[ऋषि- विवस्वान् आदित्य । देवता- हविर्धान । छन्द- त्रिष्टुप् - जगती ।]
8898
युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्वि श्लोक एतु पथ्येव सूरेः ।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥1॥
हे प्रभु मन वाणी अर्पित है हमको वाणी का दो वरदान ।
दिव्य-ज्ञान को हम भी जानें वेद-ऋचाओं का दो ज्ञान॥1॥
8899
यमे इव यतमाने यदैतं प्र वा भरन्मानुषा देवयन्तः ।
आ सीदतं स्वमु लोकं विदाने स्वासस्थे भवतमिन्दवे नः॥2॥
मन - वाणी हो सही - दिशा में तभी ध्येय-पथ मिलता है ।
सँग-सँग रहते हैं प्रभु भी आनन्द-कमल तब खिलता है ॥2॥
8900
पञ्च पदानि रुपो अन्वरोहं चतुष्पदीमन्वेमि व्रतेन ।
अक्षरेण प्रति मिम एतामृतस्य नाभावधि सं पुनामि॥3॥
सत्कर्म करे साधक फिर भी वह पञ्च-कोष का रखे ध्यान ।
वाणी के चार पदों को जाने सृष्टि-नेम का भी हो भान ॥3॥
8901
देवेभ्यः कमवृणीत मृत्युं प्रजायै कममृतं नावृणीत ।
बृहस्पतिं यज्ञमकृण्वत ऋषिं प्रियां यमस्तन्वं1 प्रारिरेचीत्॥4॥
मौत - अमरता कर्मों से है बस इसीलिए है कर्म - योग ।
देह की सुन्दर रचना करता और देता है विविध भोग ॥4॥
8902
सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवतन्नृतम्।
उभे इदस्योभयस्य राजत उभे यतेते उभयस्य पपुष्यतः॥5॥
वेद - ऋचा है अन्तर्यात्रा कर्म - योग का है आख्यान ।
ज्ञान-कर्म की समुचित व्याख्या मन-वाणी का है अभियान॥5॥
8898
युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्वि श्लोक एतु पथ्येव सूरेः ।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥1॥
हे प्रभु मन वाणी अर्पित है हमको वाणी का दो वरदान ।
दिव्य-ज्ञान को हम भी जानें वेद-ऋचाओं का दो ज्ञान॥1॥
8899
यमे इव यतमाने यदैतं प्र वा भरन्मानुषा देवयन्तः ।
आ सीदतं स्वमु लोकं विदाने स्वासस्थे भवतमिन्दवे नः॥2॥
मन - वाणी हो सही - दिशा में तभी ध्येय-पथ मिलता है ।
सँग-सँग रहते हैं प्रभु भी आनन्द-कमल तब खिलता है ॥2॥
8900
पञ्च पदानि रुपो अन्वरोहं चतुष्पदीमन्वेमि व्रतेन ।
अक्षरेण प्रति मिम एतामृतस्य नाभावधि सं पुनामि॥3॥
सत्कर्म करे साधक फिर भी वह पञ्च-कोष का रखे ध्यान ।
वाणी के चार पदों को जाने सृष्टि-नेम का भी हो भान ॥3॥
8901
देवेभ्यः कमवृणीत मृत्युं प्रजायै कममृतं नावृणीत ।
बृहस्पतिं यज्ञमकृण्वत ऋषिं प्रियां यमस्तन्वं1 प्रारिरेचीत्॥4॥
मौत - अमरता कर्मों से है बस इसीलिए है कर्म - योग ।
देह की सुन्दर रचना करता और देता है विविध भोग ॥4॥
8902
सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवतन्नृतम्।
उभे इदस्योभयस्य राजत उभे यतेते उभयस्य पपुष्यतः॥5॥
वेद - ऋचा है अन्तर्यात्रा कर्म - योग का है आख्यान ।
ज्ञान-कर्म की समुचित व्याख्या मन-वाणी का है अभियान॥5॥
गहरी अभिव्यक्तियाँ..
ReplyDeleteमन - वाणी हो सही - दिशा में तभी ध्येय-पथ मिलता है ।
ReplyDeleteसँग-सँग रहते हैं प्रभु भी आनन्द-कमल तब खिलता है ॥2॥
बहुत सुंदर संदेश.. आभार !
अप्रतिम । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteसकारात्मक सूक्त...
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