Thursday 6 March 2014

सूक्त - 11

[ऋषि- हविर्धान आङ्गि । देवता- अग्नि । छन्द- जगती- त्रिष्टुप् ।]

8880
वृषा वृष्णे दुदुहे दोहसा दिवः पयांसि यह्वो अदितेरदाभ्यः ।
विश्वं स वेद वरुणो यथा धिया स यज्ञियो यजतु यज्ञियॉ ऋतून्॥1॥

पावन पावक से पावस पाते पृथ्वी पर आती हरियाली ।
खिल उठती है धरा वृष्टि से हरिया जाती है हर डाली॥1॥

8881
रपद्गन्धर्वीरप्या  च  योषणा  नदस्य  नादे  परि पातु मे मनः।
इष्टस्य मध्ये अदितिर्नि धातु नो भ्राता नो ज्येष्ठःप्रथमो वि वोचति॥2॥

घन-गर्जन मन को ठीक रखे सत्पथ पर प्रभु तुम पहुँचाना ।
सत्कर्मों  में  लगा  रहे  मन  तुम  मेरे  प्रेरक  बन जाना ॥2॥

8882
सो  चिन्नु  भद्रा  क्षुमती  यशस्वत्युषा उवास मनवे स्वर्वती ।
यदीमुशन्तमुशतामनु क्रतुमग्निं होतारं विदथाय जीजनन्॥3॥

उषा - काल  है  पावन - अवसर  जब होती है पूजा-अनुष्ठान ।
हे  अग्नि - देव आवाहन  है आओ  ग्रहण करो हवि-धान ॥3॥

8883
अध त्यं द्रप्सं विभ्वं विचक्षणं विराभरदिषितः श्येनो अध्वरे ।
यदी विशो  वृणते दस्ममार्या अग्निं होतारमध धीरजायत॥4॥

अग्नि श्याम-रँग  में  दिखता  है  तभी श्येन वह कहलाता है ।
सज्जन के सामीप्य-लाभ  सम  मंत्रोच्चारण  वर-दाता है॥4॥ 

8884
सदासि  रण्वो  यवसेव  पुष्यते  होत्राभिरग्ने मनुषः स्वध्वरः।
विप्रस्य वा यच्छशमान उक्थ्यं1 वाजं ससवॉ उपयासि भूरिभिः॥5॥

अग्नि-देव  के  विविध  रूप हैं सब सुन्दर सब  ही मन-मोहक ।
बिना अग्नि के यज्ञ असंभव अग्नि-देव  जगती  के पोषक॥5॥

8885
उदीरय  पितरा  जार  आ भगमियक्षति  हर्यतो  हृत्त  इष्यति ।
विवक्ति वह्निःस्वपस्यते मखस्तविष्यते असुरो वेपते मती॥6॥

अग्नि - देव  अति  अद्भुत  हैं  अति - तेजस्वी  उनका  रूप ।
दुष्टों  को  वे  दण्डित  करते  हैं  अग्नि - देव  भूपों के भूप॥6॥

8886
यस्ते अग्ने सुमतिं मर्तो अक्षत्सहसः सूनो अति स प्र शृण्वे ।
इषं दधानो वहमानो अश्वैरा स द्युमॉ अमवान्भूषति  द्यून् ॥7॥

हे अग्नि-देव तुम रक्षा करना तुम धन से सबका घर भरना ।
यश-वैभव देना तुम प्रभुवर वरद-हस्त हम पर भी रखना॥7॥

8887
यदग्न   एषा   समितिर्भवाति   देवी   देवेषु   यजता   यजत्र ।
रत्ना च यद्विभजासि स्वधामो भागं नो अत्र वसुमन्तं वीतात्॥8॥

अग्नि-देव सबको हवि देते जगती को मिलता है हवि-भोग ।
वसुधा  ही  कुटुम्ब है अपना बस यह ही तो है कर्म-योग ॥8॥

8888
श्रुधी नो अग्ने सदने सधस्थे युक्ष्वा रथममृतस्य द्रवित्नुम् ।
आ नो वह रोदसी देवपुत्रे  माकिर्देवानामप भूरिह स्या: ॥9॥ 

हे अग्नि-देव तुम ही प्रणम्य हो कर लो मेरी पूजा स्वीकार।
सब देवों के सँग-सँग आओ तुम हो सब गुण के आगार॥9॥     

1 comment:

  1. प्रकृति चक्र, सब लगे हुये हैं।

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