Tuesday, 25 March 2014

सूक्त - 103

[ऋषि- द्वित आप्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]

8669
प्र पुनानाय वेधसे सोमाय वच उद्यतम् ।
भूतिं न भरा मतिभिर्जुजोषते ॥1॥

जो परमेश्वर- प्रेमी- प्राणी  है प्रभु रखते हैं उनका ध्यान ।
यश-वैभव उनको देते हैं व्यवहृत करते सखा-समान॥1॥

8670
परि वारान्यव्यया गोभिरञ्जानो अर्षति ।
त्री षधस्था पुनानः कृणुते हरिः ॥2॥

प्रभु साधक  की  रक्षा  करते  कल्मष  को  करते  हैं  दूर ।
आत्म-ज्ञान तक पहुँचाते हैं अपना-पन देते हैं भरपूर॥2॥

8671
परि कोशं मधुश्चुतमव्यये वारे अर्षति ।
अभि वाणीरृषीणां सप्त नूषत ॥3॥

जिनका अन्तर्मन  पावन  है  वे  परमेश्वर  को  पाते  हैं ।
भक्ति-मार्ग से वे आते हैं आत्म-ज्ञान देकर  जाते  हैं॥3॥

8672
परि णेता मतीनां विश्वदेवो अदाभ्यः ।
सोमः पुनानश्चम्वोर्विशध्दरिः ॥4॥

जो जग को आलोकित करता वह ही  है सबका पूजनीय ।
जीव-जगत दोनों का रक्षक वह नमनीय वही वरणीय॥4॥

8673
परि दैवीरनु स्वधा इन्द्रेण याहि सरथम् ।
पुनानो वाघद्वाघद्भिरमर्त्यः ॥5॥

वह कर्म-योग का उद्-घोषक सबको सिखलाता है आचार ।
दैवी-धन का वर्धन करता कोटि - कोटि उसका आभार॥5॥

8674
परि सप्तिर्न वाजयुर्देवो देवेभ्यः सुतः ।
व्यानशिः  पवमानो   वि  धावति ॥6॥

परम-दिव्य है वह परमेश्वर वह है  यश - वैभव  की खान ।
सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा वरद-हस्त रखना भगवान॥6॥     

3 comments:

  1. प्रेरक सूक्त...

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  2. चिन्तन की गहराई बताते सूत्र

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  3. वह कर्म-योग का उद्-घोषक सबको सिखलाता है आचार ।
    दैवी-धन का वर्धन करता कोटि - कोटि उसका आभार॥5॥

    परम सत्ता को नमन..

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