Sunday, 16 March 2014

सूक्त - 113

[ऋषि- कश्यप मारीच । देवता- पवमान सोम । छन्द- पंक्ति ।]

8784
शर्यणावति सोममिन्द्रः पिबतु वृत्रहा ।
बलं दधान आत्मनि करिष्यन्वीर्यं महदिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥1॥

जब  राजा  कर्म - ज्ञान  दोनों  में  ब्रह्मानन्द -  पान  करता  है ।
वह  राजा  वास्तव  में  वरेण्य  है जो ज्ञान-कर्म  में रमता है॥1॥

8785
आ पवस्व दिशां पत आर्जीकात्सोम मीढ्वः ।
ऋतवाकेन सत्येन श्रध्दया तपसा सुत इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव ॥2॥

सरल  सहज  सत  का  प्रहरी  जो  जन-प्रिय  हो  वह  राजा  हो ।
सन्तान- सदृश जो प्रजा को पाले ऐसा गुण वाला ही राजा हो॥2॥

8786
पर्जन्यवृध्दं महिषं तं सूर्यस्य दुहिताभरत् ।
तं गन्धर्वा:प्रत्यगृभ्णन्तं सोमे रसमादधुरिन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥3॥

यश - वैभव  का  वह  स्वामी  हो  खुद   पर   हो  उसको  विश्वास ।
पूरे  मन  से  कर्तव्य  निभाए अभिमान  न फटके आस-पास ॥3॥

8787
ऋतं वदन्नृतद्युम्न सत्यं वदन्त्सत्यकर्मन् ।
श्रध्दां वदन्त्सोम राजन्धात्रा सोम परिष्कृत इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥4॥

यज्ञ  सदृश  पावन - जीवन  हो  सत्पथ  का  ही  वह  राही  हो ।
ऐसा  ही  राजा  यश  पाता  है  जो गो-पालक गुण-ग्राही हो ॥4॥

8788
सत्यमुग्रस्य बृहतः सं स्त्रवन्ति संस्त्रवा: ।
सं यन्ति रसिनो रसा: पुनानो ब्रह्मणा हर इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥5॥

वेद - विज्ञ  हो  जिसका  गुरु- वर  सत्य - धर्म का अनुगामी  हो ।
अक्षुण्ण अभेद्य राजधानी हो विविध सुखों का वह स्वामी  हो ॥5॥

8789
यत्र ब्रह्मा पवमान छन्दस्यां3 वाचं वदन् ।
ग्राव्णा सोमे महीयते सोमेनानन्दं जनयन्निन्द्रायेन्दो परि स्त्रव्॥6॥

सरल सहज सज्जन संन्यासी जो वेद-ऋचा सँग  जीता  है ।
नृप उसका सम्मान करे जो ज्ञानामृत अविरल पीता है ॥6॥

8790
यत्र ज्योतिरजस्त्रं यस्मिँल्लोके स्वर्हितम् ।
तस्मिन्मां धेहि पवमानामृते लोके अक्षित इन्द्रायेन्दो परि स्त्रव्॥7॥

परमेश्वर तुम ही प्रणम्य हो ज्ञान-कर्म पथ पर ले चलना ।
हमको वाणी का वैभव देना वेद - ज्ञान हो मेरा गहना ॥7॥

8791
यत्र राजा वैवस्वतो यत्रावरोधनं दिवः ।
यत्रामूर्यह्वतीरापस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव्॥8॥

सत्यासत्य  भान हो हमको ज्ञान - योग  हो  धर्म  हमारा ।
धर्म -विवेक जहॉ रहता हो वही राज्य सबको है प्यारा ॥8॥

8792
यत्रानुकामं चरणं त्रिनाके त्रिदिवे दिवः ।
लोका यत्र ज्योतिष्मन्तस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥9॥

ज्ञानी चिन्ता-मुक्त विचरता बन्धन- मुक्त  वही  जीता है ।
जल-धारा सँग वह बहता है वह ही प्रेम-सुधा पीता है ॥9॥

8793
यत्र कामा निकामाश्च  यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम् ।
स्वधा च यत्र तृप्तिश्च तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥10॥

ब्रह्म - बोध  ही  मनुज - लक्ष्य  है  प्रभु  पायें  हम  परमानन्द ।
जिसको  पाकर  दुख  मिट  जाए मुझको दो ऐसा आनन्द ॥10॥

8794
यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुदः प्रमुद आसते ।
कामस्य यत्राप्ता:कामास्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्त्रव॥11॥

सभी  कामना   पूर्ण  करो  प्रभु  हम  सबको  दो   ऐसा   ज्ञान ।
आनन्द  समाए  भीतर -  बाहर  देना  वही  भक्ति - भगवान ॥11॥           

3 comments:

  1. चुनाव के समय शासक चयन के लिये उपयोगी सूक्त...

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  2. सभी कामना पूर्ण करो प्रभु हम सबको दो ऐसा ज्ञान ।
    आनन्द समाए भीतर - बाहर देना वही भक्ति - भगवान ॥11॥
    आज के माहोल के सन्दर्भ में ही कहा जा रहा हो जैसे....

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