[ऋषि-त्रित आप्त्य । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8827
एकः समुद्रो धरुणो रयीणामस्मद्धृदो भूरिजन्मा वि चष्टे ।
सिषक्त्यूधर्निण्योरुपस्थ उत्सस्य मध्ये निहितं पदं वेः॥1॥
हे पावक तुम धन - धारक हो हृदय - वेग के संचालक हो ।
नभ-जल से पावस तुम देते हो पर्जन्यों के परि-चालक हो॥1॥
8828
समानं नीळं वृषणो वसाना: सं जग्मिरे महिषा अर्वतीभिः ।
ऋतस्य पदं कवयो नि पान्ति गुहा नामानि दधिरे पराणि॥2॥
प्राण-अग्नि की गति भी तुम हो पावक देते पावस का दान ।
सूर्य-किरण जल-रक्षा करती नभ में जल का रखती ध्यान॥2॥
8829
ऋतायिनी मायिनी सं दधाते मित्वा शिशुं जज्ञतुर्वर्धयन्ती ।
विश्वस्य नाभिं चरतो ध्रुवस्य कवेश्चित्तन्तुं मनसा वियन्तः॥3॥
अग्नि- देव जल धारण करते वे ज्ञान - प्राप्ति के साधन हैं ।
अग्नि-सूत्र की महिमा अद्भुत सत्-जन करते आराधन हैं॥3॥
8830
ऋतस्य हि वर्तनयः सुजातमिषो वाजाय प्रदिवः सचन्ते ।
अधीवासं रोदसी वावसाने घृतैरन्नैर्वावृधाते मधूनाम् ॥4॥
तुम हो यश-वैभव के स्वामी तुम चारों - बल हमको देना
जल-थल-नभ में विद्यमान हो अपने-पन से अपना लेना॥4॥
8831
सप्त स्वसृररुषीर्वावशानो विद्वान्मध्व उज्जभारा दृशे कम् ।
अन्तर्येमे अन्तरिक्षे पुराजा इच्छन्वव्रिमविदत्पूषणस्य॥5॥
सप्त-वर्ण किरणों की ज्वाला और मिली रिमझिम-बरसात ।
पर्जन्यों के पोषक-रस से खिल उठता है पल्लव - पात॥5॥
8832
सप्त मर्यादा: कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहरो गात् ।
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीळे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ॥6॥
पूव-पितर ने हम बच्चों को सात वर्जनायें सिखलायी ।
जिसने इन्हें निभाया उसने उत्तम-विद्या की दौलत पायी॥6॥
8833
असच्च सच्च परमे व्योमन् दक्षस्य जन्मन्नदितेरुपस्थे ।
अग्निर्ह नः प्रथमजा ऋतस्य पूर्व आयुनि वृषभश्च धेनुः॥7॥
मात-पिता हो तुम्हीं हमारे तुम जग में जन-जन को प्राप्त हो।
जगती में सर्व-प्रथम तुम आए पावक तुम सर्व-व्याप्त हो॥7॥
8827
एकः समुद्रो धरुणो रयीणामस्मद्धृदो भूरिजन्मा वि चष्टे ।
सिषक्त्यूधर्निण्योरुपस्थ उत्सस्य मध्ये निहितं पदं वेः॥1॥
हे पावक तुम धन - धारक हो हृदय - वेग के संचालक हो ।
नभ-जल से पावस तुम देते हो पर्जन्यों के परि-चालक हो॥1॥
8828
समानं नीळं वृषणो वसाना: सं जग्मिरे महिषा अर्वतीभिः ।
ऋतस्य पदं कवयो नि पान्ति गुहा नामानि दधिरे पराणि॥2॥
प्राण-अग्नि की गति भी तुम हो पावक देते पावस का दान ।
सूर्य-किरण जल-रक्षा करती नभ में जल का रखती ध्यान॥2॥
8829
ऋतायिनी मायिनी सं दधाते मित्वा शिशुं जज्ञतुर्वर्धयन्ती ।
विश्वस्य नाभिं चरतो ध्रुवस्य कवेश्चित्तन्तुं मनसा वियन्तः॥3॥
अग्नि- देव जल धारण करते वे ज्ञान - प्राप्ति के साधन हैं ।
अग्नि-सूत्र की महिमा अद्भुत सत्-जन करते आराधन हैं॥3॥
8830
ऋतस्य हि वर्तनयः सुजातमिषो वाजाय प्रदिवः सचन्ते ।
अधीवासं रोदसी वावसाने घृतैरन्नैर्वावृधाते मधूनाम् ॥4॥
तुम हो यश-वैभव के स्वामी तुम चारों - बल हमको देना
जल-थल-नभ में विद्यमान हो अपने-पन से अपना लेना॥4॥
8831
सप्त स्वसृररुषीर्वावशानो विद्वान्मध्व उज्जभारा दृशे कम् ।
अन्तर्येमे अन्तरिक्षे पुराजा इच्छन्वव्रिमविदत्पूषणस्य॥5॥
सप्त-वर्ण किरणों की ज्वाला और मिली रिमझिम-बरसात ।
पर्जन्यों के पोषक-रस से खिल उठता है पल्लव - पात॥5॥
8832
सप्त मर्यादा: कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहरो गात् ।
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीळे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ॥6॥
पूव-पितर ने हम बच्चों को सात वर्जनायें सिखलायी ।
जिसने इन्हें निभाया उसने उत्तम-विद्या की दौलत पायी॥6॥
8833
असच्च सच्च परमे व्योमन् दक्षस्य जन्मन्नदितेरुपस्थे ।
अग्निर्ह नः प्रथमजा ऋतस्य पूर्व आयुनि वृषभश्च धेनुः॥7॥
मात-पिता हो तुम्हीं हमारे तुम जग में जन-जन को प्राप्त हो।
जगती में सर्व-प्रथम तुम आए पावक तुम सर्व-व्याप्त हो॥7॥
सप्त-वर्ण किरणों की ज्वाला और मिली रिमझिम-बरसात ।
ReplyDeleteपर्जन्यों के पोषक-रस से खिल उठता है पल्लव - पात॥5॥
हरी-भरी प्रकृति और अदृश्य परमात्मा..सूर्य दोनों का स्मरण कराता है..
सूर्य के प्रकाश से सब गतिमय।
ReplyDelete