[ऋषि- अम्बरीष वार्षागिर । देवता- पवमान सोम । छन्द- अनुष्टुप्-बृहती ।]
8616
अभि नो वाजसातमं रयिमर्ष पुरुस्पृहम् ।
इन्दो सहस्त्रभर्णसं तुविद्युम्नं विभ्वासहम्॥1॥
अनन्त शक्ति के तुम स्वामी हो दे देना प्रभु अतुलित बल ।
अक्षय धन-धान हमें दे देना हर मुश्किल का देना हल॥1॥
8617
परि ष्य सुवानो अव्ययं रथे न वर्माव्यत ।
इन्दुरभि द्रुणा हितो हियानो धारभिरक्षा:॥2॥
तुम ही सबकी रक्षा करते कर्म-योग भी सिखलाते हो ।
जीवन-ज्योति तुम्हीं देते हो सत्पथ पर ले जाते हो॥2॥
8618
परि ष्य सुवानो अक्षा इन्दुरव्ये मदच्युतः ।
धारा य ऊर्ध्वो अध्वरे भ्राजा नैति गव्ययुः॥3॥
वह आलोक रूप परमात्मा देता सब सुख सुखद- सलाह ।
सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा आनंद-मय है ज्ञान-प्रवाह॥3॥
8619
स हि त्वं देव शश्वते वसु मर्ताय दाशुषे ।
इन्दो सहस्त्रिणं रयिं शतात्मानं विवाससि॥4॥
जो समर्थ सर्वथा योग्य है वह ही तो पाता है ऐश्वर्य ।
प्रभु वैभव सम्पन्न बना दो संतोषी हूँ मन में है धैर्य ॥4॥
8620
वयं ते अस्य वृत्रहन्वसो वस्वः पुरुस्पृहः ।
नि नेदिष्ठतमा इषः स्याम सुम्रस्याध्रिगो॥5॥
तुमसे बहुत प्रभावित हैं हम तुम हो सब वैभव के स्वामी ।
तुम सन्मार्ग हमें दिखलाना प्रभु तुम ही हो अन्तर्यामी॥5॥
8621
द्विर्यं पञ्च स्वयशसं स्वसारो अद्रिसंहतम् ।
प्रियमिन्द्रस्य काम्यं प्रस्नापयन्त्यूर्मिणम्॥6॥
कर्म-योग कमनीय बहुत है यही मार्ग हमको है प्यारा ।
सान्निध्य तुम्हारा मिल जाए तो मिल जाए एक सहारा॥6॥
8622
परि त्यं हर्यतं हरि बभ्रुं पुनन्ति वारेण ।
यो देवान्विश्वॉ इत्परि मदेन सह गच्छति॥7॥
वह सर्जक पालक - पोषक है वह ही करता है संहार ।
हम उसकी पूजा करते हैं वह ही वरेण्य है बारम्बार॥7॥
8623
अस्य वो ह्यवसा पान्तो दक्षसाधनम् ।
यः सूरिषु श्रवो बृहद्दधे स्व1र्ण हर्यतः॥8॥
उद्यम सबसे बडी साधना जिससे अभीष्ट मिल जाता है ।
प्राणी परमात्मा से रक्षित है सान्निध्य उसी का पाता है॥8॥
8624
स वां यज्ञेषु मानवी इन्दुर्जनिष्ट रोदसी ।
देवो देवी गिरिष्ठा अस्त्रेधन्तं तुविष्वणि॥9॥
ज्ञान-कर्म का फल भी शुभ है शुभ-चिन्तन का है शुभ फल ।
कर्मानुरूप हम फल पाते हैं शुभ- कर्मों का शुभ है फल ॥9॥
8625
इन्द्राय सोम पातवे वृत्रघ्ने परि षिच्यसे ।
नरे च दक्षिणावते देवाय सदनासदे ॥10॥
अज्ञान-तमस को तुम्हीं मिटाओ कर्म-योग का पाठ पढाओ।
सत्संगी हम भी बन जायें उपासना की विधि समझाओ॥10॥
8626
ते प्रत्नासो व्युष्टिषु सोमा: पवित्रे अक्षरन् ।
अपप्रोथन्तः सनुतर्हुरश्चितः प्रातस्तॉ अप्रचेतसः॥11॥
सज्जन को ही मिल सकता है परमेश्वर का पावन प्रसाद ।
सरल चित्त में वह पलता है मिट जाता है सब अवसाद॥11॥
8627
तं सखायः पुरोरुचं यूयं वयं च सूरयः ।
अश्याम वाजगन्ध्यं सनेम वाजपस्त्यम्॥12॥
पावन परमेश्वर ही प्रणम्य है जिसको सखा- भाव से भजते ।
आनन्द-घन है वह परमेश्वर वेद-पुराण सभी यह कहते॥12॥
8616
अभि नो वाजसातमं रयिमर्ष पुरुस्पृहम् ।
इन्दो सहस्त्रभर्णसं तुविद्युम्नं विभ्वासहम्॥1॥
अनन्त शक्ति के तुम स्वामी हो दे देना प्रभु अतुलित बल ।
अक्षय धन-धान हमें दे देना हर मुश्किल का देना हल॥1॥
8617
परि ष्य सुवानो अव्ययं रथे न वर्माव्यत ।
इन्दुरभि द्रुणा हितो हियानो धारभिरक्षा:॥2॥
तुम ही सबकी रक्षा करते कर्म-योग भी सिखलाते हो ।
जीवन-ज्योति तुम्हीं देते हो सत्पथ पर ले जाते हो॥2॥
8618
परि ष्य सुवानो अक्षा इन्दुरव्ये मदच्युतः ।
धारा य ऊर्ध्वो अध्वरे भ्राजा नैति गव्ययुः॥3॥
वह आलोक रूप परमात्मा देता सब सुख सुखद- सलाह ।
सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा आनंद-मय है ज्ञान-प्रवाह॥3॥
8619
स हि त्वं देव शश्वते वसु मर्ताय दाशुषे ।
इन्दो सहस्त्रिणं रयिं शतात्मानं विवाससि॥4॥
जो समर्थ सर्वथा योग्य है वह ही तो पाता है ऐश्वर्य ।
प्रभु वैभव सम्पन्न बना दो संतोषी हूँ मन में है धैर्य ॥4॥
8620
वयं ते अस्य वृत्रहन्वसो वस्वः पुरुस्पृहः ।
नि नेदिष्ठतमा इषः स्याम सुम्रस्याध्रिगो॥5॥
तुमसे बहुत प्रभावित हैं हम तुम हो सब वैभव के स्वामी ।
तुम सन्मार्ग हमें दिखलाना प्रभु तुम ही हो अन्तर्यामी॥5॥
8621
द्विर्यं पञ्च स्वयशसं स्वसारो अद्रिसंहतम् ।
प्रियमिन्द्रस्य काम्यं प्रस्नापयन्त्यूर्मिणम्॥6॥
कर्म-योग कमनीय बहुत है यही मार्ग हमको है प्यारा ।
सान्निध्य तुम्हारा मिल जाए तो मिल जाए एक सहारा॥6॥
8622
परि त्यं हर्यतं हरि बभ्रुं पुनन्ति वारेण ।
यो देवान्विश्वॉ इत्परि मदेन सह गच्छति॥7॥
वह सर्जक पालक - पोषक है वह ही करता है संहार ।
हम उसकी पूजा करते हैं वह ही वरेण्य है बारम्बार॥7॥
8623
अस्य वो ह्यवसा पान्तो दक्षसाधनम् ।
यः सूरिषु श्रवो बृहद्दधे स्व1र्ण हर्यतः॥8॥
उद्यम सबसे बडी साधना जिससे अभीष्ट मिल जाता है ।
प्राणी परमात्मा से रक्षित है सान्निध्य उसी का पाता है॥8॥
8624
स वां यज्ञेषु मानवी इन्दुर्जनिष्ट रोदसी ।
देवो देवी गिरिष्ठा अस्त्रेधन्तं तुविष्वणि॥9॥
ज्ञान-कर्म का फल भी शुभ है शुभ-चिन्तन का है शुभ फल ।
कर्मानुरूप हम फल पाते हैं शुभ- कर्मों का शुभ है फल ॥9॥
8625
इन्द्राय सोम पातवे वृत्रघ्ने परि षिच्यसे ।
नरे च दक्षिणावते देवाय सदनासदे ॥10॥
अज्ञान-तमस को तुम्हीं मिटाओ कर्म-योग का पाठ पढाओ।
सत्संगी हम भी बन जायें उपासना की विधि समझाओ॥10॥
8626
ते प्रत्नासो व्युष्टिषु सोमा: पवित्रे अक्षरन् ।
अपप्रोथन्तः सनुतर्हुरश्चितः प्रातस्तॉ अप्रचेतसः॥11॥
सज्जन को ही मिल सकता है परमेश्वर का पावन प्रसाद ।
सरल चित्त में वह पलता है मिट जाता है सब अवसाद॥11॥
8627
तं सखायः पुरोरुचं यूयं वयं च सूरयः ।
अश्याम वाजगन्ध्यं सनेम वाजपस्त्यम्॥12॥
पावन परमेश्वर ही प्रणम्य है जिसको सखा- भाव से भजते ।
आनन्द-घन है वह परमेश्वर वेद-पुराण सभी यह कहते॥12॥
bahut sunder ......aapse abhi abhi milkar aai hoon
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ReplyDeleteवह आलोक रूप परमात्मा देता सब सुख सुखद- सलाह ।
सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा आनंद-मय है ज्ञान-प्रवाह॥3॥
भावना युक्त लेखन
ईश्वरीय प्रेम की एक बूँद।
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