Wednesday, 5 March 2014

सूक्त - 12

[ऋषि- हविर्धान आङ्गि । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

8889
द्यावा   हक्षामा   प्रथमे   ऋतेनाभिश्रावे   भवतः   सत्यवाचा ।
देवो यन्मर्तान्यजथाय कृण्वन्त्सीदध्दोता प्रत्यंङ् स्वमसुं यन्॥1॥

यज्ञ-धूम  की अद्भुत  महिमा  पावन  बन  जाता है वितान ।
यज्ञ त्याग का ही प्रतीक है मन के बल का है अभियान॥1॥

8890
देवो   देवान्परिभूरृतेन   वहा   नो   हव्यं   प्रथमश्चिकित्वान् ।
धूमकेतुः समिधा भारृजीको मन्द्रो होता नित्यो वाचा यजीयान्॥2॥

हे  अग्नि - देव  आवाहन  है  अर्पित  है  तुमको हविष्यान्न ।
हवि-भोग सभी को पहुँचाना हमको भी देना ज्ञान-ध्यान॥2॥

8891
स्वावृग्देवस्यामृतं  यदी  गोरतो  जातासो  धारयन्त उर्वी ।
विश्वे  देवा अनु  तत्ते  यजुर्गुर्दुहे  यदेनी  दिव्यं  घृतं वा:॥3॥

हे अग्नि-देव तुम जल बरसाओ पृथ्वी पर आए  हरियाली ।
औषधियॉ पनपे पृथ्वी पर खेत में महके धान की बाली॥3॥

8892
अर्चामि वां वर्धायापो घृतस्नू द्यावाभूमी शृणुतं रोदसी मे ।
अहा यद् द्यावोSसुनीतिमयन्मध्वा नो अत्र पितरा शिशीताम्॥4॥

जन्म - भूमि  जननी  प्रणम्य  है  अभिवादन  है  बारम्बार ।
मात - पिता  का  वरद - हस्त है वेद-ज्ञान है अपरम्पार॥4॥

8893
किं  स्विन्नो  राजा  जगृहे  कदस्याति व्रतं चकृमा को वि वेद।
मित्रश्चिध्दि ष्मा जुहुराणो देवाञ्छ्लोको न यातामपि वाजो अस्ति॥5॥

जन्म - भूमि  रक्षा  करती  है  पृथ्वी  पर  औषधि  उपजाती ।
औषधि पावस-पानी-पीकर विविध रसों से भर-भर जाती॥5॥

8894
दुर्मन्त्वत्रामृतस्य   नाम   सलक्ष्मा   यद्विषुरूपा  भवाति ।
यमस्य यो मनवते सुमन्त्वग्ने तमृष्व पाह्यप्रयुच्छन्॥6॥

जल पृथ्वी-पर विविध-विधा में सुधा-सदृश सब ओर व्याप्त है।
जल  को संरक्षित करना है अति अमूल्य है जो भी प्राप्त है॥6॥

8895
यस्मिन्देवा  विदथे  मादयन्ते  विवस्वतः सदने  धारयन्ते ।
सूर्ये ज्योतिरदधुर्मास्य1क्तून्परि  द्योतनिं  चरतो अजस्त्रा॥7॥

दिव्य - बलों  के  केन्द्र  अग्नि  हैं  वे  हैं अन्वेषण - आधार ।
दिन में सूर्य रात्रि में चँदा सम्यक-सटीक है सब-व्यापार॥7॥

8896
यस्मिन्देवा मन्मनि सञ्चरनन्त्यपीच्ये3 न वयमस्य विद्म।
मित्रो नो अत्रादितिरनागान् त्सविता देवो वरुणाय वोचत्॥8॥

अग्नि - देव  के सम्मुख ही तो चारों-बल का होता सञ्चार ।
अग्नि - देव पर अन्वेषण हो रहस्य-भरा है हर व्यवहार॥8॥

8897
श्रुधी नो अग्ने सदने सधस्थे युक्ष्वा रथममृतस्य द्रवित्नुम् ।
आ नो  वह  रोदसी  देवपुत्रे माकिर्देवानामप भूरिह स्य:॥9॥

हे  पावन  पावक  प्रणम्य  हो  मानव-तन में हो जठरानल ।
पर परिशोधन आवश्यक है चाहे हो अग्नि वायु या जल॥9॥    
        

3 comments:

  1. सुंदर दोहे...

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  2. ऊर्जा चक्र में बहती अग्नि की लपटें।

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  3. ऋचाओं का सुंदर अनुवाद .....अग्निऊर्जा से ही तो संचालित है यह संसार.....

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