[ऋषि- कश्यप मारीच । देवता- पवमान सोम । छन्द- पंक्ति ।]
8784
शर्यणावति सोममिन्द्रः पिबतु वृत्रहा ।
बलं दधान आत्मनि करिष्यन्वीर्यं महदिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥1॥
जब राजा कर्म - ज्ञान दोनों में ब्रह्मानन्द - पान करता है ।
वह राजा वास्तव में वरेण्य है जो ज्ञान-कर्म में रमता है॥1॥
8785
आ पवस्व दिशां पत आर्जीकात्सोम मीढ्वः ।
ऋतवाकेन सत्येन श्रध्दया तपसा सुत इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव ॥2॥
सरल सहज सत का प्रहरी जो जन-प्रिय हो वह राजा हो ।
सन्तान- सदृश जो प्रजा को पाले ऐसा गुण वाला ही राजा हो॥2॥
8786
पर्जन्यवृध्दं महिषं तं सूर्यस्य दुहिताभरत् ।
तं गन्धर्वा:प्रत्यगृभ्णन्तं सोमे रसमादधुरिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥3॥
यश - वैभव का वह स्वामी हो खुद पर हो उसको विश्वास ।
पूरे मन से कर्तव्य निभाए अभिमान न फटके आस-पास ॥3॥
8787
ऋतं वदन्नृतद्युम्न सत्यं वदन्त्सत्यकर्मन् ।
श्रध्दां वदन्त्सोम राजन्धात्रा सोम परिष्कृत इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥4॥
यज्ञ सदृश पावन - जीवन हो सत्पथ का ही वह राही हो ।
ऐसा ही राजा यश पाता है जो गो-पालक गुण-ग्राही हो ॥4॥
8788
सत्यमुग्रस्य बृहतः सं स्त्रवन्ति संस्त्रवा: ।
सं यन्ति रसिनो रसा: पुनानो ब्रह्मणा हर इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥5॥
वेद - विज्ञ हो जिसका गुरु- वर सत्य - धर्म का अनुगामी हो ।
अक्षुण्ण अभेद्य राजधानी हो विविध सुखों का वह स्वामी हो ॥5॥
8789
यत्र ब्रह्मा पवमान छन्दस्यां3 वाचं वदन् ।
ग्राव्णा सोमे महीयते सोमेनानन्दं जनयन्निन्द्रायेन्दो परि स्त्रव्॥6॥
सरल सहज सज्जन संन्यासी जो वेद-ऋचा सँग जीता है ।
नृप उसका सम्मान करे जो ज्ञानामृत अविरल पीता है ॥6॥
8790
यत्र ज्योतिरजस्त्रं यस्मिँल्लोके स्वर्हितम् ।
तस्मिन्मां धेहि पवमानामृते लोके अक्षित इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव्॥7॥
परमेश्वर तुम ही प्रणम्य हो ज्ञान-कर्म पथ पर ले चलना ।
हमको वाणी का वैभव देना वेद - ज्ञान हो मेरा गहना ॥7॥
8791
यत्र राजा वैवस्वतो यत्रावरोधनं दिवः ।
यत्रामूर्यह्वतीरापस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव्॥8॥
सत्यासत्य भान हो हमको ज्ञान - योग हो धर्म हमारा ।
धर्म -विवेक जहॉ रहता हो वही राज्य सबको है प्यारा ॥8॥
8792
यत्रानुकामं चरणं त्रिनाके त्रिदिवे दिवः ।
लोका यत्र ज्योतिष्मन्तस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥9॥
ज्ञानी चिन्ता-मुक्त विचरता बन्धन- मुक्त वही जीता है ।
जल-धारा सँग वह बहता है वह ही प्रेम-सुधा पीता है ॥9॥
8793
यत्र कामा निकामाश्च यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम् ।
स्वधा च यत्र तृप्तिश्च तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥10॥
ब्रह्म - बोध ही मनुज - लक्ष्य है प्रभु पायें हम परमानन्द ।
जिसको पाकर दुख मिट जाए मुझको दो ऐसा आनन्द ॥10॥
8794
यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुदः प्रमुद आसते ।
कामस्य यत्राप्ता:कामास्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥11॥
सभी कामना पूर्ण करो प्रभु हम सबको दो ऐसा ज्ञान ।
आनन्द समाए भीतर - बाहर देना वही भक्ति - भगवान ॥11॥
8784
शर्यणावति सोममिन्द्रः पिबतु वृत्रहा ।
बलं दधान आत्मनि करिष्यन्वीर्यं महदिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥1॥
जब राजा कर्म - ज्ञान दोनों में ब्रह्मानन्द - पान करता है ।
वह राजा वास्तव में वरेण्य है जो ज्ञान-कर्म में रमता है॥1॥
8785
आ पवस्व दिशां पत आर्जीकात्सोम मीढ्वः ।
ऋतवाकेन सत्येन श्रध्दया तपसा सुत इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव ॥2॥
सरल सहज सत का प्रहरी जो जन-प्रिय हो वह राजा हो ।
सन्तान- सदृश जो प्रजा को पाले ऐसा गुण वाला ही राजा हो॥2॥
8786
पर्जन्यवृध्दं महिषं तं सूर्यस्य दुहिताभरत् ।
तं गन्धर्वा:प्रत्यगृभ्णन्तं सोमे रसमादधुरिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥3॥
यश - वैभव का वह स्वामी हो खुद पर हो उसको विश्वास ।
पूरे मन से कर्तव्य निभाए अभिमान न फटके आस-पास ॥3॥
8787
ऋतं वदन्नृतद्युम्न सत्यं वदन्त्सत्यकर्मन् ।
श्रध्दां वदन्त्सोम राजन्धात्रा सोम परिष्कृत इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥4॥
यज्ञ सदृश पावन - जीवन हो सत्पथ का ही वह राही हो ।
ऐसा ही राजा यश पाता है जो गो-पालक गुण-ग्राही हो ॥4॥
8788
सत्यमुग्रस्य बृहतः सं स्त्रवन्ति संस्त्रवा: ।
सं यन्ति रसिनो रसा: पुनानो ब्रह्मणा हर इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥5॥
वेद - विज्ञ हो जिसका गुरु- वर सत्य - धर्म का अनुगामी हो ।
अक्षुण्ण अभेद्य राजधानी हो विविध सुखों का वह स्वामी हो ॥5॥
8789
यत्र ब्रह्मा पवमान छन्दस्यां3 वाचं वदन् ।
ग्राव्णा सोमे महीयते सोमेनानन्दं जनयन्निन्द्रायेन्दो परि स्त्रव्॥6॥
सरल सहज सज्जन संन्यासी जो वेद-ऋचा सँग जीता है ।
नृप उसका सम्मान करे जो ज्ञानामृत अविरल पीता है ॥6॥
8790
यत्र ज्योतिरजस्त्रं यस्मिँल्लोके स्वर्हितम् ।
तस्मिन्मां धेहि पवमानामृते लोके अक्षित इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव्॥7॥
परमेश्वर तुम ही प्रणम्य हो ज्ञान-कर्म पथ पर ले चलना ।
हमको वाणी का वैभव देना वेद - ज्ञान हो मेरा गहना ॥7॥
8791
यत्र राजा वैवस्वतो यत्रावरोधनं दिवः ।
यत्रामूर्यह्वतीरापस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव्॥8॥
सत्यासत्य भान हो हमको ज्ञान - योग हो धर्म हमारा ।
धर्म -विवेक जहॉ रहता हो वही राज्य सबको है प्यारा ॥8॥
8792
यत्रानुकामं चरणं त्रिनाके त्रिदिवे दिवः ।
लोका यत्र ज्योतिष्मन्तस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥9॥
ज्ञानी चिन्ता-मुक्त विचरता बन्धन- मुक्त वही जीता है ।
जल-धारा सँग वह बहता है वह ही प्रेम-सुधा पीता है ॥9॥
8793
यत्र कामा निकामाश्च यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम् ।
स्वधा च यत्र तृप्तिश्च तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥10॥
ब्रह्म - बोध ही मनुज - लक्ष्य है प्रभु पायें हम परमानन्द ।
जिसको पाकर दुख मिट जाए मुझको दो ऐसा आनन्द ॥10॥
8794
यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुदः प्रमुद आसते ।
कामस्य यत्राप्ता:कामास्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥11॥
सभी कामना पूर्ण करो प्रभु हम सबको दो ऐसा ज्ञान ।
आनन्द समाए भीतर - बाहर देना वही भक्ति - भगवान ॥11॥
बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteचुनाव के समय शासक चयन के लिये उपयोगी सूक्त...
ReplyDeleteसभी कामना पूर्ण करो प्रभु हम सबको दो ऐसा ज्ञान ।
ReplyDeleteआनन्द समाए भीतर - बाहर देना वही भक्ति - भगवान ॥11॥
आज के माहोल के सन्दर्भ में ही कहा जा रहा हो जैसे....