[ऋषि- गौरिवीति शाक्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- बृहती-पंक्ति-गायत्री ।]
8727
पवस्व मधुमत्तम इन्द्राय सोम क्रतुवित्तमो मदः ।
महि द्युक्षतमो मदः ॥1॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर शुभ - कर्मों के प्रेरक बनना ।
कर्म-योग को हम भी जानें मन में शुभ भाव तुम्हीं भरना॥1॥
8728
यस्य ते पीत्वा वृषभो वृषायतेSस्य पीता स्वर्विदः ।
स सुप्रकेतो अभ्यक्रमीदिषोSच्छा वाजं नैतशः॥2॥
तन और मन दोनों के बल से कर्म - योग को समझें जानें ।
हम जीवन- रण में जीतें मन-मति की महिमा को मानें॥2॥
8729
त्वं ह्य1ङ्ग दैव्या पवमान जनिमानि द्युमत्तमः ।
अमृतत्वाय घोषयः ॥3॥
सत्कर्मी सदा सफल होता है प्रभु करते सबका कल्याण ।
प्रभु ही पालन-पोषण करते परमेश्वर हैं प्राणों के प्राण॥3॥
8730
येना नवग्वो दध्यङ्ङपोर्णुते येन विप्रास आपिरे ।
देवानां सुम्ने अमृतस्य चारुणो येन श्रवांस्यानशुः॥4॥
परमात्मा प्रेरित करते हैं वे सत्पथ पर ले जाते हैं ।
सत्मर्म सभी को सिखलाते सुख-सागर में नहलाते हैं॥4॥
8731
एष स्य धारया सुतोSव्यो वारेभिः पवते मदिन्तमः ।
क्रीळन्नूर्मिरपामिव ॥5॥
जैसे हम सहज श्वास लेते हैं वैसे ही प्रभु रचना करते हैं ।
हम भी उनके ही स्वरूप हैं हम अन्वेषण कर सकते हैं॥5॥
8732
य उस्त्रिया अप्या अन्तरश्मनो निर्गा अकृन्तदोजसा ।
अभि व्रजं तत्निषे गव्यमश्व्यं वर्मीव धृष्णवा रुज ॥6॥
कण- कण में वह विद्यमान है घट-घट में है उसका वास ।
वह सब प्राणी को सुख देता है यहीं हमारे आस- पास॥6॥
8733
आ सोता परि षिञ्चताश्वं न स्तोममप्तुरं रजस्तुरम् ।
वनक्रक्षमुदप्रुतम् ॥7॥
श्रध्दा - सरिता का जल लेकर हम उसका अभिषेक करें ।
हम नूतन आविष्कार करें मन के वृन्दावन में विचरें॥7॥
8734
सहस्त्रधारं वृषभं पयोवृधं प्रियं देवाय जन्मने ।
ऋतेन य ऋतजातो विवावृधे राजा देव ऋतं बृहत्॥8॥
हे प्रभु अन्न और धन देना मनो - कामना पूरी करना ।
तुमसे बस एक निवेदन है मुझ पर दया-दृष्टि रखना॥8॥
8735
अभि द्युम्नं बृहद्यश इषस्पते दिदीह देव देवयुः ।
वि कोशं मध्यमं युव ॥9॥
हे पूजनीय हे परमेश्वर तुम अपने - पन से अपना लेना ।
यह जीवन सार्थक हो जाए अपना सान्निध्य हमें देना॥9॥
8736
आ वच्यस्व सुदक्ष चम्वोः सुतो विशां वह्निर्न विश्पतिः ।
वृष्टिं दिवः पवस्य रीतिमपां जिन्वा गविष्टये धियः॥10॥
हे प्रभु तुम सर्वत्र व्याप्त हो सज्जन को प्रेरित करते हो ।
योगी को सद्गति देते हो सत्पथ पर प्रेषित करते हो॥10॥
8737
एतमु त्यं मदच्युतं सहस्त्रधारं वृषभं दिवो दुहुः ।
विश्वा वसूनि बिभ्रतम् ॥11॥
अनन्त-शक्तियों के स्वामी हो तुम हो आनन्द के आगार।
हम भी आनन्द पा सकते हैं कोटि-कोटि तेरा आभार॥11॥
8738
वृषा वि जज्ञे जनयन्नमर्त्यः प्रतपञ्ज्योतिषा तमः ।
स सुष्टुतः कविभिर्निर्णिजं दधे त्रिधात्वस्य दंससा॥12॥
वह अनन्त है वह अमर्त्य है अज्ञान- तमस को हरता है ।
सबका सुख -साधन वह ही है सबके मन में रहता है॥12॥
8739
स सुन्वे यो वसूनां यो रायामानेता य इळानाम् ।
सोमो यः सुक्षितीनाम् ॥13॥
तुम ही जगती के सर्जक हो तुम ही यश-वैभव के स्वामी ।
हमें ज्ञान - धन देना प्रभु जी हम हैं तेरे ही अनुगामी॥13॥
8740
यस्य न इन्द्रः पिबाद्यस्य मरुतो यस्य वार्यमणा भगः ।
आ येन मित्रावरुणा करामह एन्द्रमवसे महे ॥14॥
तुम ही आनन्द के सागर हो सज्जन पाते सँग तुम्हारा ।
सद्विद्या के तुम स्वामी हो हम सबके हो तुम्हीं सहारा॥14॥
8741
इन्द्राय सोम पातवे नृभिर्यतः स्वायुधो मदिन्तमः ।
पवस्व मधुमत्तमः ॥15॥
हे आनन्द- जनक परमात्मा हम भी पायें सँग तुम्हारा ।
ज्ञान-कर्म से जुड जायें हम हो जाए कल्याण हमारा॥15॥
8742
इन्द्रस्य हार्दि सोमधानमा विश समुद्रमिव सिन्धवः ।
जुष्टो मित्राय वरुणाय वायवे दिवो विष्टम्भ उत्तमः॥16॥
हे पावन पूजनीय परमेश्वर यह हवि-भोग ग्रहण कर लेना।
प्रश्न कई हैं मन के भीतर मुझको अन्वेषण बल देना॥16॥
8727
पवस्व मधुमत्तम इन्द्राय सोम क्रतुवित्तमो मदः ।
महि द्युक्षतमो मदः ॥1॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर शुभ - कर्मों के प्रेरक बनना ।
कर्म-योग को हम भी जानें मन में शुभ भाव तुम्हीं भरना॥1॥
8728
यस्य ते पीत्वा वृषभो वृषायतेSस्य पीता स्वर्विदः ।
स सुप्रकेतो अभ्यक्रमीदिषोSच्छा वाजं नैतशः॥2॥
तन और मन दोनों के बल से कर्म - योग को समझें जानें ।
हम जीवन- रण में जीतें मन-मति की महिमा को मानें॥2॥
8729
त्वं ह्य1ङ्ग दैव्या पवमान जनिमानि द्युमत्तमः ।
अमृतत्वाय घोषयः ॥3॥
सत्कर्मी सदा सफल होता है प्रभु करते सबका कल्याण ।
प्रभु ही पालन-पोषण करते परमेश्वर हैं प्राणों के प्राण॥3॥
8730
येना नवग्वो दध्यङ्ङपोर्णुते येन विप्रास आपिरे ।
देवानां सुम्ने अमृतस्य चारुणो येन श्रवांस्यानशुः॥4॥
परमात्मा प्रेरित करते हैं वे सत्पथ पर ले जाते हैं ।
सत्मर्म सभी को सिखलाते सुख-सागर में नहलाते हैं॥4॥
8731
एष स्य धारया सुतोSव्यो वारेभिः पवते मदिन्तमः ।
क्रीळन्नूर्मिरपामिव ॥5॥
जैसे हम सहज श्वास लेते हैं वैसे ही प्रभु रचना करते हैं ।
हम भी उनके ही स्वरूप हैं हम अन्वेषण कर सकते हैं॥5॥
8732
य उस्त्रिया अप्या अन्तरश्मनो निर्गा अकृन्तदोजसा ।
अभि व्रजं तत्निषे गव्यमश्व्यं वर्मीव धृष्णवा रुज ॥6॥
कण- कण में वह विद्यमान है घट-घट में है उसका वास ।
वह सब प्राणी को सुख देता है यहीं हमारे आस- पास॥6॥
8733
आ सोता परि षिञ्चताश्वं न स्तोममप्तुरं रजस्तुरम् ।
वनक्रक्षमुदप्रुतम् ॥7॥
श्रध्दा - सरिता का जल लेकर हम उसका अभिषेक करें ।
हम नूतन आविष्कार करें मन के वृन्दावन में विचरें॥7॥
8734
सहस्त्रधारं वृषभं पयोवृधं प्रियं देवाय जन्मने ।
ऋतेन य ऋतजातो विवावृधे राजा देव ऋतं बृहत्॥8॥
हे प्रभु अन्न और धन देना मनो - कामना पूरी करना ।
तुमसे बस एक निवेदन है मुझ पर दया-दृष्टि रखना॥8॥
8735
अभि द्युम्नं बृहद्यश इषस्पते दिदीह देव देवयुः ।
वि कोशं मध्यमं युव ॥9॥
हे पूजनीय हे परमेश्वर तुम अपने - पन से अपना लेना ।
यह जीवन सार्थक हो जाए अपना सान्निध्य हमें देना॥9॥
8736
आ वच्यस्व सुदक्ष चम्वोः सुतो विशां वह्निर्न विश्पतिः ।
वृष्टिं दिवः पवस्य रीतिमपां जिन्वा गविष्टये धियः॥10॥
हे प्रभु तुम सर्वत्र व्याप्त हो सज्जन को प्रेरित करते हो ।
योगी को सद्गति देते हो सत्पथ पर प्रेषित करते हो॥10॥
8737
एतमु त्यं मदच्युतं सहस्त्रधारं वृषभं दिवो दुहुः ।
विश्वा वसूनि बिभ्रतम् ॥11॥
अनन्त-शक्तियों के स्वामी हो तुम हो आनन्द के आगार।
हम भी आनन्द पा सकते हैं कोटि-कोटि तेरा आभार॥11॥
8738
वृषा वि जज्ञे जनयन्नमर्त्यः प्रतपञ्ज्योतिषा तमः ।
स सुष्टुतः कविभिर्निर्णिजं दधे त्रिधात्वस्य दंससा॥12॥
वह अनन्त है वह अमर्त्य है अज्ञान- तमस को हरता है ।
सबका सुख -साधन वह ही है सबके मन में रहता है॥12॥
8739
स सुन्वे यो वसूनां यो रायामानेता य इळानाम् ।
सोमो यः सुक्षितीनाम् ॥13॥
तुम ही जगती के सर्जक हो तुम ही यश-वैभव के स्वामी ।
हमें ज्ञान - धन देना प्रभु जी हम हैं तेरे ही अनुगामी॥13॥
8740
यस्य न इन्द्रः पिबाद्यस्य मरुतो यस्य वार्यमणा भगः ।
आ येन मित्रावरुणा करामह एन्द्रमवसे महे ॥14॥
तुम ही आनन्द के सागर हो सज्जन पाते सँग तुम्हारा ।
सद्विद्या के तुम स्वामी हो हम सबके हो तुम्हीं सहारा॥14॥
8741
इन्द्राय सोम पातवे नृभिर्यतः स्वायुधो मदिन्तमः ।
पवस्व मधुमत्तमः ॥15॥
हे आनन्द- जनक परमात्मा हम भी पायें सँग तुम्हारा ।
ज्ञान-कर्म से जुड जायें हम हो जाए कल्याण हमारा॥15॥
8742
इन्द्रस्य हार्दि सोमधानमा विश समुद्रमिव सिन्धवः ।
जुष्टो मित्राय वरुणाय वायवे दिवो विष्टम्भ उत्तमः॥16॥
हे पावन पूजनीय परमेश्वर यह हवि-भोग ग्रहण कर लेना।
प्रश्न कई हैं मन के भीतर मुझको अन्वेषण बल देना॥16॥
कर्मयोग, यह प्रकृति कर्मरत।
ReplyDeleteकाफी सुंदर प्रस्तुति...होली की बधाई आपको :)
ReplyDeleteबहुत खूब...
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