[ऋषि- त्रित आप्त्य । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8813
इनो राजन्नरतिः समिध्दो रौद्रो दक्षाय सुषुमॉ अदर्शि ।
चिकिद्वि भाति भासा बृहतासिक्नीमेति रुशतीमपाजन्॥1॥
हे अग्नि - देव तुम ही प्रणम्य हो हमको तुम चारों बल देना ।
हवि-भोग सभी को पहुँचा देना अपने-पन से अपना लेना॥1॥
8814
कृष्णां यदेनीमभि वर्पसा भूज्जनयन्योषां बृहतः पितुर्जाम् ।
ऊर्ध्वं भानुं सूर्यस्य स्तभायन्दिवो वसुभिररतिर्वि भाति॥2॥
हे अग्नि- देव तुम तमस मिटाते फैलाते जग में उजियारा ।
धन और धान तुम्हीं देते हो सुख-कर लगता है जग सारा॥2॥
8815
भद्रो भद्रया सचमान आगास्त्वसारं जारो अभ्येति पश्चात् ।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रु शद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात् ॥3॥
अग्नि - देव सबको सुख देते जीवन- विद्या सिखलाते हैं ।
षड्-रिपुओं से हमें बचाते मन का तमस मिटाते हैं ॥3॥
8816
अस्य यामासो बृहतो न वग्नूनिन्धाना अग्नेः सखुः शिवस्य ।
ईडय्स्य वृष्णो बृहतः स्वासो भामासो यामन्नक्तवश्चिकित्रे॥4॥
यज्ञ-धूम की महिमा भारी तन-मन का कलुष मिटाती है ।
अमल अद्वितीय अद्भुत है यह जीने की कला सिखाती है॥4॥
8817
स्वना न यस्य भामासः पवन्ते रोचमानस्य बृहतः सुदिवः ।
ज्येष्ठेभिर्यस्तेजिष्ठैःक्रीळुमद्भिर्वर्षिष्ठेभिर्भानुभिर्नक्षति द्याम्॥5॥
यह यज्ञ - धूम है शब्द - सदृश सर्वत्र व्याप्त हो जाती है ।
अद्भुत आभा आच्छादित अवनि पावक की पढती पाती है॥5॥
8818
अस्य शुष्मासो ददृशानपवेर्जेहमानस्य स्वनयन्नियुद्भिः ।
प्रत्नेभिर्यो रुशद्भिर्देवतमो वि रेभद्भिररतिर्भाति विभ्वा ॥6॥
अग्नि - देव के ही प्रसाद से नभ में फिर मेघ उमडते हैं ।
अनल-अनिल सँग-सँग होने से नभ में शब्द घुमडते हैं॥6॥
8819
स आ वक्षि महि न आ च सत्सि दिवस्पृथिव्योररतिर्युवत्योः।
अग्निः सुतुकःसुतुकेभिरश्वै रभस्वद्भी रभस्वॉ एह गम्या:॥7॥
अग्नि- देव की गति अद्भुत है पवन- देव हैं उनके वाहन ।
वे सबको सुख-साधन देते अग्नि- देव सबके मन-भावन॥7॥
8813
इनो राजन्नरतिः समिध्दो रौद्रो दक्षाय सुषुमॉ अदर्शि ।
चिकिद्वि भाति भासा बृहतासिक्नीमेति रुशतीमपाजन्॥1॥
हे अग्नि - देव तुम ही प्रणम्य हो हमको तुम चारों बल देना ।
हवि-भोग सभी को पहुँचा देना अपने-पन से अपना लेना॥1॥
8814
कृष्णां यदेनीमभि वर्पसा भूज्जनयन्योषां बृहतः पितुर्जाम् ।
ऊर्ध्वं भानुं सूर्यस्य स्तभायन्दिवो वसुभिररतिर्वि भाति॥2॥
हे अग्नि- देव तुम तमस मिटाते फैलाते जग में उजियारा ।
धन और धान तुम्हीं देते हो सुख-कर लगता है जग सारा॥2॥
8815
भद्रो भद्रया सचमान आगास्त्वसारं जारो अभ्येति पश्चात् ।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रु शद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात् ॥3॥
अग्नि - देव सबको सुख देते जीवन- विद्या सिखलाते हैं ।
षड्-रिपुओं से हमें बचाते मन का तमस मिटाते हैं ॥3॥
8816
अस्य यामासो बृहतो न वग्नूनिन्धाना अग्नेः सखुः शिवस्य ।
ईडय्स्य वृष्णो बृहतः स्वासो भामासो यामन्नक्तवश्चिकित्रे॥4॥
यज्ञ-धूम की महिमा भारी तन-मन का कलुष मिटाती है ।
अमल अद्वितीय अद्भुत है यह जीने की कला सिखाती है॥4॥
8817
स्वना न यस्य भामासः पवन्ते रोचमानस्य बृहतः सुदिवः ।
ज्येष्ठेभिर्यस्तेजिष्ठैःक्रीळुमद्भिर्वर्षिष्ठेभिर्भानुभिर्नक्षति द्याम्॥5॥
यह यज्ञ - धूम है शब्द - सदृश सर्वत्र व्याप्त हो जाती है ।
अद्भुत आभा आच्छादित अवनि पावक की पढती पाती है॥5॥
8818
अस्य शुष्मासो ददृशानपवेर्जेहमानस्य स्वनयन्नियुद्भिः ।
प्रत्नेभिर्यो रुशद्भिर्देवतमो वि रेभद्भिररतिर्भाति विभ्वा ॥6॥
अग्नि - देव के ही प्रसाद से नभ में फिर मेघ उमडते हैं ।
अनल-अनिल सँग-सँग होने से नभ में शब्द घुमडते हैं॥6॥
8819
स आ वक्षि महि न आ च सत्सि दिवस्पृथिव्योररतिर्युवत्योः।
अग्निः सुतुकःसुतुकेभिरश्वै रभस्वद्भी रभस्वॉ एह गम्या:॥7॥
अग्नि- देव की गति अद्भुत है पवन- देव हैं उनके वाहन ।
वे सबको सुख-साधन देते अग्नि- देव सबके मन-भावन॥7॥
प्रकृति की कार्यशैली स्पष्ट रूप से दिखती है इन पंक्तियों में।
ReplyDeleteअग्नि- देव की गति अद्भुत है पवन- देव हैं उनके वाहन ।
ReplyDeleteवे सबको सुख-साधन देते अग्नि- देव सबके मन-भावन॥7॥
पंच भूतों से रची है सृष्टि..नमन उन्हें
अग्नि देव सर्वत्र विद्यमान हैं उनका आह्वाहन प्रकाश की ओर ले जायेगा...
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