[ऋषि- त्रिशिरा त्वाष्ट्र । देवता- अग्नि- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8848
प्र केतुना बृहता यात्यग्निरा रोदसी वृषभो रोरवीति ।
दिवश्चिदन्तॉ उपमॉ उदानळपामुपस्थे महिषो ववर्ध॥1॥
हे अग्नि-देव तुम ही प्रणम्य हो जल-थल-नभ है तेरा धाम।
नभ में तुम गर्जन करते हो तडित- दामिनी तेरा नाम ॥1॥
8849
मुमोद गर्भो वृषभः ककुद्यानस्त्रेमा वत्सः शिमीवॉ अरावीत् ।
स देवतात्युद्यतानि कृण्वन्त्स्वेषु क्षयेषु प्रथमो जिगाति॥2॥
अग्न-देव आनन्दित हो कर सत्पथ पर चलना सिखलाते हैं।
वे सबको सन्मार्ग दिखाते आत्मीय-भाव से अपनाते हैं ॥2॥
8850
आ यो मूर्धानं पित्रोररब्ध न्यध्वरे दधिरे सूरो अर्णः ।
अस्य पत्मन्नरुषीरश्वबुध्ना ऋतस्य योनौ तन्वो जुषन्त॥3॥
गति के माध्यम अग्नि - देव हैं वे हैं जीव - जगत का सार ।
वे सबको भोजन पहुँचाते हैं वे ही हैं जगती के आधार ॥3॥
8851
उषउषो हि वसो अग्रमेषि त्वं यमयोरभवो विभावा ।
ऋताय सप्त दधिषे पदानि जनयन्मित्रं तन्वे3 स्वायै ॥4॥
उषा - काल में ध्यान-साधना जागृत आत्मायें करती हैं ।
भोर गुलाबी अति अद्भुत है रवि रश्मि रक्तिमा रँगती हैं ॥4॥
8852
भुवश्चक्षुर्मह ऋतस्य गोपा भुवो वरुणो यदृताय वेषि ।
भुवो अपां नपाज्जातवेदो भुवो दूतो यस्य हव्यं जुजोषः ॥5॥
अग्नि - देव आनन्द - रूप हैं वे ही तन-मन के रक्षक हैं ।
वे सबको भोजन देते हैं वे ही हविषा के भी भक्षक हैं ॥5॥
8853
भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता यत्रा नियुद्भिः सचसे शिवाभिः ।
दिवि मूर्धानं दधिषे स्वर्षां जिह्वामग्ने चकृषे हव्यवाहम् ॥6॥
नभ में शुभ-दायी किरणों-से जग-कल्याण तुम्हीं करते हो ।
मेघों के तुम ही मालिक हो धन-धान से घर को भरते हो॥6॥
8854
अस्य त्रितः क्रतुना वव्रे अन्तरिच्छन्धीतिं पितुरेवैः परस्य ।
सचस्यमानः पित्रोरुपस्थे जामि ब्रुवाण आयुधानि वेति ॥7॥
मानव - जीवन यज्ञ - सदृश है आओ कर लें पर - उपकार ।
पर आयुध अति आवश्यक है जीवन-समर में रण है सार॥7॥
8855
स पित्राण्यायुधानि विद्वानिन्द्रेषित आप्तयो अभ्ययुध्यत् ।
त्रिशीर्षाणं सप्तरश्मिं जघन्वान्त्वाष्ट्रस्य चिन्निःससृजे त्रितो गा:॥8॥
पावन पावक से पावस पाते धरती में आती है हरियाली ।
अन्न फूल-फल सबको मिलता झूम उठती है डाली-डाली ॥8॥
8856
भूरिदिन्द्र उदिनक्षन्तमोजोSवाभिनत् सत्पतिर्मन्यमानम् ।
त्वाष्ट्रस्य चिद्विश्वरूपस्य गोनामाचक्राणस्त्रीणि शीर्षा परा वर्क्॥9॥
पृथ्वी पर पावस आता है होती है रिम - झिम बरसात ।
अन्न-धान सबको मिलता है खिल उठता है पल्लव-पात ॥9॥
8848
प्र केतुना बृहता यात्यग्निरा रोदसी वृषभो रोरवीति ।
दिवश्चिदन्तॉ उपमॉ उदानळपामुपस्थे महिषो ववर्ध॥1॥
हे अग्नि-देव तुम ही प्रणम्य हो जल-थल-नभ है तेरा धाम।
नभ में तुम गर्जन करते हो तडित- दामिनी तेरा नाम ॥1॥
8849
मुमोद गर्भो वृषभः ककुद्यानस्त्रेमा वत्सः शिमीवॉ अरावीत् ।
स देवतात्युद्यतानि कृण्वन्त्स्वेषु क्षयेषु प्रथमो जिगाति॥2॥
अग्न-देव आनन्दित हो कर सत्पथ पर चलना सिखलाते हैं।
वे सबको सन्मार्ग दिखाते आत्मीय-भाव से अपनाते हैं ॥2॥
8850
आ यो मूर्धानं पित्रोररब्ध न्यध्वरे दधिरे सूरो अर्णः ।
अस्य पत्मन्नरुषीरश्वबुध्ना ऋतस्य योनौ तन्वो जुषन्त॥3॥
गति के माध्यम अग्नि - देव हैं वे हैं जीव - जगत का सार ।
वे सबको भोजन पहुँचाते हैं वे ही हैं जगती के आधार ॥3॥
8851
उषउषो हि वसो अग्रमेषि त्वं यमयोरभवो विभावा ।
ऋताय सप्त दधिषे पदानि जनयन्मित्रं तन्वे3 स्वायै ॥4॥
उषा - काल में ध्यान-साधना जागृत आत्मायें करती हैं ।
भोर गुलाबी अति अद्भुत है रवि रश्मि रक्तिमा रँगती हैं ॥4॥
8852
भुवश्चक्षुर्मह ऋतस्य गोपा भुवो वरुणो यदृताय वेषि ।
भुवो अपां नपाज्जातवेदो भुवो दूतो यस्य हव्यं जुजोषः ॥5॥
अग्नि - देव आनन्द - रूप हैं वे ही तन-मन के रक्षक हैं ।
वे सबको भोजन देते हैं वे ही हविषा के भी भक्षक हैं ॥5॥
8853
भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता यत्रा नियुद्भिः सचसे शिवाभिः ।
दिवि मूर्धानं दधिषे स्वर्षां जिह्वामग्ने चकृषे हव्यवाहम् ॥6॥
नभ में शुभ-दायी किरणों-से जग-कल्याण तुम्हीं करते हो ।
मेघों के तुम ही मालिक हो धन-धान से घर को भरते हो॥6॥
8854
अस्य त्रितः क्रतुना वव्रे अन्तरिच्छन्धीतिं पितुरेवैः परस्य ।
सचस्यमानः पित्रोरुपस्थे जामि ब्रुवाण आयुधानि वेति ॥7॥
मानव - जीवन यज्ञ - सदृश है आओ कर लें पर - उपकार ।
पर आयुध अति आवश्यक है जीवन-समर में रण है सार॥7॥
8855
स पित्राण्यायुधानि विद्वानिन्द्रेषित आप्तयो अभ्ययुध्यत् ।
त्रिशीर्षाणं सप्तरश्मिं जघन्वान्त्वाष्ट्रस्य चिन्निःससृजे त्रितो गा:॥8॥
पावन पावक से पावस पाते धरती में आती है हरियाली ।
अन्न फूल-फल सबको मिलता झूम उठती है डाली-डाली ॥8॥
8856
भूरिदिन्द्र उदिनक्षन्तमोजोSवाभिनत् सत्पतिर्मन्यमानम् ।
त्वाष्ट्रस्य चिद्विश्वरूपस्य गोनामाचक्राणस्त्रीणि शीर्षा परा वर्क्॥9॥
पृथ्वी पर पावस आता है होती है रिम - झिम बरसात ।
अन्न-धान सबको मिलता है खिल उठता है पल्लव-पात ॥9॥
वेदों का काव्यात्मक आनन्द लिये अनुवाद।
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