Friday, 28 March 2014

सूक्त - 100

[ऋषि- रेभसूनू काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- अनुष्टुप् ।]

8636
अभी नवन्ते  अद्रुहः प्रियमिन्द्रस्य  काम्यम् ।
वत्सं न पूर्व आयुनि जातं रिहन्ति मातरः॥1॥

कर्म-योग  कमनीय  बहुत  है  प्रेम-भाव  से  मिलता  है ।
सत्पथ के अभिलाषी जन को कर्म-योग ही फलता है॥1॥

8637
पुनान इन्दवा  भर  सोम  द्विबर्हसं  रयिम् ।
त्वं वसूनि पुष्यसि विश्वानि दाशुषो गृहे॥2॥

पावन-स्वरूप वह परमात्मा ही सुख सन्मति सम्मान है ।
पर-हित ही सबसे ऊपर है सुख-दुख दोनों अभिराम है॥2॥

8638
त्वं  धियं  मनोयुजं  सृजा  वृष्टिं  न  तन्यतुः ।
त्वं वसूनि पार्थिवा दिव्या च सोम पुष्यसि॥3॥

प्रभु  मन  में  उदारता  भर  दो ज्यों  बादल  देते  बरसात ।
कर्मयोग का सँग अमर हो बस बन जाए बातों से बात॥3॥

8639
परि ते जिग्युषो यथा धारा सुतस्य धावति ।
रंहमाणा व्य1व्ययं वारं वाजीव सानसिः॥4॥

जो जल  के  भीतर  घुसते  हैं  वापस  वही  तैर-कर आते ।
जो प्रभु का सामीप्य चाहते मनुज वही परमानंद पाते॥4॥

8640
क्रत्वे  दक्षाय नः कवे पवस्व सोम धारया ।
इन्द्राय पातवे सुतो मित्राय वरुणाय च॥5॥

हे  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  दया- दृष्टि  का  देना  दान ।
कर्मयोग को समझें जानें हमको भी देना आत्म-ज्ञान॥5॥

8641
पवस्व  वाजसातमः  पवित्रे  धारया  सुतः ।
इन्द्राय सोम विष्णवे देवेभ्यो मधुमत्तमः॥6॥

वह अद्भुत  विभूति का स्वामी सज्जन को देता आनन्द ।
ज्ञान-कर्म दोनों ही पथ  पर  प्रभु  देते  हैं  परमानन्द॥6॥

8642
त्वां  रिहन्ति  मातरो  हरिं  पवित्रे  अद्रुहः ।
वत्सं जातं न धेनवः पवमान विधर्मणि॥7॥

प्रेम के  भूखे  हैं  परमेश्वर  वह  प्रभु  तो  है  प्रेम-स्वरूप ।
राग-द्वेष से जो  ऊपर  है  वह  पाता  प्रभु-प्रेम  अनूप॥7॥

8643
पवमान  महि  श्रवश्चित्रेभिर्यासि  रश्मिभिः ।
शर्धन्तमांसि जिघ्नसे विश्वानि दाशुषो गृहे॥8॥

वह प्रभु यश-वैभव का स्वामी अपना-पन देता भर-पूर ।
वह सबके अन्तर्मन से अज्ञान-तमस को करता दूर॥8॥

8644
त्वं  द्यां  च  महिव्रत  पृथिवीं  चाति जभ्रिषे ।
प्रति द्रापिममुञ्चथा:पवमान महित्वना॥9॥

पृथ्वी पर ही कितना वैभव है यह  भी  है  उनका अनुदान ।
नेति-नेति कह चुप हैं श्रुतियॉ अद्भुत होगा वह भगवान॥9॥
 

 

1 comment:

  1. कर्म-योग कमनीय बहुत है प्रेम-भाव से मिलता है ।
    सत्पथ के अभिलाषी जन को कर्म-योग ही फलता है॥1॥

    कर्मयोग ही साधना है..

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