह पाता प्रभु-प्रेम अनूप॥7॥
8643
पवमान महि श्रवश्चित्रेभिर्यासि रश्मिभिः ।
शर्धन्तमांसि जिघ्नसे विश्वानि दाशुषो गृहे॥8॥
वह प्रभु यश-वैभव का स्वामी अपना-पन देता भर-पूर ।
वह सबके अन्तर्मन से अज्ञान-तमस को करता दूर॥8॥
8644
त्वं द्यां च महिव्रत पृथिवीं चाति जभ्रिषे ।
प्रति द्रापिममुञ्चथा:पवमान महित्वना॥9॥
पृथ्वी पर ही कितना वैभव है यह भी है उनका अनुदान ।
नेति-नेति कह चुप हैं श्रुतियॉ अद्भुत होगा वह भगवान॥9॥
कर्म-योग कमनीय बहुत है प्रेम-भाव से मिलता है ।
ReplyDeleteसत्पथ के अभिलाषी जन को कर्म-योग ही फलता है॥1॥
कर्मयोग ही साधना है..