[ऋषि- पर्वत- नारद । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।]
8681
तं वः सखायो मदाय पुनानमभि गायत ।
शिशुं न यज्ञैः स्वदयन्त गूर्तिभिः ॥1॥
प्रभु की महिमा का जो मानव सुमिरन सदा किया करता है ।
वह साधक पावन मन पाकर प्रभु की कृपा प्राप्त करता है॥1॥
8682
सं वत्सइव मातृभिरिन्दुर्हिन्वानो अज्यते ।
देवावीर्मदो मतिभिः परिष्कृतः ॥2॥
आलोक-रूप है वह परमात्मा हम जिसकी पूजा करते हैं ।
निर्मल मन वाले सज्जन का सुमिरन साधक करते हैं॥2॥
8683
अयं दक्षाय साधनोSयं शर्धाय वीतये ।
अयं देवेभ्यो मधुमत्तमः सुतः ॥3॥
अत्यन्त दक्ष है वह परमात्मा वह बलशाली आनन्द-मय है।
यदि उनसे कुछ पाना चाहें मञ्जिल शरणमात्र में तय है॥3॥
8684
गोमन्न इन्द्रो अश्ववत्सुतः सुदक्ष धन्व ।
शुचिं ते वर्णमधि गोषु दीधरम् ॥4॥
सभी जगह अभिव्यक्ति तुम्हारी तुम कण-कण में रहते हो ।
हम में जो थोडा सा गुण है उसको रेखाञ्कित करते हो॥4॥
8685
स नो हरीणां पत इन्दो देवप्सरस्तमः ।
सखेव सख्ये नर्यो रुचे भव ॥5॥
आलोक लुटाता जैसे सूरज हम सबको मुखर बनाता है ।
वैसे ही सबके ज्ञान- कोष को प्रभु ही प्रखर बनाता है ॥5॥
8686
सनेमि त्वमस्मदॉ अदेवं कं चिदत्रिणम् ।
साह्वॉ इन्दो परि बाधो अप द्वयुम् ॥6॥
हे प्रभु दया-दृष्टि तुम देना तुम हम सबकी रक्षा करना ।
दुष्टों से तुम हमें बचाना वरद-हस्त हम पर रखना ॥6॥
8681
तं वः सखायो मदाय पुनानमभि गायत ।
शिशुं न यज्ञैः स्वदयन्त गूर्तिभिः ॥1॥
प्रभु की महिमा का जो मानव सुमिरन सदा किया करता है ।
वह साधक पावन मन पाकर प्रभु की कृपा प्राप्त करता है॥1॥
8682
सं वत्सइव मातृभिरिन्दुर्हिन्वानो अज्यते ।
देवावीर्मदो मतिभिः परिष्कृतः ॥2॥
आलोक-रूप है वह परमात्मा हम जिसकी पूजा करते हैं ।
निर्मल मन वाले सज्जन का सुमिरन साधक करते हैं॥2॥
8683
अयं दक्षाय साधनोSयं शर्धाय वीतये ।
अयं देवेभ्यो मधुमत्तमः सुतः ॥3॥
अत्यन्त दक्ष है वह परमात्मा वह बलशाली आनन्द-मय है।
यदि उनसे कुछ पाना चाहें मञ्जिल शरणमात्र में तय है॥3॥
8684
गोमन्न इन्द्रो अश्ववत्सुतः सुदक्ष धन्व ।
शुचिं ते वर्णमधि गोषु दीधरम् ॥4॥
सभी जगह अभिव्यक्ति तुम्हारी तुम कण-कण में रहते हो ।
हम में जो थोडा सा गुण है उसको रेखाञ्कित करते हो॥4॥
8685
स नो हरीणां पत इन्दो देवप्सरस्तमः ।
सखेव सख्ये नर्यो रुचे भव ॥5॥
आलोक लुटाता जैसे सूरज हम सबको मुखर बनाता है ।
वैसे ही सबके ज्ञान- कोष को प्रभु ही प्रखर बनाता है ॥5॥
8686
सनेमि त्वमस्मदॉ अदेवं कं चिदत्रिणम् ।
साह्वॉ इन्दो परि बाधो अप द्वयुम् ॥6॥
हे प्रभु दया-दृष्टि तुम देना तुम हम सबकी रक्षा करना ।
दुष्टों से तुम हमें बचाना वरद-हस्त हम पर रखना ॥6॥
प्रभु की महिमा न्यारी...
ReplyDeleteसभी जगह अभिव्यक्ति तुम्हारी तुम कण-कण में रहते हो ।
ReplyDeleteहम में जो थोडा सा गुण है उसको रेखाञ्कित करते हो
यही है परमेश्वर की पहचान।
ReplyDeleteआलोक लुटाता जैसे सूरज हम सबको मुखर बनाता है ।
वैसे ही सबके ज्ञान- कोष को प्रभु ही प्रखर बनाता है ॥5॥
परमात्मा ज्ञान का प्रतीक है..