Sunday, 9 March 2014

सूक्त - 8

[ऋषि- त्रिशिरा त्वाष्ट्र । देवता- अग्नि- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

8848
प्र केतुना  बृहता  यात्यग्निरा  रोदसी   वृषभो   रोरवीति ।
दिवश्चिदन्तॉ  उपमॉ  उदानळपामुपस्थे  महिषो  ववर्ध॥1॥

हे अग्नि-देव तुम ही प्रणम्य हो जल-थल-नभ है तेरा धाम।
नभ में तुम गर्जन  करते हो तडित- दामिनी तेरा नाम ॥1॥

8849
मुमोद गर्भो वृषभः ककुद्यानस्त्रेमा वत्सः शिमीवॉ अरावीत् ।
स देवतात्युद्यतानि कृण्वन्त्स्वेषु क्षयेषु प्रथमो जिगाति॥2॥

अग्न-देव आनन्दित हो कर सत्पथ पर चलना सिखलाते हैं।
वे सबको सन्मार्ग दिखाते आत्मीय-भाव से अपनाते हैं ॥2॥

8850
आ  यो  मूर्धानं  पित्रोररब्ध   न्यध्वरे   दधिरे   सूरो   अर्णः ।
अस्य पत्मन्नरुषीरश्वबुध्ना ऋतस्य योनौ तन्वो जुषन्त॥3॥

गति के माध्यम अग्नि - देव हैं वे हैं जीव - जगत का सार ।
वे सबको भोजन पहुँचाते हैं वे  ही  हैं  जगती के आधार ॥3॥

8851
उषउषो   हि   वसो   अग्रमेषि  त्वं   यमयोरभवो   विभावा ।
ऋताय  सप्त  दधिषे  पदानि  जनयन्मित्रं तन्वे3 स्वायै ॥4॥

उषा - काल  में  ध्यान-साधना  जागृत आत्मायें  करती हैं ।
भोर गुलाबी अति अद्भुत है रवि रश्मि रक्तिमा रँगती  हैं ॥4॥

8852
भुवश्चक्षुर्मह  ऋतस्य  गोपा  भुवो  वरुणो  यदृताय  वेषि ।
भुवो अपां नपाज्जातवेदो भुवो दूतो यस्य हव्यं जुजोषः ॥5॥

अग्नि - देव आनन्द - रूप  हैं  वे  ही  तन-मन  के रक्षक हैं ।
वे  सबको  भोजन  देते  हैं  वे ही हविषा के भी भक्षक हैं ॥5॥

8853
भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता यत्रा नियुद्भिः सचसे शिवाभिः ।
दिवि मूर्धानं दधिषे स्वर्षां जिह्वामग्ने चकृषे हव्यवाहम् ॥6॥

नभ में शुभ-दायी किरणों-से जग-कल्याण तुम्हीं करते हो ।
मेघों के तुम ही मालिक हो धन-धान से घर को भरते हो॥6॥

8854
अस्य त्रितः क्रतुना  वव्रे अन्तरिच्छन्धीतिं पितुरेवैः परस्य ।
सचस्यमानः पित्रोरुपस्थे  जामि ब्रुवाण आयुधानि वेति ॥7॥

मानव - जीवन  यज्ञ - सदृश  है आओ  कर लें पर - उपकार ।
पर आयुध अति आवश्यक है जीवन-समर में रण है सार॥7॥

8855
स   पित्राण्यायुधानि   विद्वानिन्द्रेषित   आप्तयो  अभ्ययुध्यत् ।
त्रिशीर्षाणं सप्तरश्मिं जघन्वान्त्वाष्ट्रस्य चिन्निःससृजे त्रितो गा:॥8॥

पावन  पावक  से  पावस  पाते धरती  में आती  है  हरियाली ।
अन्न फूल-फल सबको मिलता झूम उठती है डाली-डाली ॥8॥

8856
भूरिदिन्द्र   उदिनक्षन्तमोजोSवाभिनत्   सत्पतिर्मन्यमानम् ।
त्वाष्ट्रस्य चिद्विश्वरूपस्य गोनामाचक्राणस्त्रीणि शीर्षा परा वर्क्॥9॥

पृथ्वी  पर  पावस  आता  है  होती  है  रिम - झिम  बरसात ।
अन्न-धान सबको मिलता है खिल उठता है पल्लव-पात ॥9॥      

1 comment:

  1. वेदों का काव्यात्मक आनन्द लिये अनुवाद।

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