Thursday, 20 March 2014

सूक्त - 108

[ऋषि- गौरिवीति शाक्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- बृहती-पंक्ति-गायत्री ।]

8727
पवस्व    मधुमत्तम    इन्द्राय    सोम    क्रतुवित्तमो    मदः ।
महि द्युक्षतमो मदः ॥1॥

हे  परम - मित्र   हे  परमेश्वर  शुभ - कर्मों  के  प्रेरक  बनना ।
कर्म-योग को हम भी जानें मन में शुभ भाव तुम्हीं भरना॥1॥

8728
यस्य   ते   पीत्वा   वृषभो   वृषायतेSस्य   पीता   स्वर्विदः ।
स     सुप्रकेतो    अभ्यक्रमीदिषोSच्छा    वाजं    नैतशः॥2॥

तन और मन दोनों के बल से कर्म - योग को समझें  जानें ।
हम जीवन- रण में जीतें मन-मति की महिमा को मानें॥2॥

8729
त्वं    ह्य1ङ्ग    दैव्या    पवमान    जनिमानि    द्युमत्तमः ।
अमृतत्वाय घोषयः ॥3॥ 

सत्कर्मी सदा सफल होता है प्रभु करते सबका कल्याण ।
प्रभु ही पालन-पोषण करते परमेश्वर हैं प्राणों के प्राण॥3॥

8730
येना    नवग्वो   दध्यङ्ङपोर्णुते    येन    विप्रास  आपिरे ।
देवानां  सुम्ने  अमृतस्य  चारुणो  येन  श्रवांस्यानशुः॥4॥

परमात्मा  प्रेरित  करते  हैं  वे  सत्पथ  पर  ले  जाते  हैं ।
सत्मर्म सभी को सिखलाते सुख-सागर में नहलाते हैं॥4॥

8731
एष स्य धारया सुतोSव्यो वारेभिः पवते मदिन्तमः ।
क्रीळन्नूर्मिरपामिव ॥5॥

जैसे हम सहज श्वास लेते हैं वैसे ही प्रभु  रचना  करते  हैं ।
हम भी उनके ही स्वरूप हैं हम अन्वेषण कर सकते हैं॥5॥

8732
य  उस्त्रिया  अप्या  अन्तरश्मनो  निर्गा  अकृन्तदोजसा ।
अभि  व्रजं तत्निषे  गव्यमश्व्यं  वर्मीव  धृष्णवा  रुज ॥6॥

कण- कण में वह विद्यमान है घट-घट में है उसका वास ।
वह सब प्राणी को सुख देता है यहीं हमारे आस- पास॥6॥

8733
आ सोता  परि  षिञ्चताश्वं  न  स्तोममप्तुरं  रजस्तुरम् ।
वनक्रक्षमुदप्रुतम् ॥7॥

श्रध्दा - सरिता का जल लेकर हम उसका अभिषेक करें ।
हम नूतन आविष्कार करें मन के वृन्दावन में विचरें॥7॥

8734
सहस्त्रधारं    वृषभं    पयोवृधं    प्रियं    देवाय   जन्मने ।
ऋतेन य ऋतजातो विवावृधे  राजा  देव  ऋतं  बृहत्॥8॥

हे  प्रभु अन्न और  धन देना मनो - कामना पूरी करना ।
तुमसे बस एक निवेदन है मुझ पर दया-दृष्टि रखना॥8॥

8735
अभि   द्युम्नं   बृहद्यश   इषस्पते   दिदीह   देव   देवयुः ।
वि कोशं मध्यमं युव ॥9॥

हे  पूजनीय  हे परमेश्वर तुम अपने - पन से अपना लेना ।
यह जीवन सार्थक हो जाए अपना सान्निध्य हमें देना॥9॥

8736
आ वच्यस्व सुदक्ष चम्वोः सुतो विशां वह्निर्न विश्पतिः ।
वृष्टिं दिवः पवस्य रीतिमपां जिन्वा गविष्टये धियः॥10॥

हे प्रभु तुम सर्वत्र व्याप्त हो सज्जन को प्रेरित करते  हो ।
योगी को सद्गति देते हो सत्पथ पर प्रेषित करते हो॥10॥

8737
एतमु   त्यं   मदच्युतं   सहस्त्रधारं   वृषभं   दिवो   दुहुः ।
विश्वा वसूनि बिभ्रतम् ॥11॥

अनन्त-शक्तियों के स्वामी हो तुम हो आनन्द के आगार।
हम भी आनन्द पा सकते हैं कोटि-कोटि तेरा आभार॥11॥ 

8738
वृषा  वि  जज्ञे  जनयन्नमर्त्यः  प्रतपञ्ज्योतिषा  तमः ।
स  सुष्टुतः  कविभिर्निर्णिजं दधे त्रिधात्वस्य दंससा॥12॥

वह अनन्त है वह अमर्त्य है अज्ञान- तमस को हरता है ।
सबका सुख -साधन वह ही है सबके मन में रहता है॥12॥

8739
स   सुन्वे   यो   वसूनां   यो   रायामानेता   य  इळानाम्  ।
सोमो यः सुक्षितीनाम् ॥13॥

तुम ही जगती के सर्जक हो तुम ही यश-वैभव के स्वामी ।
हमें ज्ञान - धन देना प्रभु जी हम हैं तेरे ही अनुगामी॥13॥

8740
यस्य  न  इन्द्रः पिबाद्यस्य  मरुतो यस्य वार्यमणा भगः । 
आ   येन   मित्रावरुणा   करामह   एन्द्रमवसे   महे ॥14॥

तुम ही आनन्द के सागर हो सज्जन पाते सँग तुम्हारा ।
सद्विद्या के तुम स्वामी हो हम सबके हो तुम्हीं सहारा॥14॥

8741
इन्द्राय   सोम   पातवे   नृभिर्यतः  स्वायुधो   मदिन्तमः ।
पवस्व मधुमत्तमः ॥15॥

हे आनन्द- जनक  परमात्मा  हम भी पायें सँग तुम्हारा ।
ज्ञान-कर्म से जुड जायें हम हो जाए कल्याण हमारा॥15॥

8742
इन्द्रस्य  हार्दि  सोमधानमा  विश  समुद्रमिव  सिन्धवः ।
जुष्टो  मित्राय  वरुणाय  वायवे दिवो विष्टम्भ उत्तमः॥16॥

हे पावन पूजनीय परमेश्वर यह हवि-भोग ग्रहण कर लेना।
प्रश्न कई हैं मन के भीतर मुझको अन्वेषण बल देना॥16॥      

3 comments:

  1. कर्मयोग, यह प्रकृति कर्मरत।

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  2. काफी सुंदर प्रस्तुति...होली की बधाई आपको :)

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