Monday, 17 March 2014

सूक्त - 111

[ऋषि- अनानत पारुच्छेपि । देवता- पवमान सोम । छन्द- अत्यष्टि ।]

8777
अया रुचा हरिण्या पुनानो विश्वा द्वेषांसि तरति स्वयुग्वभिः सूरो न स्वयुग्वभिः।
धारा सुतस्य रोचते पुनानो अरुषो हरिः ।
विश्वा  यद्रूपा  परियात्यृक्वभिः  सप्तास्येभिरृक्वभिः ॥1॥

शूर  सूर्य - सम  ही  होता  है  वह  भी  तमस  मिटाता  है ।
वह अपनी तेजस्वी छवि से दुष्टों को सबक सिखाता है॥1॥

8778
त्वं त्यत्पणीनां विदो वसु सं मातृभिर्मर्जयसि स्व आ दम ऋतस्य धीतिभिर्दमे।
परावतो न साम तद्यत्रा रणन्ति धीतयः ।
त्रिधातुभिररुषीभिर्वयो दधे रोचमानो वयो दधे ॥2॥

भिन्न-भिन्न  प्रतिभा  से  मानव  दुनियॉ  में  जगह  बनाता  है ।
प्रभु ने हमको जो प्रतिभा दी है वह व्यक्तित्व में नजर आता है॥2॥

8779
पूर्वामनु प्रदिशं याति चेतितत्सं रश्मिभिर्यतते दर्शतो रथो दैव्यो 
दर्शतो रथः । अग्मन्नुक्थानि पौंस्येन्द्रं जैत्राय हर्षयन् ।
वज्रश्च   यद्भवथो   अनपच्युता   समत्स्वनपच्युता  ॥3॥

दिव्य तेज हो हर मानव में अन्धकार  भी  डर-कर  भागे ।
हर प्राणी यश-वैभव पाए तमो-निशा से हर कोई जागे॥3॥    

4 comments:

  1. होली की शुभकामनायें...

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    1. दिव्य तेज हो हर मानव में अन्धकार भी डर-कर भागे ।
      हर प्राणी यश-वैभव पाए तमो-निशा से हर कोई जागे॥3॥
      बहुत सुंदर ....सार्थक..

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  2. जागरण ही प्राप्य है..

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  3. जगत चलाने में लगी प्रतिभा का कुछ अंश मानव को भी मिला है, तभी वह जी पा रहा है।

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