[ऋषि- त्र्यरुण त्रसदस्यु । देवता- पवमान सोम । छन्द- अनुष्टुप् - बृहती ।]
8765
पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः ।
द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे ॥1॥
ब्रह्म परायण नर ही सचमुच परमेश्वर को पाता है ।
वही वीर फिर दुष्ट-दलन कर देश को सबल बनाता है॥1॥
8766
अनु हि त्वा सुतं सोम मदामसि महे समर्यराज्ये ।
वाजॉ अभि पवमान प्र गाहसे ॥2॥
सर्व समर्थ वही सत्ता है वह ही यश- वैभव की खान ।
कर्मानुरूप सुख- दुख मिलता है चिंतन से होता है भान॥2॥
8767
अजीजनो हि पवमान सूर्यं विधारे शक्मना पयः ।
गोजीरया रंहमाणः पुरन्ध्या ॥3॥
वह दामिनी प्रभा का दाता बिना श्रेय के सब देता है ।
गति-यति दोनों में माहिर है अपने-पन से अपना लेता है॥3॥
8768
अजीजनो अमृत मर्त्येष्वॉ ऋतस्य धर्मन्नमृतस्य चारुणः ।
सदासरो वाजमच्छा सनिष्यदत् ॥4॥
जन - जन उसके लिए बराबर दृष्टि सभी पर रहती है ।
दया-दृष्टि हम पर भी रखना मन-मैना तुझ में रमती है ॥4॥
8769
अभ्यभि हि श्रवसा ततर्दिथोत्सं न कं चिज्जनपानमक्षितम्।
शर्याभिर्न भरमाणो गभस्त्योः ॥5॥
रवि की किरणें सब विकार को बिना-विलम्ब मिटा देती हैं ।
ऐसे ही सज्जन की भूलों को देव- शक्तियॉ हर लेती हैं ॥5॥
8770
आदीं के चित्पश्यमानास आप्यं वसुरुचो दिव्या अभ्यनूषत् ।
वारं न देवः सविता व्यूर्णुते ॥6॥
रवि-किरणें हर जगह पहुँचतीं ज्ञानी कण-कण में प्रभु पाता है।
घट-घट में प्रभु दर्शन करके वह आनन्द से भर जाता है ॥6॥
8771
त्वे सोम प्रथमा वृक्तबर्हिषो महे वाजाय श्रवसे धियं दधुः ।
स त्वं वीर वीर्याय चोदय ॥7॥
हे प्रभु हम सत्पथ पर चल-कर बन जायें धीर-वीर -उत्साही ।
तुम वरद-हस्त हम पर रखना हम हैं चरैवेति के राही ॥7॥
8772
दिवः पीयूषं पूर्व्यं यदुक्थ्यं महो गाहाद्दिव आ निरधुक्षत ।
इन्द्रमभि जायमानं समस्वरन् ॥8॥
परमात्मा अमृत - स्वरूप है यह जगती है उसका रूप ।
सर्व-व्याप्त है वह परमेश्वर वह है अनन्त अद्भुत अनूप॥8॥
8773
अध यदिमे पवमान रोदसी इमा च विश्वा भुवनाभि मज्मना।
यूथे न निःष्ठा वृषभो वि तिष्ठसे ॥9॥
हम सबको अपना बल देकर उसने हमें समर्थ बनाया ।
फिर भी स्वाधीन रखा है उसने यह है बस उसकी ही माया ॥9॥
8774
सोमः पुनानो अव्यये वारे शिशुर्न क्रीळन्पवमानो अक्षा: ।
सहस्त्रधारः शतवाज इन्दुः ॥10॥
वह अनन्त बल का स्वामी है सब सद्गुण का वही निधान ।
विविध - अनन्त रूप हैं उसके ऐसा है अपना भगवान ॥10॥
8775
एष पुनानो मधुमॉ ऋतावेन्द्रायेन्दुः पवते स्वादुरूर्मिः ।
वाजसनिर्वरिवोविद्वयोधा: ॥11॥
जो ज्ञान - कर्म से आगे बढते उनको प्रभु मिल जाते हैं ।
तब सबका प्यार उन्हें मिलता वे अनुपम आनन्द पाते हैं॥11॥
8776
स पवस्व सहमानः पृतन्यून्त्सेधन्रक्षांस्यप दुर्गहाणि ।
स्वायुधः सासह्वान्त्सोम शत्रून् ॥12॥
जननी - जन्मभूमि रक्षित हो अतुलित आयुध का अन्वेषण हो ।
देश- भूमि यह रहे सुरक्षित हर हाल में इसका संरक्षण हो ॥12॥
8765
पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः ।
द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे ॥1॥
ब्रह्म परायण नर ही सचमुच परमेश्वर को पाता है ।
वही वीर फिर दुष्ट-दलन कर देश को सबल बनाता है॥1॥
8766
अनु हि त्वा सुतं सोम मदामसि महे समर्यराज्ये ।
वाजॉ अभि पवमान प्र गाहसे ॥2॥
सर्व समर्थ वही सत्ता है वह ही यश- वैभव की खान ।
कर्मानुरूप सुख- दुख मिलता है चिंतन से होता है भान॥2॥
8767
अजीजनो हि पवमान सूर्यं विधारे शक्मना पयः ।
गोजीरया रंहमाणः पुरन्ध्या ॥3॥
वह दामिनी प्रभा का दाता बिना श्रेय के सब देता है ।
गति-यति दोनों में माहिर है अपने-पन से अपना लेता है॥3॥
8768
अजीजनो अमृत मर्त्येष्वॉ ऋतस्य धर्मन्नमृतस्य चारुणः ।
सदासरो वाजमच्छा सनिष्यदत् ॥4॥
जन - जन उसके लिए बराबर दृष्टि सभी पर रहती है ।
दया-दृष्टि हम पर भी रखना मन-मैना तुझ में रमती है ॥4॥
8769
अभ्यभि हि श्रवसा ततर्दिथोत्सं न कं चिज्जनपानमक्षितम्।
शर्याभिर्न भरमाणो गभस्त्योः ॥5॥
रवि की किरणें सब विकार को बिना-विलम्ब मिटा देती हैं ।
ऐसे ही सज्जन की भूलों को देव- शक्तियॉ हर लेती हैं ॥5॥
8770
आदीं के चित्पश्यमानास आप्यं वसुरुचो दिव्या अभ्यनूषत् ।
वारं न देवः सविता व्यूर्णुते ॥6॥
रवि-किरणें हर जगह पहुँचतीं ज्ञानी कण-कण में प्रभु पाता है।
घट-घट में प्रभु दर्शन करके वह आनन्द से भर जाता है ॥6॥
8771
त्वे सोम प्रथमा वृक्तबर्हिषो महे वाजाय श्रवसे धियं दधुः ।
स त्वं वीर वीर्याय चोदय ॥7॥
हे प्रभु हम सत्पथ पर चल-कर बन जायें धीर-वीर -उत्साही ।
तुम वरद-हस्त हम पर रखना हम हैं चरैवेति के राही ॥7॥
8772
दिवः पीयूषं पूर्व्यं यदुक्थ्यं महो गाहाद्दिव आ निरधुक्षत ।
इन्द्रमभि जायमानं समस्वरन् ॥8॥
परमात्मा अमृत - स्वरूप है यह जगती है उसका रूप ।
सर्व-व्याप्त है वह परमेश्वर वह है अनन्त अद्भुत अनूप॥8॥
8773
अध यदिमे पवमान रोदसी इमा च विश्वा भुवनाभि मज्मना।
यूथे न निःष्ठा वृषभो वि तिष्ठसे ॥9॥
हम सबको अपना बल देकर उसने हमें समर्थ बनाया ।
फिर भी स्वाधीन रखा है उसने यह है बस उसकी ही माया ॥9॥
8774
सोमः पुनानो अव्यये वारे शिशुर्न क्रीळन्पवमानो अक्षा: ।
सहस्त्रधारः शतवाज इन्दुः ॥10॥
वह अनन्त बल का स्वामी है सब सद्गुण का वही निधान ।
विविध - अनन्त रूप हैं उसके ऐसा है अपना भगवान ॥10॥
8775
एष पुनानो मधुमॉ ऋतावेन्द्रायेन्दुः पवते स्वादुरूर्मिः ।
वाजसनिर्वरिवोविद्वयोधा: ॥11॥
जो ज्ञान - कर्म से आगे बढते उनको प्रभु मिल जाते हैं ।
तब सबका प्यार उन्हें मिलता वे अनुपम आनन्द पाते हैं॥11॥
8776
स पवस्व सहमानः पृतन्यून्त्सेधन्रक्षांस्यप दुर्गहाणि ।
स्वायुधः सासह्वान्त्सोम शत्रून् ॥12॥
जननी - जन्मभूमि रक्षित हो अतुलित आयुध का अन्वेषण हो ।
देश- भूमि यह रहे सुरक्षित हर हाल में इसका संरक्षण हो ॥12॥
सारगर्भित दोहे...
ReplyDeleteदेश- भूमि यह रहे सुरक्षित हर हाल में इसका संरक्षण हो
ReplyDeleteमंगलकामनाएं आपको !!
देव शक्तियाँ सदा हमारा पथ प्रशस्त करें..
ReplyDeleteप्रभुप्रेरित है सृष्टिचक्र यह।
ReplyDeleteउस परमात्मा के चारो और घूमती है सारी श्रृष्टि....
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