Sunday, 23 March 2014

सूक्त - 105

[ऋषि- पर्वत- नारद । देवता- पवमान सोम । छन्द- उष्णिक् ।] 

8681
तं वः सखायो मदाय पुनानमभि गायत ।
शिशुं  न  यज्ञैः  स्वदयन्त  गूर्तिभिः ॥1॥

प्रभु की महिमा का जो मानव सुमिरन सदा किया करता है ।
वह साधक पावन मन पाकर प्रभु की कृपा प्राप्त करता है॥1॥

8682
सं वत्सइव मातृभिरिन्दुर्हिन्वानो अज्यते ।
देवावीर्मदो मतिभिः परिष्कृतः ॥2॥

आलोक-रूप है वह परमात्मा हम जिसकी पूजा करते हैं ।
निर्मल मन वाले सज्जन का सुमिरन साधक करते हैं॥2॥

8683
अयं दक्षाय साधनोSयं शर्धाय वीतये ।
अयं देवेभ्यो मधुमत्तमः सुतः ॥3॥

अत्यन्त दक्ष है वह परमात्मा वह बलशाली आनन्द-मय है।
यदि उनसे कुछ पाना चाहें मञ्जिल शरणमात्र में तय है॥3॥

8684
गोमन्न इन्द्रो अश्ववत्सुतः सुदक्ष धन्व ।
शुचिं ते वर्णमधि गोषु दीधरम् ॥4॥

सभी जगह अभिव्यक्ति तुम्हारी तुम कण-कण में रहते हो ।
हम में जो थोडा सा गुण है उसको रेखाञ्कित  करते  हो॥4॥

8685
स नो हरीणां पत इन्दो देवप्सरस्तमः ।
सखेव सख्ये नर्यो रुचे भव ॥5॥

आलोक लुटाता जैसे  सूरज हम सबको मुखर बनाता है । 
वैसे ही सबके ज्ञान- कोष को प्रभु ही प्रखर बनाता है ॥5॥

8686
सनेमि त्वमस्मदॉ अदेवं कं चिदत्रिणम् ।
साह्वॉ इन्दो परि बाधो अप द्वयुम् ॥6॥

हे प्रभु दया-दृष्टि तुम देना तुम हम सबकी रक्षा करना ।
दुष्टों से तुम हमें बचाना वरद-हस्त हम पर रखना ॥6॥ 

   

3 comments:

  1. प्रभु की महिमा न्यारी...

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  2. सभी जगह अभिव्यक्ति तुम्हारी तुम कण-कण में रहते हो ।
    हम में जो थोडा सा गुण है उसको रेखाञ्कित करते हो

    यही है परमेश्वर की पहचान।

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  3. आलोक लुटाता जैसे सूरज हम सबको मुखर बनाता है ।
    वैसे ही सबके ज्ञान- कोष को प्रभु ही प्रखर बनाता है ॥5॥

    परमात्मा ज्ञान का प्रतीक है..

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