[ऋषि- हविर्धान आङ्गि । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8889
द्यावा हक्षामा प्रथमे ऋतेनाभिश्रावे भवतः सत्यवाचा ।
देवो यन्मर्तान्यजथाय कृण्वन्त्सीदध्दोता प्रत्यंङ् स्वमसुं यन्॥1॥
यज्ञ-धूम की अद्भुत महिमा पावन बन जाता है वितान ।
यज्ञ त्याग का ही प्रतीक है मन के बल का है अभियान॥1॥
8890
देवो देवान्परिभूरृतेन वहा नो हव्यं प्रथमश्चिकित्वान् ।
धूमकेतुः समिधा भारृजीको मन्द्रो होता नित्यो वाचा यजीयान्॥2॥
हे अग्नि - देव आवाहन है अर्पित है तुमको हविष्यान्न ।
हवि-भोग सभी को पहुँचाना हमको भी देना ज्ञान-ध्यान॥2॥
8891
स्वावृग्देवस्यामृतं यदी गोरतो जातासो धारयन्त उर्वी ।
विश्वे देवा अनु तत्ते यजुर्गुर्दुहे यदेनी दिव्यं घृतं वा:॥3॥
हे अग्नि-देव तुम जल बरसाओ पृथ्वी पर आए हरियाली ।
औषधियॉ पनपे पृथ्वी पर खेत में महके धान की बाली॥3॥
8892
अर्चामि वां वर्धायापो घृतस्नू द्यावाभूमी शृणुतं रोदसी मे ।
अहा यद् द्यावोSसुनीतिमयन्मध्वा नो अत्र पितरा शिशीताम्॥4॥
जन्म - भूमि जननी प्रणम्य है अभिवादन है बारम्बार ।
मात - पिता का वरद - हस्त है वेद-ज्ञान है अपरम्पार॥4॥
8893
किं स्विन्नो राजा जगृहे कदस्याति व्रतं चकृमा को वि वेद।
मित्रश्चिध्दि ष्मा जुहुराणो देवाञ्छ्लोको न यातामपि वाजो अस्ति॥5॥
जन्म - भूमि रक्षा करती है पृथ्वी पर औषधि उपजाती ।
औषधि पावस-पानी-पीकर विविध रसों से भर-भर जाती॥5॥
8894
दुर्मन्त्वत्रामृतस्य नाम सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति ।
यमस्य यो मनवते सुमन्त्वग्ने तमृष्व पाह्यप्रयुच्छन्॥6॥
जल पृथ्वी-पर विविध-विधा में सुधा-सदृश सब ओर व्याप्त है।
जल को संरक्षित करना है अति अमूल्य है जो भी प्राप्त है॥6॥
8895
यस्मिन्देवा विदथे मादयन्ते विवस्वतः सदने धारयन्ते ।
सूर्ये ज्योतिरदधुर्मास्य1क्तून्परि द्योतनिं चरतो अजस्त्रा॥7॥
दिव्य - बलों के केन्द्र अग्नि हैं वे हैं अन्वेषण - आधार ।
दिन में सूर्य रात्रि में चँदा सम्यक-सटीक है सब-व्यापार॥7॥
8896
यस्मिन्देवा मन्मनि सञ्चरनन्त्यपीच्ये3 न वयमस्य विद्म।
मित्रो नो अत्रादितिरनागान् त्सविता देवो वरुणाय वोचत्॥8॥
अग्नि - देव के सम्मुख ही तो चारों-बल का होता सञ्चार ।
अग्नि - देव पर अन्वेषण हो रहस्य-भरा है हर व्यवहार॥8॥
8897
श्रुधी नो अग्ने सदने सधस्थे युक्ष्वा रथममृतस्य द्रवित्नुम् ।
आ नो वह रोदसी देवपुत्रे माकिर्देवानामप भूरिह स्य:॥9॥
हे पावन पावक प्रणम्य हो मानव-तन में हो जठरानल ।
पर परिशोधन आवश्यक है चाहे हो अग्नि वायु या जल॥9॥
8889
द्यावा हक्षामा प्रथमे ऋतेनाभिश्रावे भवतः सत्यवाचा ।
देवो यन्मर्तान्यजथाय कृण्वन्त्सीदध्दोता प्रत्यंङ् स्वमसुं यन्॥1॥
यज्ञ-धूम की अद्भुत महिमा पावन बन जाता है वितान ।
यज्ञ त्याग का ही प्रतीक है मन के बल का है अभियान॥1॥
8890
देवो देवान्परिभूरृतेन वहा नो हव्यं प्रथमश्चिकित्वान् ।
धूमकेतुः समिधा भारृजीको मन्द्रो होता नित्यो वाचा यजीयान्॥2॥
हे अग्नि - देव आवाहन है अर्पित है तुमको हविष्यान्न ।
हवि-भोग सभी को पहुँचाना हमको भी देना ज्ञान-ध्यान॥2॥
8891
स्वावृग्देवस्यामृतं यदी गोरतो जातासो धारयन्त उर्वी ।
विश्वे देवा अनु तत्ते यजुर्गुर्दुहे यदेनी दिव्यं घृतं वा:॥3॥
हे अग्नि-देव तुम जल बरसाओ पृथ्वी पर आए हरियाली ।
औषधियॉ पनपे पृथ्वी पर खेत में महके धान की बाली॥3॥
8892
अर्चामि वां वर्धायापो घृतस्नू द्यावाभूमी शृणुतं रोदसी मे ।
अहा यद् द्यावोSसुनीतिमयन्मध्वा नो अत्र पितरा शिशीताम्॥4॥
जन्म - भूमि जननी प्रणम्य है अभिवादन है बारम्बार ।
मात - पिता का वरद - हस्त है वेद-ज्ञान है अपरम्पार॥4॥
8893
किं स्विन्नो राजा जगृहे कदस्याति व्रतं चकृमा को वि वेद।
मित्रश्चिध्दि ष्मा जुहुराणो देवाञ्छ्लोको न यातामपि वाजो अस्ति॥5॥
जन्म - भूमि रक्षा करती है पृथ्वी पर औषधि उपजाती ।
औषधि पावस-पानी-पीकर विविध रसों से भर-भर जाती॥5॥
8894
दुर्मन्त्वत्रामृतस्य नाम सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति ।
यमस्य यो मनवते सुमन्त्वग्ने तमृष्व पाह्यप्रयुच्छन्॥6॥
जल पृथ्वी-पर विविध-विधा में सुधा-सदृश सब ओर व्याप्त है।
जल को संरक्षित करना है अति अमूल्य है जो भी प्राप्त है॥6॥
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यस्मिन्देवा विदथे मादयन्ते विवस्वतः सदने धारयन्ते ।
सूर्ये ज्योतिरदधुर्मास्य1क्तून्परि द्योतनिं चरतो अजस्त्रा॥7॥
दिव्य - बलों के केन्द्र अग्नि हैं वे हैं अन्वेषण - आधार ।
दिन में सूर्य रात्रि में चँदा सम्यक-सटीक है सब-व्यापार॥7॥
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यस्मिन्देवा मन्मनि सञ्चरनन्त्यपीच्ये3 न वयमस्य विद्म।
मित्रो नो अत्रादितिरनागान् त्सविता देवो वरुणाय वोचत्॥8॥
अग्नि - देव के सम्मुख ही तो चारों-बल का होता सञ्चार ।
अग्नि - देव पर अन्वेषण हो रहस्य-भरा है हर व्यवहार॥8॥
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श्रुधी नो अग्ने सदने सधस्थे युक्ष्वा रथममृतस्य द्रवित्नुम् ।
आ नो वह रोदसी देवपुत्रे माकिर्देवानामप भूरिह स्य:॥9॥
हे पावन पावक प्रणम्य हो मानव-तन में हो जठरानल ।
पर परिशोधन आवश्यक है चाहे हो अग्नि वायु या जल॥9॥
सुंदर दोहे...
ReplyDeleteऊर्जा चक्र में बहती अग्नि की लपटें।
ReplyDeleteऋचाओं का सुंदर अनुवाद .....अग्निऊर्जा से ही तो संचालित है यह संसार.....
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