[ऋषि- अन्धीगु श्यावाश्वि । देवता- पवमान सोम । छन्द-अनुष्टुप्-गायत्री ।]
8645
पुरोजिती वो अन्धसः सुताय मादयित्नवे ।
अप श्वानं श्नथिष्टन सखायो दीर्घजिह्वय्म्॥1॥
शब्द-ब्रह्म है वह परमात्मा वही पूज्य है वह प्रणम्य है ।
परमात्मा को कवि कहते हैं पूजनीय वह ही वरेण्य है॥1॥
8646
यो धारया पावकया परिप्रस्यन्दते सुतः ।
इन्दुरश्वो न कृत्व्यः ॥2॥
अति समर्थ है वह परमात्मा सबको पावन वही बनाता ।
सर्व-व्याप्त है उसकी सत्ता घट-घट में वही नज़र आता॥2॥
8647
तं दुरोषमभी नरः सोमं विश्वाच्या धिया ।
यज्ञं हिन्वन्त्यद्रिभिः ॥3॥
उस पावन प्रभु परमात्मा का चित्त - वृत्ति से होता बोध ।
वेदों में वे यज्ञ - देव हैं इस पर भी हो जाए परि- शोध॥3॥
8648
सुतासो मधुमत्तमा: सोमा इन्द्राय मन्दिनः ।
पवित्रवन्तो अक्षरन्देवान्गच्छन्तु वो मदा:॥4॥
प्रभु का सौम्य भाव हम पा लें तो सार्थक हो जाए जीवन ।
धर्म आचरण में आ जाए तो पुलकित हो जाए तन-मन॥4॥
8649
इन्दुरिन्द्राय पवत इति देवासो अब्रुवन् ।
वाचस्पतिर्मखस्यते विश्वस्येशान ओजसा॥5॥
हे देदीप्यमान परमात्मा कर्म - योग का पाठ - पढाओ ।
हम भी सान्निध्य तुम्हारा पायें ऐसी कोई युक्ति बताओ॥5॥
8650
सहस्त्रधारः पवते समुद्रो वाचमीङ्खयः ।
सोमः पती रयीणां सखेन्द्रस्य दिवे-दिवे॥6॥
अनन्त-बलों का वह स्वामी है वह आनन्द का सागर है ।
वह ही वाणी का वैभव है अमृत से भरा हुआ गागर है ॥6॥
8651
अयं पूषा रयिर्भगः सोमः पुनानो अर्षति ।
पतिर्विश्वस्य भूमनो व्यख्यद्रोदसी उभे॥7॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर तुम यश - वैभव का देना दान ।
पावन हमें बनाना प्रभु - वर दीन - बन्धु मेरे भगवान ॥7॥
8652
समु प्रिया अनूषत गावो मदाय घृष्वयः ।
सोमासः कृण्वते पथः पवमानास इन्दवः॥8॥
जो इन्द्रिय प्रभु से प्रेरित है वह ही पाती है परमानन्द ।
परमात्मा का पद पावन है गुण-निधान हैं आनंद- कन्द॥8॥
8653
य ओजिष्ठस्तमा भर पवमान श्रवाय्यम् ।
यः पञ्च चर्षणीरभि रयिं येन वनामहै॥9॥
वह परमेश्वर ओजस्वी है है श्रवणीय और मननीय ।
पञ्च - प्राण संस्कारित करते यश - वैभव देना नमनीय ॥9॥
8654
सोमा: पवन्त इन्दवोSस्मभ्यं गातुवित्तमा: ।
मित्रा: सुवाना अरेपसः स्वाध्यः स्वर्विदः॥10॥
परमेश्वर गुण के निधान हैं कण - कण में वह विद्यमान हैं ।
जो भी पावन आत्मायें हैं प्रभु के निकट उदीय- मान हैं ॥10॥
8655
सुष्वाणासो व्यद्रिभिश्चिताना गोरधि त्वचि ।
इषमस्मभ्यमभितः समस्वरन् वसुविदः॥11॥
सुमिरन से सुख - वैभव बढता योग से मिलता ब्रह्मानन्द ।
अपने हाथों में सब कुछ है पायें दुख या फिर आनन्द ॥11॥
8656
एते पूता विपश्चितः सोमासो दध्याशिरः ।
सूर्यासो न दर्शतासो जिगत्नवो ध्रुवा घृते॥12॥
जो जन अन्वेषण करते हैं अपने मन की जो सुनते हैं ।
उनके मुख की आभा अद्भुत प्रभु की झलक लिए फिरते हैं॥12॥
8657
प्र सुन्वानस्यान्धसो मर्तो न वृत तद्वचः ।
अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः॥13॥
प्रभु उपासना करने वाले सत् - संगति का रखें ध्यान ।
सोच-समझ कर चलें राह पर छू न ले उनको अभिमान॥13॥
8658
आ जामिरत्के अव्यत भुजे न पुत्र ओण्योः ।
सरज्जारो न योषणां वरो न योनिमासदम्॥14॥
श्रुतियॉ सदाचार सिखलातीं शुभ- चिन्तन है अपना ध्येय ।
प्रभु-सान्निध्य हमें मिल जाए यही प्रेय है यही है श्रेय॥14॥
8659
स वीरो दक्षसाधनो वि यस्तस्तम्भ रोदसी।
हरिः पवित्रे अव्यत वेधा न योनिमासदम्॥15॥
सभी गुणों का वह मालिक है सभी शक्तियों का स्वामी ।
वह अवगुण को हर लेता है अति अद्भुत अन्तर्यामी ॥15॥
8660
अव्यो वारेभिः पवते सोमो गव्ये अधि त्वचि ।
कनिक्रदद्वृषा हरिरिन्द्रस्याभ्येति निष्कृतम्॥16॥
कर्म-योग का साधक प्रभु के अत्यन्त निकट ही रहता है ।
प्रभु सबको आनन्द लुटाता सबकी रक्षा करता है ॥16॥
8645
पुरोजिती वो अन्धसः सुताय मादयित्नवे ।
अप श्वानं श्नथिष्टन सखायो दीर्घजिह्वय्म्॥1॥
शब्द-ब्रह्म है वह परमात्मा वही पूज्य है वह प्रणम्य है ।
परमात्मा को कवि कहते हैं पूजनीय वह ही वरेण्य है॥1॥
8646
यो धारया पावकया परिप्रस्यन्दते सुतः ।
इन्दुरश्वो न कृत्व्यः ॥2॥
अति समर्थ है वह परमात्मा सबको पावन वही बनाता ।
सर्व-व्याप्त है उसकी सत्ता घट-घट में वही नज़र आता॥2॥
8647
तं दुरोषमभी नरः सोमं विश्वाच्या धिया ।
यज्ञं हिन्वन्त्यद्रिभिः ॥3॥
उस पावन प्रभु परमात्मा का चित्त - वृत्ति से होता बोध ।
वेदों में वे यज्ञ - देव हैं इस पर भी हो जाए परि- शोध॥3॥
8648
सुतासो मधुमत्तमा: सोमा इन्द्राय मन्दिनः ।
पवित्रवन्तो अक्षरन्देवान्गच्छन्तु वो मदा:॥4॥
प्रभु का सौम्य भाव हम पा लें तो सार्थक हो जाए जीवन ।
धर्म आचरण में आ जाए तो पुलकित हो जाए तन-मन॥4॥
8649
इन्दुरिन्द्राय पवत इति देवासो अब्रुवन् ।
वाचस्पतिर्मखस्यते विश्वस्येशान ओजसा॥5॥
हे देदीप्यमान परमात्मा कर्म - योग का पाठ - पढाओ ।
हम भी सान्निध्य तुम्हारा पायें ऐसी कोई युक्ति बताओ॥5॥
8650
सहस्त्रधारः पवते समुद्रो वाचमीङ्खयः ।
सोमः पती रयीणां सखेन्द्रस्य दिवे-दिवे॥6॥
अनन्त-बलों का वह स्वामी है वह आनन्द का सागर है ।
वह ही वाणी का वैभव है अमृत से भरा हुआ गागर है ॥6॥
8651
अयं पूषा रयिर्भगः सोमः पुनानो अर्षति ।
पतिर्विश्वस्य भूमनो व्यख्यद्रोदसी उभे॥7॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर तुम यश - वैभव का देना दान ।
पावन हमें बनाना प्रभु - वर दीन - बन्धु मेरे भगवान ॥7॥
8652
समु प्रिया अनूषत गावो मदाय घृष्वयः ।
सोमासः कृण्वते पथः पवमानास इन्दवः॥8॥
जो इन्द्रिय प्रभु से प्रेरित है वह ही पाती है परमानन्द ।
परमात्मा का पद पावन है गुण-निधान हैं आनंद- कन्द॥8॥
8653
य ओजिष्ठस्तमा भर पवमान श्रवाय्यम् ।
यः पञ्च चर्षणीरभि रयिं येन वनामहै॥9॥
वह परमेश्वर ओजस्वी है है श्रवणीय और मननीय ।
पञ्च - प्राण संस्कारित करते यश - वैभव देना नमनीय ॥9॥
8654
सोमा: पवन्त इन्दवोSस्मभ्यं गातुवित्तमा: ।
मित्रा: सुवाना अरेपसः स्वाध्यः स्वर्विदः॥10॥
परमेश्वर गुण के निधान हैं कण - कण में वह विद्यमान हैं ।
जो भी पावन आत्मायें हैं प्रभु के निकट उदीय- मान हैं ॥10॥
8655
सुष्वाणासो व्यद्रिभिश्चिताना गोरधि त्वचि ।
इषमस्मभ्यमभितः समस्वरन् वसुविदः॥11॥
सुमिरन से सुख - वैभव बढता योग से मिलता ब्रह्मानन्द ।
अपने हाथों में सब कुछ है पायें दुख या फिर आनन्द ॥11॥
8656
एते पूता विपश्चितः सोमासो दध्याशिरः ।
सूर्यासो न दर्शतासो जिगत्नवो ध्रुवा घृते॥12॥
जो जन अन्वेषण करते हैं अपने मन की जो सुनते हैं ।
उनके मुख की आभा अद्भुत प्रभु की झलक लिए फिरते हैं॥12॥
8657
प्र सुन्वानस्यान्धसो मर्तो न वृत तद्वचः ।
अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः॥13॥
प्रभु उपासना करने वाले सत् - संगति का रखें ध्यान ।
सोच-समझ कर चलें राह पर छू न ले उनको अभिमान॥13॥
8658
आ जामिरत्के अव्यत भुजे न पुत्र ओण्योः ।
सरज्जारो न योषणां वरो न योनिमासदम्॥14॥
श्रुतियॉ सदाचार सिखलातीं शुभ- चिन्तन है अपना ध्येय ।
प्रभु-सान्निध्य हमें मिल जाए यही प्रेय है यही है श्रेय॥14॥
8659
स वीरो दक्षसाधनो वि यस्तस्तम्भ रोदसी।
हरिः पवित्रे अव्यत वेधा न योनिमासदम्॥15॥
सभी गुणों का वह मालिक है सभी शक्तियों का स्वामी ।
वह अवगुण को हर लेता है अति अद्भुत अन्तर्यामी ॥15॥
8660
अव्यो वारेभिः पवते सोमो गव्ये अधि त्वचि ।
कनिक्रदद्वृषा हरिरिन्द्रस्याभ्येति निष्कृतम्॥16॥
कर्म-योग का साधक प्रभु के अत्यन्त निकट ही रहता है ।
प्रभु सबको आनन्द लुटाता सबकी रक्षा करता है ॥16॥
प्रभु उपासना करने वाले सत् - संगति का रखें ध्यान ।
ReplyDeleteसोच-समझ कर चलें राह पर छू न ले उनको अभिमान॥13॥
अभिमान ही तो पर्दा है..सुंदर बोध..
सकल भाग्य का स्रोतस्थल वह।
ReplyDeleteकर्म-योग का साधक प्रभु के अत्यन्त निकट ही रहता है ।
ReplyDeleteप्रभु सबको आनन्द लुटाता सबकी रक्षा करता है ॥16॥
...सच में कर्म से बड़ा कुछ नहीं जग में प्रभु को प्राप्त करने की राह में...बहुत ही बोधगम्य और अद्भुत प्रस्तुति...आभार
सुंदर भावानुवाद...
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