Wednesday 12 March 2014

सूक्त - 5

[ऋषि-त्रित आप्त्य । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

8827
एकः  समुद्रो  धरुणो  रयीणामस्मद्धृदो  भूरिजन्मा  वि  चष्टे ।
सिषक्त्यूधर्निण्योरुपस्थ  उत्सस्य  मध्ये  निहितं पदं वेः॥1॥

हे पावक तुम धन - धारक  हो  हृदय - वेग  के  संचालक  हो ।
नभ-जल से पावस तुम देते हो पर्जन्यों के परि-चालक हो॥1॥

8828
समानं  नीळं  वृषणो  वसाना: सं जग्मिरे महिषा अर्वतीभिः ।
ऋतस्य पदं कवयो नि पान्ति गुहा नामानि दधिरे पराणि॥2॥

प्राण-अग्नि की गति भी तुम हो पावक  देते  पावस का दान ।
सूर्य-किरण जल-रक्षा करती नभ में जल का रखती ध्यान॥2॥

8829
ऋतायिनी  मायिनी  सं  दधाते  मित्वा शिशुं जज्ञतुर्वर्धयन्ती ।
विश्वस्य नाभिं चरतो ध्रुवस्य कवेश्चित्तन्तुं मनसा वियन्तः॥3॥

अग्नि- देव  जल  धारण  करते  वे  ज्ञान - प्राप्ति के साधन हैं ।
अग्नि-सूत्र की महिमा अद्भुत सत्-जन करते आराधन  हैं॥3॥

8830
ऋतस्य  हि  वर्तनयः  सुजातमिषो  वाजाय  प्रदिवः  सचन्ते ।
अधीवासं   रोदसी  वावसाने  घृतैरन्नैर्वावृधाते  मधूनाम् ॥4॥

तुम  हो  यश-वैभव  के  स्वामी तुम  चारों - बल  हमको  देना
जल-थल-नभ में विद्यमान हो अपने-पन से अपना लेना॥4॥

8831
सप्त  स्वसृररुषीर्वावशानो  विद्वान्मध्व उज्जभारा दृशे  कम् ।
अन्तर्येमे अन्तरिक्षे पुराजा  इच्छन्वव्रिमविदत्पूषणस्य॥5॥

सप्त-वर्ण किरणों की ज्वाला और मिली रिमझिम-बरसात ।
पर्जन्यों के पोषक-रस से खिल उठता  है  पल्लव - पात॥5॥

8832
सप्त   मर्यादा:   कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहरो   गात् ।
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीळे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ॥6॥

पूव-पितर  ने  हम  बच्चों  को  सात  वर्जनायें  सिखलायी ।
जिसने इन्हें निभाया उसने उत्तम-विद्या की दौलत पायी॥6॥

8833
असच्च  सच्च परमे व्योमन् दक्षस्य  जन्मन्नदितेरुपस्थे ।
अग्निर्ह नः प्रथमजा ऋतस्य पूर्व आयुनि वृषभश्च धेनुः॥7॥

मात-पिता हो तुम्हीं हमारे तुम जग में जन-जन को प्राप्त हो।
जगती में सर्व-प्रथम तुम आए पावक तुम सर्व-व्याप्त हो॥7॥     

2 comments:

  1. सप्त-वर्ण किरणों की ज्वाला और मिली रिमझिम-बरसात ।
    पर्जन्यों के पोषक-रस से खिल उठता है पल्लव - पात॥5॥

    हरी-भरी प्रकृति और अदृश्य परमात्मा..सूर्य दोनों का स्मरण कराता है..

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  2. सूर्य के प्रकाश से सब गतिमय।

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