Friday 21 March 2014

सूक्त - 107

[ऋषि- सप्तर्षि । देवता- पवमान सोम । छन्द- बृहती- गायत्री- पंक्ति ।]

8701
परीतो षिञ्चता सुतं सोमो य उत्तमं हविः ।
दधन्वॉ यो नर्यो अप्स्व1न्तरा सुषाव सोममद्रिभिः॥1॥

सोम सृजन का ही माध्यम है यह सौम्य-स्वभाव बनाता है ।
सोम - रूप प्रभु सर्व-व्याप्त है योगी प्रभु - दर्शन पाता  है ॥1॥

8702
नूनं पुनानोSविभिः परि स्त्रवादब्धः सुरभिन्तरः ।
सुते चित्त्वाप्सु मदामो अन्धसा श्रीणन्तो गोभिरुत्तरम्॥2॥

परमात्मा तुम आनन्द-रूप  हो  हे  प्रभु  मेरे  मन  में  आओ ।
हम प्रेम से आमन्त्रित करते हैं तुम ही आकर हमें जगाओ॥2॥

8703
परि      सुवानश्चक्षसे      देवमादनः      क्रतुरिन्दुर्विचक्षणः ।

परमेश्वर ज्ञानी को सुख देता जो निराकार का करता ध्यान ।
साधक आनन्द अनुभव करता परमानन्द का होता भान॥3॥

8704
पुनानः सोम धारयापो वसानो अर्षसि ।
आ रत्नधा योनिमृतस्य सीदस्युत्सो देव हिरण्ययः॥4॥

प्रभु  हमको  सत्कर्म  सिखाओ तुम  मेरे  मन  में  बस  जाओ ।
ज्योति-रूप तुम्हीं विराजे अज्ञान-तमस को तुम्हीं मिटाओ॥4॥

8705
दुहान  ऊधर्दिव्यं  मधु  प्रियं  प्रत्नं  सधस्थमासदत् ।
आपृच्छ्यं धरुणं वाज्यर्षति नृभिर्धूतो विचक्षणः॥5॥

अन्तरिक्ष प्रभु को अति-प्रिय है नभ असीम का द्योतक है ।
हम भी तुमको पा सकते हैं वह भी जो तेरा उपासक है॥5॥

8706
पुनानः सोम जागृविरव्यो वारे परि प्रियः ।
त्वं विप्रो अभवोSङ्गिरस्तमो मध्वा यज्ञं मिमिक्ष नः॥6॥

प्रभु  पावन - दृष्टि  मुझे  देना  मेरे  अन्तः पुर  में  आना ।
तुम प्राणों के प्राण प्रभु जी आनन्द-वर्षा करते जाना ॥6॥

8707
सोमो मीढ्वान्पवते गातुवित्तम ऋषिर्विप्रो विचक्षणः ।
त्वं  कविरभवो  देववीतम आ  सूर्यं  रोहयो  दिवि ॥7॥

परमेश्वर ज्ञानी के मन को दिव्य-तेज से  भर  देते हैं ।
मनोकामना पूरी करते सबका अवगुण हर लेते हैं॥7॥

8708
सोम उ षुवाणः सोतृभिरधि ष्णुभिरवीनाम् ।
अश्वयेव हरिता याति धारया मन्द्रया याति धारया॥8॥

जैसे बिजली सुख-साधन देती जीवन को सरल बनाती  है।
प्रभु अन्वेषण-बल देना जो जन-जन के काम आती है॥8॥

8709
अनूपे  गोमान्गोभिरक्षा:   सोमो   दुग्धाभिरक्षा: ।
समुद्रं न संवरणान्यग्मन्मन्दी मदाय तोशते॥9॥

परमेश्वर  सज्जन  को  देते  हैं  पावन  परमानन्द  प्रसाद ।
सरिता सागर से मिलती है मन का मिटता है अवसाद॥9॥

8710
आ   सोम   सुवानो  अद्रिभिस्तिरो   वाराण्यव्यया ।
जनो न पुरि चम्वोर्विशध्दरिःसदो वनेषु दधिषे॥10॥

प्रभु तुम सबकी रक्षा करते सत्-पथ  पर  पहुँचाते  हो ।
ज्ञान-प्रकाश तुम्हीं देते हो सबकी प्यास बुझाते हो॥10॥

8711
स मामृजे  तिरो अण्वानि  मेष्यो  मीळ्हे  सप्तिर्न  वाजयुः ।
अनुमाद्यःपवमानो मनीषिभिः सोमो विप्रेभिरृक्वभिः॥11॥

वह  ही  सर्वो - परि  सत्ता  है  वह  निराकार  है  अद्वितीय ।
वह उपासना से मिलता है वह है अद्भुत-अनिवर्चनीय॥11॥

8712
प्र सोम देववीतये सिन्धुर्न पिप्ये अर्णसा ।
अंशोः पयसा मदिरो न जागृविरच्छा कोशं मधुश्चुतम्॥12॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  वह  आनन्द का सागर है ।
वह  निर्मल मन में रहता है वह हम सबका सहचर है ॥12॥

8713
आ हर्यतो अर्जुने अत्के अव्यत  प्रियः सूनुर्न  मर्ज्यः ।
तमीं हिन्वन्त्यपसो यथा रथं नदीष्वा गभस्त्योः॥13॥

कर्म-निरूपण वे करते हैं  हम  सब  पाते  कर्मों  का  फल ।
सत्पथ पर वे प्रेरित करते जिससे मिले सभी को हल॥13॥

8714
अभि सोमास आयवः पवन्ते मद्यं मदम् ।
समुद्रस्याधि विष्टपि मनीषिणो मत्सरासः स्वर्विदः ॥14॥

विज्ञानी - ज्ञानी  दोनों  करते  अपना - अपना अन्वेषण ।
प्राप्ति हेतु यह आवश्यक है होते रहें  सफल  प्रक्षेपण॥14॥

8715
तरत्समुद्रं   पवमान  ऊर्मिणा   राजा   देव   ऋतं   बृहत् ।
अर्षन्मित्रस्य वरुणस्य धर्मणा प्र हिन्वान ऋतं बृहत्॥15॥

आलोक-प्रदाता  परमात्मा  का   हमसे  होता  है सम्भाषण ।
पण्डित के प्रवचन में होता उसका सुखद-सहज संप्रेषण॥15॥

8716
नृभिर्येमानो  हर्यतो  विचक्षणो  राजा  देवः  समुद्रियः ॥16॥

प्रभु से प्रेरित होकर हम सब विविध -विधा से फल पाते हैं ।
सत्पथ के सब पथिक वस्तुतःमन की प्यास बुझाते हैं॥16॥

8717
इन्द्राय पवते मदः सोमो मरुत्वते सुतः ।
सहस्त्रधारो  अत्यव्यमर्षति  तमी  मृजन्त्यायवः॥17॥

कर्म - योग के पावन-पथ पर परमात्मा रक्षा करते  हैं ।
मनो-कामना पूरी करते मन की व्यथा समझते हैं॥17॥

8718
पुनानश्च  जनयन्मतिं  कविः सोमो  देवेषु  रण्यति ।
अपो वसानः परि गोभिरुत्तरः सीदन्वनेष्वव्यत॥18॥

प्रभु कर्मों के अधिपति हैं हम कर्मानुरूप फल चखते हैं ।
जीव - जगत  दोनों की रक्षा परमेश्वर ही करते हैं ॥18॥

8719
तवाहं सोम रारण सख्य इन्द्रो दिवेदिवे ।
पुरूणि बभ्रो नि चरन्ति मामव परिधिँरति तॉ इहि॥19॥

दुष्ट - दमन अति आवश्यक  है  बढाना  है आयुध  का  मान ।
प्रभु असुरों से रक्षा करना जीव-जगत का रखना ध्यान॥19॥

8720
उताहं नक्तमुत सोम ते दिवा सख्याय बभ्र ऊधनि ।
घृणा तपन्तमति सूर्यं परः शकुना इव पप्तिम॥20॥

हे   देदीप्यमान   परमेश्वर  तुम   ही   हो  आलोक -  प्रदाता ।
तुमसे मिलने को आतुर हैं तुम्हीं पिता हो तुम हो माता॥20॥

8721
मृज्यमानः सुहस्त्य समुद्रे वाहमिन्वसि ।
रयिं पिशङ्ग बहुलं पुरुस्पृहं पवमानाभ्यर्षसि॥21॥

सर्व   समर्थ   तुम्हारी   सत्ता  वाणी  का  दे  दो  वर - दान ।
प्रज्ञा-धन ही मुझको प्रिय है प्रभु मुझको दे देना ज्ञान ॥21॥

8722
मृजानो वारे पवमानो अव्यये वृषाव चक्रदो वने ।
देवानां सोम पवमान निष्कृतं गोभिरञ्जानो अर्षसि ॥22॥

तुम्हीं  सुरक्षा  देना  प्रभु - वर  सत्कर्मों  की बात बताना ।
मैं पावन-मन कैसे पाऊँ ज्ञानामृत से तुम समझाना ॥22॥

8723
पवस्व वाजसातयेSभि विश्वानि काव्या ।
त्वं  समुद्रं  प्रथमो   वि  धारयो  देवेभ्यः  सोम  मत्सरः ॥23॥  

उज्ज्वल  भाव  सदा  हो  मन  में  ऐसी  कोई  जुगत बताना ।
यश-वैभव हमको देना प्रभु ज्ञान-योग हमको समझाना॥23॥

8724
स  तू  पवस्व  परि  पार्थिवं  रजो  दिव्या  च  सोम  धर्मभिः ।
त्वां विप्रासो मतिभिर्विचक्षण शुभ्रं  हिन्वन्ति धीतिभिः॥24॥

धरा  प्रदूषित  हुई  जा  रही  अब  क्या  होगा तुम्हीं  बताओ ।
कर्म-योग हम कैसे सीखें तुम्हीं  प्रेम से अब समझाओ ॥24॥

8725
पवमाना असृक्षत पवित्रमति धारया ।
मरुत्वन्तो मत्सरा इन्द्रिया  हया  मेधामभि  प्रयांसि च ॥25॥

ध्यान-धारणा क्या  जानें  हम क्रिया - योग   हम  कैसे जानें ।
आकर तुम्हीं हमें सिखलाओ तभी तुम्हें हम अपना मानें॥25॥

8726
अपो वसानः परि कोशमर्षतीन्दुर्हियानः सोतृभिः ।
जनयञ्ज्योतिर्मन्दना अवीवशद्गा:कृण्वानो न निर्णिजम्॥26॥

कर्म-योग के पथ पर ही सब मानव तुम्हें जान पाते हैं ।
वरद-हस्त हम पर भी रखना बिन तेरे हम अकुलाते हैं ॥26॥             
      
   

3 comments:

  1. सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा वह आनन्द का सागर है ।
    वह निर्मल मन में रहता है वह हम सबका सहचर है ॥12॥

    परमात्मा को कौन बखान सका है...

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  2. बड़े ही सुन्दर भावांश।

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  3. अति उत्तम...

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