सूक्त - 1
[ऋषि- त्रित आप्त्य । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8799
अग्रे बृहन्नुषसामूर्ध्वो अस्थान्निर्जगन्वान्तमसो ज्योतिषागात् ।
अग्निर्भानुना रुशता स्वङ्ग आ जातो विश्वा सद्मान्यप्रा: ॥1॥
अग्नि - देव आलोक - प्रदाता प्रभु अन्धकार को कर दो दूर ।
वे तेज - पुञ्ज वे तपोनिष्ठ आलोक हमें दे दो भर - पूर॥1॥
8800
स जातो गर्भो असि रोदस्योरग्ने चारुर्विभृत ओषधीषु ।
चित्रः शिशुः परि तमांस्यक्तून्प्र मातृभ्यो अधि कनिक्रदद्गा: ॥2॥
अन्तरिक्ष में और अवनि में सुख के हो तुम ही आधार ।
औषधि को तुम ही रस देते पावस का करते विस्तार ॥2॥
8801
विष्णुरित्था परममस्य विद्वाञ्जातो बृहन्नभि पाति तृतीयम् ।
आसा यदस्य पयो अक्रत स्वं सचेतसो अभ्यर्चन्त्यत्र ॥3॥
वैज्ञानिक अन्वेषण करते होते रहते हैं अनुसन्धान ।
पावक के माध्यम से ही तो द्रव का होता है अनुमान ॥3॥
8802
अत उ त्वा पितुभृतो जनित्रीरन्नावृधं प्रति चरन्त्यन्नैः ।
ता ईं प्रत्येषि पुनरन्यरूपा असि त्वं विक्षु मानुषीषु होता ॥4॥
हे अग्नि- देव तुम औषधियों का और अन्न का देते दान ।
हम हवि-भोग तुम्हें देते हैं तुम पहुना हो कृपा- निधान ॥4॥
8803
होतारं चित्ररथमध्वरस्य यज्ञस्ययज्ञस्य केतुं रुशन्तम् ।
प्रत्यर्धिं देवस्यदेवस्य मह्ना श्रिया त्व1ग्निमतिथिं जनानाम्॥5॥
हम है प्रजा तुम्हारी भगवन तुम वन्दनीय नमनीय तुम्हीं हो ।
यश - वैभव तुम ही देते हो मेरे सखा - सदृश तुम ही हो ॥5॥
8804
स तु वस्त्राण्यध पेशनानि वसानो अग्निर्नाभा पृथिव्या: ।
अरुषो जातः पद इळाया: पुरोहितो राजन्यक्षीह देवान् ॥6॥
हे देदीप्यमान तेजस्वी तुम ही जगती के स्वर्ण - पत्र हो ।
प्रभु हवि- भोग ग्रहण कर लो तुम्हीं बॉसुरी तुम्हीं शस्त्र हो ॥6॥
8805
आ हि द्यावापृथिवी अग्न उभे सदा पुत्रो न मातरा ततन्थ ।
प्र याह्यच्छोशतो यविष्ठाथा वह सहस्येह देवान् ॥7॥
धरा - गगन तुमसे पाता है अपना अति व्यापक विस्तार ।
सज्जन पाते सान्निध्य तुम्हारा सुख के हो तुम ही आगार॥7॥
[ऋषि- त्रित आप्त्य । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8799
अग्रे बृहन्नुषसामूर्ध्वो अस्थान्निर्जगन्वान्तमसो ज्योतिषागात् ।
अग्निर्भानुना रुशता स्वङ्ग आ जातो विश्वा सद्मान्यप्रा: ॥1॥
अग्नि - देव आलोक - प्रदाता प्रभु अन्धकार को कर दो दूर ।
वे तेज - पुञ्ज वे तपोनिष्ठ आलोक हमें दे दो भर - पूर॥1॥
8800
स जातो गर्भो असि रोदस्योरग्ने चारुर्विभृत ओषधीषु ।
चित्रः शिशुः परि तमांस्यक्तून्प्र मातृभ्यो अधि कनिक्रदद्गा: ॥2॥
अन्तरिक्ष में और अवनि में सुख के हो तुम ही आधार ।
औषधि को तुम ही रस देते पावस का करते विस्तार ॥2॥
8801
विष्णुरित्था परममस्य विद्वाञ्जातो बृहन्नभि पाति तृतीयम् ।
आसा यदस्य पयो अक्रत स्वं सचेतसो अभ्यर्चन्त्यत्र ॥3॥
वैज्ञानिक अन्वेषण करते होते रहते हैं अनुसन्धान ।
पावक के माध्यम से ही तो द्रव का होता है अनुमान ॥3॥
8802
अत उ त्वा पितुभृतो जनित्रीरन्नावृधं प्रति चरन्त्यन्नैः ।
ता ईं प्रत्येषि पुनरन्यरूपा असि त्वं विक्षु मानुषीषु होता ॥4॥
हे अग्नि- देव तुम औषधियों का और अन्न का देते दान ।
हम हवि-भोग तुम्हें देते हैं तुम पहुना हो कृपा- निधान ॥4॥
8803
होतारं चित्ररथमध्वरस्य यज्ञस्ययज्ञस्य केतुं रुशन्तम् ।
प्रत्यर्धिं देवस्यदेवस्य मह्ना श्रिया त्व1ग्निमतिथिं जनानाम्॥5॥
हम है प्रजा तुम्हारी भगवन तुम वन्दनीय नमनीय तुम्हीं हो ।
यश - वैभव तुम ही देते हो मेरे सखा - सदृश तुम ही हो ॥5॥
8804
स तु वस्त्राण्यध पेशनानि वसानो अग्निर्नाभा पृथिव्या: ।
अरुषो जातः पद इळाया: पुरोहितो राजन्यक्षीह देवान् ॥6॥
हे देदीप्यमान तेजस्वी तुम ही जगती के स्वर्ण - पत्र हो ।
प्रभु हवि- भोग ग्रहण कर लो तुम्हीं बॉसुरी तुम्हीं शस्त्र हो ॥6॥
8805
आ हि द्यावापृथिवी अग्न उभे सदा पुत्रो न मातरा ततन्थ ।
प्र याह्यच्छोशतो यविष्ठाथा वह सहस्येह देवान् ॥7॥
धरा - गगन तुमसे पाता है अपना अति व्यापक विस्तार ।
सज्जन पाते सान्निध्य तुम्हारा सुख के हो तुम ही आगार॥7॥
अद्भुत और उत्कृष्ट काव्यानुवाद किया है आपने, आपको शत शत साधुवाद।
ReplyDeleteबहुत ही प्रवाहमय और बोधगम्य अनुवाद....आभार
ReplyDeleteसुंदर रचना...रंगों से सराबोर होली की शुभकामनायें...
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