Saturday, 30 November 2013

सूक्त - 105

[ऋषि- सुमित्र कौत्स । देवता- इन्द्र । छन्द- उष्णिक्--अनुष्टुप्-त्रिष्टुप् ।]

10012
कदा वसो स्तोत्रं हर्यत आव श्मशा रुधद्वा:। दीर्घं सुतं वाताप्याय॥1॥

हे  इन्द्र- देव  अब  तुम्हीं  बताओ  कैसे  आवाहन  करें  तुम्हारा ।
सोम तुम्हें किस तरह परोसें प्रतिपल पथ पर है ध्यान हमारा॥1॥

10013
हरी यस्य सुयुजा विव्रता वेरर्वन्तानु शेपा।उभा रजी न केशिना पतिर्दन्॥2॥

सूर्य-सोम सम आलोकित हो सभी कार्य में कुशल तुम्हीं हो ।
महिमा-मय है नाम तुम्हारा सुख देने में समर्थ तुम्हीं हो॥2॥

10014
अप योरिन्द्रः पापज आ मर्तो न शश्रमाणो बिभीवान्।
शुभे                  यद्युयुजे                   तविषीवान्॥3॥

तुम मनुज-सदृश श्रम करते हो बाधाओं से नहीं डरते हो ।
सभी भॉंति सक्षम समर्थ हो अन्याय से तुम ही लडते हो॥3॥

10015
सचायोरिन्द्रश्श्चर्कृसष ऑं उपानसः सपर्यन्।
नदयोर्विव्रतयोः          शूर          इन्द्रः ॥4॥

सुख - वैभव  है  पास  तुम्हारे  हर  प्राणी के पूज्य तुम्हीं हो ।
विविध-विधा में तुम प्रवीण हो दुष्टों के अँकुश भी तुम हो॥4॥

10016
अधि यस्तस्थौ केशवन्ता व्यचस्वन्ता न पुष्ट्यै।
वनोति          शिप्राबभ्यां          शिप्रिणीवान्॥5॥

पुष्टि - तुष्टि  के  तुम  स्वामी हो धन-वैभव हमको भी देना ।
हे इन्द्र-देव तुम बलशाली हो हमको भी बल सौष्ठव देना॥5॥

10017
प्रास्तौदृषष्वौजा ऋष्वेभिस्ततक्ष शूरः शवसा ।
ऋभुर्न                          क्रतुभिर्मातरिश्वा ॥6॥

इन्द्र - देव और पवन-देव की मनुज- मात्र स्तुति करता है ।
निज चिन्तन से कई वस्तुयें स्वयं ही निर्मित करता है॥6॥

10018
वज्रं यश्चक्रे सुहनाय दस्यवे हिरीमशो हिरीमान्।
अरुतहनुरद्भुतं                  न              रजः ॥7॥

दुष्ट-दलन करते रहना प्रभु तुम हम सबकी रक्षा करना ।
वज्रायुध है पास तुम्हारे अब है प्रगति-पंथ पर बढना॥7॥

10019
अव नो वृजिना शिशीह्यृचा वनेमानृच:।
नाब्रह्मा   यज्ञ   ऋधग्जोषति   त्वे ॥8॥

हमसे  यदि  कोई  भूल हुई हो भगवन हमें क्षमा करना ।
पूजन-अर्चन हम करते हैं वरद-हस्त सिर पर रखना॥8॥

10020
ऊर्ध्वा यत्ते त्रेतिनी भूद्यज्ञस्य धूर्षु सद्मन्।
सजूर्नावं       स्वयशसं      सचायो: ॥9॥

तुम हो स्वयं यशस्वी तरणी हम सबको तुम पार लगाना ।
हे प्रभु फिर प्रसन्न होकर अपना हवि-भोग प्रेम से खाना॥9॥

10021
श्रिये ते पृश्निरुपसेचनी भूच्छ्रिये दर्विररेपा:।
यया     स्वे      पात्रे    सिञ्चस    उत्॥10॥

सबके  घर  में  गाय  बँधी  हो  हर  मनुज पिए गोरस पावन ।
सम्पूर्ण-सृष्टि में सभी सुखी हों कोई भी न हो अदियावन॥10॥

10022
शतं वा यदसुर्य प्रति त्वा सुमित्र इत्थास्तौद्दुर्मित्र इत्थास्तौत्।
आवो यद्दस्युह्त्ये कुत्सपुत्रं प्रावो यद्दस्युहत्ये कुत्सवत्सम्॥11॥

प्रभु सदा हमारी रक्षा करना तुम ही तो हो पालन-हार ।
हमको भी सन्मार्ग दिखाना यह ही है जीवन का सार॥11॥                     

सूक्त - 106

[ऋषि- भूतांश काश्यप । देवता- अश्विनीकुमार । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10023
उभा उ  नूनं  तदिदर्थयेथे  वि तन्वाथे धियो वस्त्रापसेव ।
सध्रीचीना यातवे प्रेमजीगः सुदिनेव पृक्ष आ तंसयेथे॥1॥

सूर्य - सोम -सम- सुख देते हो तुम दोनों अश्विनीकुमार ।
धन- वैभव तुम ही देते हो करते हो यश का विस्तार ॥1॥

10024
उष्टारेव   फर्वरेषु   श्रयेथे   प्रायोगेव   श्वात्र्या   शासुरेथः ।
दूतेव हि ष्ठो यशसा जनेषु माप स्थातं महिषेवावपानात्॥2॥

तुम दोनों साथ-साथ रहते हो जन-हित का करते हो काम।
कभी दूर न होना भगवन करते  हैं  हम  तुम्हें प्रणाम ॥2॥

10025
साकंयुजा शकुनस्येव पक्षा  पश्वेव  चित्रा  यजुरा  गमिष्टम्।
अग्निरिव देवयोरर्दीदिवांसा परिज्मानेव यजथः पुरुत्रा॥3॥

प्रणयातुर पंछी के पंखों जैसे तुम प्रेम-पाश में बँधे परस्पर।
तुम  दोनों अति तेजस्वी हो पाते हो सम्मान निरन्तर ॥3॥

10026
आपी    यो   अस्मे   पितरेव  पुत्रोग्रेव  रुचा  नृपतीव  तुर्यै ।
इर्येव  पुष्ट्यै किरणेव भुज्यै श्रुष्टीवानेव हवमा गमिष्टम्॥4॥

मातु-पिता सम प्रेम निभाते सबके हित का रखते हो ध्यान।
आदित्य-अनिल सम तेजस्वी तुम खा लेना हविष्यान्न॥4॥

10027
वंसगेव  पूषर्या  शिम्बाता  मित्रेव  ऋता  शतरा शातपन्ता ।
वाजेवोच्चा  वयसा  घर्म्येष्ठा  मेषेवेषा  सपर्या 3  पुरीषा ॥5॥

सुख- कर स्वस्थ और अति-सुंदर सूर्य-सलिल सम रहते हो।
आलोकवान हे शक्ति-पुञ्ज तुम सूर्य-सोम सम लगते हो॥5॥

10028
सृण्येव    जर्भरी    तुर्फरीतू    नैतोशेव    तुर्फरी    पर्फरीका ।
उदन्यजेव  जेमना  मदेरू   ता   मे   जराय्वजरं  मरायु ॥6॥

दुष्ट- जनों  के  काल-सदृश  हो  तुम सबका पोषण करते हो ।
सुंदर छवि आलोकित होती तन को तुम नीरोग रखते हो॥6॥

10029
पज्रेव   चर्चरं   जारं   मरायु    क्षद्येवार्थेषु    तर्तरीथ    उग्रा ।
ऋभु  नापत्खरमज्रा  खरज्रुर्वायुर्न  पर्फरत्क्षयद्रयीणाम् ॥7॥

संकट  से   तुम  हमें  बचाते  बेडा - पार  तुम्हीं   करते   हो ।
समीर सदृश सर्वत्र संचरित धन-धान से घर को भरते हो॥7॥

10030
घर्मेव   मधु  जठरे स  सनेरू  भगेविता  तुर्फरी  फारिवारम् ।
पतरेव चचरा चन्द्रनिर्णिङ्मनऋङ्गा मनन्या3 न  जग्मी॥8॥

हे अश्विनीकुमार हे महाबली तुम  ही धन की रक्षा करते हो ।
प्रभु  मनोकामना पूरी करना तुम ही जीवन को गढते हो॥8॥

10031
बृहन्तेव   गम्भरेषु   प्रतिष्ठां   पादेव  गाधं  तरते   विदाथः ।
कर्णेव शासरन हि  स्मराथोंSशेव नो  भजतं  चित्रमप्नः॥9॥

स्वभाव  तुम्हारा सहज- सरल है प्रभु -पूजन स्वीकार करो ।
सत्-कारज में मन लग जाए सद्-भावों का भण्डार भरो॥9॥

10032
आरङ्गरेव    मध्वेरयेथे     सारघेव     गवि     नीचीनबारे ।
कीनारेव स्वेदमासिष्विदाना क्षामेवोर्जा सूयवसात्सचेथे॥10॥

कृषक सदृश तुम श्रम करते हो तुम दोनों का है आवाहन ।
तुमसे श्रध्दा-पूर्वक कहते हैं ग्रहण करो तुम हविष्यान्न॥10॥

10033
ऋध्याम स्तोमं सनुयाम वाजमा नो मन्त्रं सरथेहोप यातम्।
यशो न पक्वं मधु गोष्वन्तरा भूतांशो अश्विनोःकाममप्रा:॥11॥

पावन- पथ- पर- पॉंव  रखें  हम  यही  प्रार्थना  हम  करते हैं ।
सानिध्य- सदा सबको देना प्रभु बार-बार तुमसे कहते हैं ॥11॥  
             
        

Friday, 29 November 2013

सूक्त - 107

[ऋषि- दिव्य आङिरस । देवता- दक्षिणा । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10034
आविरबभून्महि माघोनमेषां विश्वं जीवं तमसो निरमोचि ।
महि ज्योतिः पितृभिभिर्दत्तमागादुरुः पन्था दक्षिणाया अदर्शि॥1॥

सुबह - सुबह  ही  सूर्य - देवता  आते  हैं  तमस  मिटाते  हैं ।
यज्ञ-समापन जब  होता  है  यजमान  दक्षिणा  दे जाते हैं ॥1॥

10035
उच्चा  दिवि  दक्षिणावन्तो  अस्थुर्ये  अश्वदा:  सह  ते  सूर्येण ।
हिरण्यदा अमृतत्वं भजन्ते वासोदा: सोम प्र तिरन्त आयुः॥2॥

दानी  की  सतत  प्रगति  होती  है  तेज  बढाता  है अश्व - दान ।
स्वर्ण - दान  है अमर बनाता दीर्घायु बनाता  है गृह - दान ॥2॥

10036
दैवी  पूर्तिर्दक्षिणा  देवयज्या  न  कवारिभ्यो  नहि ते पृणन्ति ।
अथा   नरः   प्रयतदक्षिणासोSवद्यभिया   बहवः   पृणन्ति ॥3॥

शुभ-भाव  बहुत  ही  आवश्यक  है  दान  करें  श्रध्दा  के साथ ।
बिन श्रध्दा दान सफल नहीं होता कुछ भी आता नहीं हाथ ॥3॥

10037
शतधारं   वायुमर्कं   स्वर्विदं   नृचक्षसस्ते   अभि   चक्षते   हविः ।
ये पृणन्ति प्र च यच्छन्ति सङ्गमे ते दक्षिणा दुहते सप्तमातरम्॥4॥

अग्नि-देव आदित्य-अनिल को हम सब देते हैं हविष्यान्न ।
जो देव - गणों  को  हवि  देते  हैं वह सबसे उत्तम है दान ॥4॥

10038
दक्षिणावान्प्रथमो हूत एति  दक्षिणावानन्ग्रामणीरग्रमेति ।
तमेव मन्ये नृपतिं जनानां यः प्रथमो दक्षिणामाविवाय॥5॥

दान मनुज का नित्य-कर्म  है  जो  प्रति-दिन  देता है दान ।
वह जन-प्रिय नायक बनता है परम्परा का रखता मान ॥5॥

10039
तमेव  ऋषिं तमु  ब्रह्माणमाहुर्यज्ञन्यं  सामगामुक्थशासम् । 
स शुक्रस्य तन्वो वेद तिस्त्रो यः प्रथमो  दक्षिणया रराध॥6॥

विद्वान उसे  होता  कहते  हैं  वह  ही  करता  है  साम-गान ।
पावक के तीन स्वरूप जानता दान से पाता है वह मान॥6॥

10040
दक्षिणाश्वं  दक्षिणा  गां  ददाति  दक्षिणा  चन्द्रमुत यध्दिरण्यम्।
दक्षिणान्नं वनुते यो न आत्मा दक्षिणां वर्म कृणुते विजानन्॥7॥

अन्न - दान  की महिमा भारी दान-कवच-सम बन जाता है ।
दुख - कष्टों  से  हमें बचाता आनन्द से मन भर जाता है ॥7॥

10041
न भोजा मम्रुर्न न्यर्थमीयुर्न रिष्यन्ति न व्यथन्ते ह  भोजा:।
इदं   यद्विश्वं  भुवनं  स्वश्चैतत्सर्वं   दक्षिणैभ्यो  ददाति ॥॥8॥

दानी की कभी मृत्यु नहीं होती यश - देह उसे मिल जाता है ।
दुख  से  सदा  बचा  रहता है वह जीवन का सुख पाता है ॥8॥

10042
भोजा जिग्युः सुरभिं योनिमग्रे भोजा जिग्युर्वध्वं1या सुवासा:।
भोजा जिग्युरन्तःपेयं सुराया भोजा जिग्युर्ये अहूता:प्रयन्ति॥9॥

गो - धन  दानी  को  ही  मिलता  है  सुन्दर  पत्नी  मिलती  है ।
रिपु उसका निर्बल होता है सुख- सौभाग्य- कली खिलती है।॥9॥

10043
भोजायाश्वं सं मृजन्त्याशुं भोजायास्ते कन्या3 शुम्भमाना ।
भोजस्येदं पुष्करिणीव वेश्म परिष्कृतं देवमानेव चित्रम् ॥10॥

दानी  को  सब  कुछ  मिलता  है  सभी  तरह  के  वस्त्राभूषण।
घर उपवन सुन्दर मिलता है सुख पाता है पलपल क्षणक्षण॥10॥

10044
भोजमश्वा:  सुष्ठुवाहो  वहन्ति  सुवृद्रथो  वर्तते  दक्षिणाया: ।
भोजं देवासोSवता भरेषु भोजः शतत्रून्त्समनीकेषु जेता॥11॥

दान मनुज को बडा बनाता सत्कर्म - हेतु प्रेरित करता है ।
स्वयं श्रेष्ठ - पथ पर वह चलता औरों का प्रेरक बनता है ॥11॥
      
                

Thursday, 28 November 2013

सूक्त - 108

[ऋषि- असुर-समूह । ऋषिका- सरमा देवशुनी । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10045
किमिच्छन्ती  सरमा   प्रेदमानङ्  दूरे   ह्यध्वा  जगुरिः  पराचैः ।
कास्मेहितिः का परितक्म्यासीत्कथं रसाया अतरः पयांसि॥1॥

मेघ  पूछते  हैं  वाणी  से  इस  दुर्गम  में  तुम  कैसे  आई  हो ।
हमसे  क्या  है  सम्बन्ध तेरा किस ध्येय से यहॉं पधारी हो॥1॥

10046
इन्द्रस्य  दूतीरिषिता  चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः ।
अतिष्कदो  भियसा  तन्न  आवत्तथा रसाया अतरं पयांसि॥2॥

मैं  सूरज  की  संवदिया हूँ रवि -किरणों  के  सँग- सँग आई हूँ ।
जल - देव  मेरी  रक्षा  करते  हैं  सबका  हित करने आई हूँ ॥2॥

10047
कीदृङ्डिन्द्र  सरमे  का  दृशीका  यस्येदं  दूतीरसरः  पराकात् ।
आ च  गच्छान्मित्रमेना दधामाथा गवां गोपतिर्नो भवाति ॥3॥

वे आदित्य-देव क्या  करते  हैं  जिनकी  सन्देश - वाहिका हो ।
आओ हम अभिनन्दन करते हैं अब तुम हमारी  कनिष्ठा हो॥3॥

10048
नाहं   तं   वेद   दभ्यं   दभत्स   यस्येदं   दूतीरसरं   पराकात् ।
न  तं  गूहन्ति स्त्रवतो गभीरा  हता इन्द्रेण पणयः शयध्वे ॥4॥

मेरा  स्वामी  अति  बलशाली  उसे  कोई  नहीं  हरा  सकता ।
वह तो है तुम सब पर भारी वह कभी किसी से नहीं डरता ॥4॥

10049
इमा गावः सरमे या ऐच्छः परि दिवो अन्तान्त्सुभगे पतन्ती ।
कस्त एना अव सृजादयुध्व्युतास्माकमायुधा सन्ति तिग्मा॥5॥

तुम  इस  दुर्गम  में  आकर  भी  जन-हित  की  बातें  करती हो ।
अस्त्र - शस्त्र  हैं  पास  हमारे  आयुध  से  क्या  तुम डरती हो ॥5॥

10050
असेन्या   वः   पणयो   वचांस्यनिषव्यास्तन्वः  सन्तु   पापीः ।
अधृष्टो  व  एतवा  अस्तु  पन्था बृहस्पतिर्व उभया न मृळात्॥6॥

तुम  सब   बडे   स्वार्थी   हो  परमारथ   को  तुम   क्या   जानो ।
सूर्य - देव  में  अतुलित  बल है उनकी महिमा  को पहचानो ॥6॥

10051
अयं     निधिः   सरमे   अद्रिबुध्नो    गोभिरश्वेभिर्वसुभिर्न्यृष्टः ।
रक्षन्ति  तं  पणयो  ये   सुगोपा  रेकु  पदमलकमा  जगन्थ ॥7॥

हम  सब  भले  असुर  हैं  पर  हम धीर - वीर अति उत्साही हैं ।
तुम व्यर्थ यहॉं तक आई हो हम सब आपस में भाई-भाई हैं॥7॥

10052
एह  गमन्नृषयः  सोमशिता  अयास्यो  अङ्गिरसो  नवग्वा: ।
त एतमूर्वं  वि  भजन्त  गोनामथैतद्वचः पणयो  वमन्नित् ॥8॥

तुम  सब   मुझे तुच्छ  न  समझो  मैं  भी  हूँ  अति  बलशाली ।
दिखने  में  अति  कोमल  हूँ पर मत समझो भोली - भाली ॥8॥

10053
एवा   च   त्वं  सरम  आजगन्थ   प्रबाधिता   सहसा   दैव्येन ।
स्वसारं त्वा कृणवै मा पुनर्गा अप  ते  गवां  सुभगे भजाम ॥9॥

सुभगे  तुम  हो  बहन  हमारी  मत  जाओ  अब  उनके  पास ।
तुम जो चाहोगी  हम  वह  देंगे  यहीं  रहने का करो प्रयास ॥9॥

10054
नाहं  वेद  भ्रातृत्वं नो स्वसृत्य मिन्द्रो विदुरङ्गिरसश्च घोरा: ।
गोकामा  मे  अच्छदयन्यदायमपात  इत पणयो वरीयः ॥10॥

मैं  सम्बन्धों  से  भी  ऊपर  हूँ  उपकार  सभी  का  करती  हूँ ।
तुम भी सत्पथ पर आ जाओ बस बात यही मैं कहती हूँ ॥10॥

10055
दूरमित      पणयो      वरीय      उद्रावो      यन्तु      मिनतीरृतेन ।
बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळहा:सोमो ग्रावाण ऋ ऋषयश्च विप्रा:॥11॥

अब  तुम  सब  मेरी  बात  सुनो  यह  जगह  छोड  दो  मान  लो हार ।
सबके   हित   में   अपना   हित   है  करते  रहना  पर - उपकार ॥11॥
 

           
  

Wednesday, 27 November 2013

सूक्त - 109

[ऋषि- जुहू ब्रह्मजाया । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप-अनुष्टुप ।]

10056
तेSवदन्प्रथमा  ब्रह्मकिल्बिषेSकूपारः  सलिलो  मातरिश्वा ।
वीळुहरास्तप  उग्रो   मयोभूरापो  देवीः  प्रथमजा  ऋतेन ॥1॥

सर्व - प्रथम  परमेश्वर  ने  अव्यक्त - वाक्  को  प्रकट  किया ।
बृहस्पति  ने  अव्यक्त  दोष  को  सूझ - बूझ से  दूर किया॥1॥ 

10057
सोमो  राजा  प्रथमो  ब्रह्मजायां  पुनः  प्रायच्छदहृणीयमानः।
अन्वर्तिता वरुणो मित्र आसीदग्निर्होता हस्तगृह्या निनाय॥2॥

अव्यक्त  ब्रह्म - जाया  वाणी  को  बृहस्पति  ने  स्वीकार किया ।
आदित्य-अम्बु का अनुमोदन था अग्नि-ऑंच से ठीक किया॥2॥

10058
हस्तेनैव    ग्राह्य    आधिरस्या    ब्रह्मजायेयमिति    चेदवोचन् ।
न   दूताय  प्रह्ये  तस्थ  एषा  तथा   राष्ट्रं   गुपितं   क्षत्रियस्य ॥3॥

अप्रकट  वाणी  प्रकट  हो  गई  इसे  वेद-ऋचा  ने  ग्रहण  किया ।
पर प्रकट होकर भी अप्रकट है किञ्चित् अर्थान्तर ओढ लिया॥3॥

10059
देवा   एतस्यामवदन्त    पूर्वे    सप्तऋषयस्तपसे    ये    निषेदुः ।
भीमा  जाया  ब्राह्मणस्योपनीता  दुर्धां  दधाति  परमे व्योमन्॥4॥ 

सप्त - ऋषि  एवम्  देवताओं  ने  वाणी   की   गरिमा   गाई   है ।
यह वागीशा अति समर्थ है विलक्षण  महिमा  लेकर आई  है ॥4॥

10060
ब्रह्मचारी   चरति   वेविषद्विषः  स   देवानां   भवत्येकमङ्गम् ।
तेन जायामन्वविन्दद् बृहस्पतिःसोमेन नीतां जुह्वं1न देवा:॥5॥

ब्रह्मचारी  बहुत  सजग  होता  है  वह  सत्कर्म  सदा  करता  है ।
वह  ईश्वर  के  अँग  की  तरह  दायित्व  निभाता  रहता  है ॥5॥

10061
पुनर्वै           देवा            अददुः          पुनर्मनुष्या          उत ।
राजानः       सत्यं       कृण्वाना       ब्रह्मजायां      पुनर्ददुः  ॥6॥ 

वाणी का वैभव अति-विचित्र है विचार-विनिमय का यही श्रोत है।
आपस में हम बातें करते हैं हर चितन वाणी से ओत-प्रोत है ॥6॥

10062
पुनर्दाय          ब्रह्मजायां           कृत्वी           देवैर्निकिल्बिषम् ।
ऊर्जं               पृथिव्या              भक्त्वायोरुगायमुपासते   ॥7॥

वाक् - शक्ति   की  क्षमता  अद्भुत  यह  सब  पर  पडती  है भारी ।
प्रेम - परस्पर  यह  बोती  है  अकस्मात्  बन   जाती  आरी ॥7॥      

Tuesday, 26 November 2013

सूक्त - 110

[ऋषि- राम जामदग्न्य । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10063
समिध्दो  अद्य  मनुषो  दुरोणे  देवो  देवान्यजसि  जातवेदः ।
आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेता: ॥1॥

हे  अग्नि-देव  हे अविकारी  तुम  सब  सद्गुण  के स्वामी  हो ।
प्रज्वलित हो जाओ प्रभुवर तुम देवगणों के अनुगामी हो॥1॥

10064
तनूनपात्पथ ऋतस्य यानान्मध्वा समञ्जन्त्स्वदया सुजिह्व।
मन्मानि  धीभिरुत  यज्ञमृन्धन्देवत्रा  च  कृणुह्यध्वरं नः ॥2॥

प्रज्वलित अग्नि ही मुख है उनका मुख से खाते हैं हविष्यान्न।
वाणी का वैभव तन की रक्षा करते हैं सदा अग्नि-भगवान ॥2॥

10065
आजुह्वान    ईड्यो    वन्द्यश्चा    याह्यग्ने    वसुभिः    सजोषा: ।
त्वं  देवानामसि  यह्व  होता  स  एनान्यक्षीषितो यजीयान् ॥3॥

अग्नि - देवता   वंदनीय   हैं   वसु - सम  प्रेम   हमें  करते  हैं ।
सब   देवों   के  होता  बन कर  उनके  लिए  यज्ञ  करते  हैं ॥3॥

10066
प्राचीनं बर्हिः प्रदिशा पृथिव्या वस्तोरस्या वृज्यते अग्रे अह्नाम्।
व्यु   प्रथते   वितरं   वरीयो   देवेभ्यो   अदितये   स्योनम् ॥4॥

ऊषा  काल  में  कुशा - बिछौना  देव - गणों  के  लिए बिछा है ।
सुख - पूर्वक  आसीन  सभी हैं यज्ञ- कुण्ड भी ढँका हुआ है ॥4॥

10067
व्यचस्वतीरुर्विया वि श्रयन्तां पतिभ्यो न जनयः शुम्भमाना:।
देवीर्द्वारो   बृहतीर्विश्वमिन्वा   देवेभ्यो   भवत   सुप्रायणा: ॥5॥

प्रसंग-पुनीत-प्राप्त  है  प्रभुवर  आनन्द  का  आधिक्य  यहॉं  है ।
उषा-निशा का रूप है अद्भुत सबका सुखकर सानिध्य यहॉं है॥5॥

10068
आ  सुष्वयन्ती  यजते  उपाके  उषासानक्ता  सदतां  नि  योनौ ।
दिव्ये  योषणे  बृहती  सुरुक्मे  अधि  श्रियं  शुक्रपिशं दधाने ॥6॥

ऊषा-निशा सबको शुभ-शुभ हो यज्ञ-स्थल  पर  दोनों  आ जायें ।
वे यज्ञ-भाग की स्वामिनी हैं निज दिव्य-रूप सबको दिखलायें॥6॥

10069
दैव्या  होतारा प्रथमा  सुवाचा  मिमाना  यज्ञं  मनुषो  यजध्यै ।
प्रचोदयन्ता विदथेषु कारू प्राचीनं ज्योतिः प्रदिशा दिशन्ता॥7॥

यजमान सभी ज्ञानी पण्डित हैं आदित्य-अग्नि मंत्रों के ज्ञाता ।
यज्ञीय भावना के प्रेरक हैं कर्म - कुशल हैं भाग्य - विधाता ॥7॥

10070
आ  नो   यज्ञं   भारती   तूयमेत्विळा   मनुष्यदिह  चेतयन्ती ।
तिस्त्रो   देवीर्बर्हिरेदं   स्योनं   सरस्वती   स्वपसः   सदन्तु ॥8॥

भारती   इला  और  सरस्वती   ये  तीनों  ही  सुखदायिनी  हैं ।
सतकर्म  रूप  ये  तीन- देवियॉं  सदा-सदा  से  वरदानी  हैं ॥8॥

10071
य   इमे   द्यावापृथिवी   जनित्री   रूपैरपिंशद्भुवनानि   विश्वा ।
तमद्य होतरिषितो यजीयान्देवं  त्वष्टारमिह  यक्षि विद्वान् ॥9॥

यह  धरती  सबकी  माता  है  रवि  ने किया है इसे सुशोभित ।
आदित्य- देव की करें अर्चना आज यज्ञ में यहॉं यथोचित ॥9॥

10072
उपावसृज  त्मन्या  समञ्जन्देवानां   पाथ   ऋतुथा   हवींषि ।
वनस्पतिःशमिता देवो अग्निःस्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन॥10॥ 

हे यज्ञ - देवता तुम समर्थ हो सबके भोजन की करो व्यवस्था ।
वनस्पति शमिता अग्नि-देवता ग्रहण करें हवि यथा-तथा॥10॥

10073
सद्यो     जातो    व्यमिमीत     यज्ञमग्निर्देवानामभवत्पुरोगा: ।
अस्य होतुः प्रदिश्यृतस्य वाचि स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवा:॥11॥

यज्ञ - भाव  को  अग्नि - देव  ने  प्रज्वलित होकर प्रकट किया ।
भाव-प्रधान ऋचा का आश्रय आगन्तुक-आदित्य ने लिया॥11॥ 
 

Monday, 25 November 2013

सूक्त - 111

[ऋषि- अष्ट्रादंष्ट्र वैरूप । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10074
मनीषिणः प्र भरध्वं मनीषां यथायथा मतयः सन्ति नृणाम् ।
इन्द्रं सत्यैरेरयामा कृतेभिः स हि वीरो गिर्वणस्युर्विदानं ॥1॥

जैसे - जैसे  मति  गति  पाती  वैसा  ही  करें  हम  अनुष्ठान ।
इन्द्र-देव सब भाव समझते अभिप्राय जानकर देते ज्ञान॥1॥

10075
ऋतस्य हि  सदसो  धीतिरद्यौत्सं  गार्ष्टेयो वृषभो गोभिरानट् ।
उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण  महान्ति  चित्सं विव्याचा रजांसि॥2॥

आदित्य- देव आलोक- प्रदाता रवि-रश्मि बनाती रोज वितान।
अंतरिक्ष  में  वह   रहता  है  सूर्य - देवता  सब   से  महान ॥2॥

10076
इन्द्रः किल  श्रुत्या  अस्य  वेद  स  हि जिष्णुः  पथिकृत्सूर्याय ।
आत्मेनां कृण्वन्नच्युतो भुवद्गोःपतिर्दिवः सनजा अप्रतीत:॥3॥

सूर्य - देव  का  पथ - प्रशस्त  है  वेद-वाक् आलोक- अच्युत है ।
इन्द्रदेव-स्वर्ग-अधिपति हैं सर्वाधिक-समर्थ अति अद्भुत हैं॥3॥

10077
इन्द्रो  मह्ना  महतो  अर्णवस्य  व्रतामिनादङ्गिरोभिर्गृणानः ।
पुरुणि चिन्नि तताना रजांसि दाधार यो धरुणं सत्यताता॥4॥

परमेश्वर  महिमा  से  महान  है  वह  सबको  सतत देखता है ।
हमको  जल - राशि  वही  देता है सभी को वही परखता है ॥4॥ 

10078
इन्द्रो दिवः प्रतिमानं  पृथिव्या  विश्वा  वेद  सवना हन्ति शुष्णम्।
महीं चिद्द्यामातनोत्सूर्येण चास्कम्भ चित्कम्भनेन स्कभीयान्॥5॥

अवनि - अंतरिक्ष  का  स्वामी  समस्त  वस्तुओं  का  ज्ञाता  है ।
सबको  प्रकाश  वह  ही  देता  है  सबका  धारक  है  विधाता  है ॥5॥

10079
वज्रेण   हि   वृत्रहा   वृत्रमस्तरदेवस्य   शूशुवानस्य   माया: ।
वि  धृष्णो  अत्र  धृषता  जधन्थाथाभवो मघवन्बाह्वोजा: ॥6॥ 

हे इन्द्र - देव तुम करो सुरक्षा दुष्ट - दमन अति आवश्यक है ।
मेघ  सतत जल देते हमको बादल ही जल का संवाहक है॥6॥

10080
सचन्त   यदुषसः  सूर्येण  चित्रामस्य  केतवो  रामविन्दन् ।
आ यन्नक्षत्रं  ददृशे  दिवो  न पुनर्यतो  नकिरध्दा नु वेद ॥7॥

ऊषा - काल में सूर्य - रश्मियॉं  धरती  पर किलकारी  भरती ।
दिन में  नक्षत्र छिपे रहते हैं सॉंझ में किरणें ऊपर चढती ॥7॥

10081
दूरं  किल  प्रथमा  जग्मुरासामिन्द्रस्य  या: प्रसवे  सस्त्रुरापः ।
क्व स्विदग्रं क्व बुध्न आसामापो मध्यं क्व वो नूनमन्तः॥8॥

बहता   पानी   दूर   भागता   पता   नहीं  आरम्भ   कहॉं   है ।
कुछ  भी  पता  नहीं  चल पाता मूल कहॉं है मध्य कहॉं है ॥8॥

10082
सृजः सिन्धूँरहिना  जग्रसानॉं  आदिदेवा:  प्र  विविज्रे  जवेन ।
मुमुक्षमाणा उत  या मुमुचेSधेदेता  न  रमन्ते  नितिक्ता: ॥9॥ 

रुकी  हुई  धारा  गति - पूर्वक  सर्वत्र  भागती  ही  रहती  है ।
प्रवाहित-प्राञ्जल-पावन- पानी कभी कहीं नहीं ठहरती है ॥9॥ 

10083
सध्रीची:सिन्धुमुशतीरिवायन्त्सनाज्जार आरितःपूर्भिदासाम्।
अस्तमा ते पार्थिवा वसून्यस्मे जग्मुः सूनृता इन्द्र पूर्वीः ॥10॥

प्रवाह-पूर्ण-पावन-जल-धारा  सागर  में  जाकर  खो  जाती  है ।
हे प्रभु वाणी का वैभव देना यह वाक्शक्ति मुझको भाती है॥10॥


 


 

Sunday, 24 November 2013

सूक्त - 112

[ऋषि- नभ प्रभेदन वैरूप । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10084
इन्द्र  पिब  प्रतिकामं  सुतस्य  प्रातः  सावस्तव  हि पूर्वपीतिः।
हर्षस्व   हन्तवे   शूर   शत्रूनुक्थेभिष्टे   वीर्या  3  प्र  ब्रवाम ॥1॥

तुम  ही  जगती  के  रक्षक  हो  षड्-रिपु  से रक्षा  करो हमारी ।
सोम-पान कर लो तुम प्रभु  परिमार्जित  है प्रेरणा तुम्हारी॥1॥

10085
यस्ते   रथो   मनसो   जवीयानेन्द्र   तेन   सोमपेयाय   याहि ।
तूयमा  ते  हरयः  प्र  द्रवन्तु  येभिर्यासि  वृषभिर्मन्दमानः॥2॥

मन  से  भी  अति  है  गति  तेरी  जग  की  रक्षा तुम करते हो ।
सब साधन सम्पन्न तुम्हीं हो हर जगह उपस्थित रहते हो॥2॥

10086
हरित्वता    वर्चसा    सूर्यस्य    श्रेष्ठै    रूपैस्तन्वं    स्पर्शयस्व ।
अस्माभिरिन्द्र सखिभिर्हुवानः सध्रीचीनो मादयस्वा निषद्य्॥3॥

तरनि - तेज  से  तन  मानुष  का  तुम  ही  तो  श्रेष्ठ  बनाते  हो ।
जीवन  में  आनन्द  घोल - कर  सुख - कर-मार्ग  बताते हो ॥3॥

10087
यस्य  त्यत्ते  महिमानं  मदेष्विमे  मही  रोदसी  नाविविक्ताम् ।
तदोक आ हरिभिरिन्द्र  युक्तैः प्रियेभिर्याहि  प्रियमन्नमच्छ॥4॥

तेरी गरिमा और महिमा  का  पृथ्वी  पर  भी  होता  गुण-गान ।
मन में तुम्हीं बसे हो प्रभुवर  ग्रहण  करो  अब  हविष्यान्न ॥4॥

10088
यस्य   शश्वत्पपिवॉं   इन्द्र   शत्रूननानुकृत्या   रण्या   चकर्थ ।
स ते पुरन्धिं तविषीमियर्ति स ते मदाय  सुत  इन्द्र  सोमः ॥5॥

अति- अद्भुत  बल  के  स्वामी  हो  दुष्टों  पर  करते  रहो  प्रहार । 
सज्जन प्रोत्साहित करते हैं सोम - पान  कर  लो  इस बार ॥5॥

10089
इदं    ते   पात्रं   सनवित्तमिन्द्र   पिबा    सोममेना    शतक्रतो ।
पूर्ण आहाओ मदिरस्य मध्वो यं विश्व इदभिहर्यन्ति  देवा: ॥6॥ 

हे  यज्ञ - कुण्ड  के  संचालक  हम  यह  अभिलाषा  करते  हैं ।
पुरातन  सोम - पात्र में ही प्रभु तुम्हें सोम  प्रेषित  करते हैं ॥6॥

10090
वि  हि  त्वामिन्द्र  पुरुधा  जनासो  हितप्रयसो  वृषभ  ह्वयन्ते ।
अस्माकं   ते   मधुमत्तमानीमा   भुवन्त्सवना   तेषु    हर्य ॥7॥

हवि - भोग  तुम्हें  अर्पित  करते  हैं  सोम हेतु करते आवाहन ।
मन से प्रभु स्वीकार करें अर्पित है तुम्हें  सोम- मन-भावन॥7॥

10091
प्र  त  इन्द्र  पूव्र्याणि  प्र  नूनं   वीर्या   वोचं   प्रथमा   कृतानि ।
सतीनमन्युरश्रथायो   अद्रिं   सुवेदनामकृणोर्ब्रह्मणे   गाम्  ॥8॥

हे  प्रभुवर  तुम  पराक्रमी  हो  सबका  ध्यान  तुम्हीं  रखते  हो ।
तेरी महिमा सबसे न्यारी तुम ही जल-दान सदा  करते  हो ॥8॥

10092
नि   षु   सीद   गणपते   गणेषु   त्वामाहुर्विप्रतमं   कवीनाम् ।
न  ऋते  त्वत्क्रियते  किंचनारे  महामर्कं  मघमञ्चित्रमर्च ॥9॥

बिन  जीवन  सब  सूना-सूना  पवन- देव  जग  के  पालक  हैं ।
देवों  के  देव  हैं  पवन- देव  पावन-पय-पावक के दायक हैं ॥9॥

10093
अभिख्या नो मघवन्नाधमानान्त्सखे बोधि वसुपते सखीनाम् ।
रणं कृधि रणकृत्सत्यशुष्माभक्ते चिदा भजा राये अस्मान्॥10॥

हे  परम-मित्र  हे  अग्नि - देव  वैभव -विज्ञान के हम याचक हैं ।
ज्ञान - बोध  हो  जाए  प्रभु - वर हम तो तेरे ही उपासक हैं ॥10॥   

Saturday, 23 November 2013

सूक्त - 113

[ऋषि- शत प्रभेदन वैरूप । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती-त्रिष्टुप ।]

10094
तमस्य    द्यावापृथिवी    सचेतसा   विश्वेभिर्देवैरनु   शुष्ममावताम् ।
यदैत्कृण्वानो महिमानमिन्द्रियं पीत्वी सोमस्य क्रतुमॉं अवर्धत॥1॥

सब  देवों  के  साथ  धरा  भी पवन को प्रोत्साहित करती है ।
मेघ  हमें  जल  दे  देते  हैं  धरती  धन-धान  से भरती है ॥1॥

10095
तमस्य विष्णुर्महिमानमोजसांशु दधन्वान्मधुनो वि रप्शते।
देवेभिरिन्द्रो मघवा  सयावभिर्वृत्रं  जघन्वॉं अभवद्वरेण्यः॥2॥

असुर- दमन अति आवश्यक है हे प्रभु सदा सुरक्षित रखना ।
प्राण -पवन -पावन पा जायें मेघों से जल बरसाते रहना ॥2॥

10096
वृत्रेण  यदहिना  बिभ्रदायुधा  समस्थिथा  युधये  शंसमाविदे ।
विश्वे ते अत्र मरुतःसह त्मनावर्धन्नुग्र महिमानमिन्द्रियम्॥3॥

इन्द्र  के  पास  वज्र  आयुध  है  दुष्ट - दमन  वे  ही  करते  हैं ।
पवन  इन्द्र  के  प्रेरक  बनकर  उनका यश - वर्धन करते हैं ॥3॥

10097
जज्ञान  एव  व्यबाधत्स्पृधः  प्रापश्यद्वीरो  अभि  पौंस्यं रणम् ।
अवृश्चदद्रिमव सस्यदःसृजदस्तभ्नान्नाकं स्वपस्यया पृथुम्॥4॥

इन्द्र   दुष्ट   के   महाकाल   हैं   वे   असुरों   के   संहारक   हैं ।
महाबली   हैं   इन्द्र - देवता   शौर्य - धैर्य   के   संवाहक   हैं ॥4॥

10098
आदिन्द्रः सत्रा तविषीरपत्यत वरीयो द्यावापृथिवी अबाधत ।
अवाभरद्ध्रिषितो वज्रमायसं शेवं मित्राय वरुणाय दाशुषे॥5॥

सूर्य - देव  और  वरुण - देव  को  वज्रायुध  प्यारा  लगता है ।
दुर्जन  उससे  भय  खाते  हैं  वह  सबकी  रक्षा  करता  है ॥5॥

10099
इन्द्रस्यात्र तविषीभ्यो विरप्शिन ऋघायतो अरंहयन्त मन्यवे।
वृत्रं   यदुग्रो   व्यवृश्चदोजसापो  बिभ्रतं  तमसा  परीवृतम् ॥6॥

सज्जन  दुर्जन  पर  भारी  है  होती  है  सदा  सत्य  की  जीत ।
झूठ की उमर बहुत कम होती मान लो तुम भी मन के मीत॥6॥

10100
या वीर्याणि प्रथमानि कर्त्वा महित्वेभिर्यतमानौ समीयतुः ।
ध्वान्तं तमोSव दध्वसे हत इन्द्रो मह्ना पूर्वहूतावपत्यत॥7॥

विजयी  हुए  इन्द्र  ही  रण  में  असुर-असत्य  की  हुई हार ।
अँधियारा मिट गया तमस पर प्रकाश ने किया पाद-प्रहार॥7॥

10101
विश्वे  देवासो  अध  वृष्ण्यानि  तेSवर्धयन्त्सोमत्या  वचस्यया ।
रध्दं वृत्रमहिमिन्द्रस्य हन्मनाग्निर्न जम्भैस्तृष्वन्नमावयत्॥8॥

हो गए देव-गण आनन्दित हुआ  इन्द्र  का  फिर सम्मान ।
सज्जनता की जीत हुई थी ग्रहण किए सब हविष्यान्न॥8॥ 

10102
भूरि  दक्षेभिर्वचनेभिरृक्वभिः  सख्येभिः  सख्यानि  प्र  वोचत।
इन्द्रो धुनिं च चुमुरिं च दम्भयञ्छ्रध्दामनस्या श्रृणुते दभीतये॥9॥

जो जन-हित में रत रहता है उसका ही होता है सम्मान ।
उसका यश बढता जाता है हर कोई उसको देता मान ॥9॥

10103
त्वं   पुरुण्या  भरा  स्वश्व्या   येभिर्मंसै   निवचनानि  शंसन् ।
सुगेभिर्विश्वा  दुरिता  तरेम  विदो षु ण उर्विया गाधमद्य॥10॥

हे  इन्द्र - देव अब तुम्हीं संभालो संकट से तुम हमें बचा लो ।
नमन तुम्हें हम करते हैं प्रभु हमें प्रेम से तुम अपना लो॥10॥      

Friday, 22 November 2013

सूक्त - 114

[ऋषि- धर्म-तापस । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप-जगती ।]

10104
घर्मा  समन्ता  त्रिवृतं  व्यापतुष्टयोर्जुष्टिं  मातरिश्वा जगाम ।
दिवस्पयो दिधिषाणा अवेषन्विदुर्देवा: सहसामानमर्कम्॥1॥

हे अग्नि - देव आदित्य - देव आलोक प्रदान तुम्हीं करते हो ।
पवन-देव की प्रसन्नता से नभ में जल की रचना रचते हो॥1॥

10105
तिस्त्रो देष्ट्राय निरृतीरुपासते  दीर्घश्रुतो वि हि जानन्तिवह्नयः ।
तासां  नि  चिक्युः कवयो निदानं  परेषु  या  गुह्येषु  व्रतेषु ॥2॥

आदित्य अनल अनिल सभी को हविष्यान्न अर्पित करते हैं ।
अग्नि-देव हैं बडे  यशस्वी  हम  सब उन्हें  नमन करते हैं ॥2॥

10106
चतुष्कपर्दा   युवतिः  सुपेशा   घृतप्रतीका   वयुनानि  वस्ते ।
तस्यां  सुपर्णा वृषणा नि षेदतुर्यत्र देवा  दधिरे भागधेयम्॥3॥

यज्ञ- वेदिका  चतुष्कोण  है  अल्पना-सजी सुन्दर लगती है ।
उस यज्ञ- कुण्ड में देव-शक्ति हविषा- भोग ग्रहण करती है॥3॥

10107
एकः सुपर्णः स समुद्रमा विवेष स इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे ।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळिह स उ रेळिह मातरम्॥4॥

प्राण - रूप इस प्राण - वायु की उपासना प्रतिदिन करते हैं ।
प्राण और  मध्यमा  परस्पर विचार - विनिमय करते हैं॥4॥

10108
सुपर्णं  विप्रा:  कवयो  वचोभिरेकं  सन्तं  बहुधा  कल्पयन्ति ।
छन्दांसि च दधतो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश॥5॥ 

ब्रह्म  एक  है  फिर  भी उसे हम  विविध नाम आकृति देते हैं ।
सप्त - छन्द  से यज्ञ  सुसज्जित सोम-पात्र  द्वादश लेते हैं ॥5॥

10109
षट्त्रिंशॉंश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम् ।
यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक्सामाभ्यां प्र रथं वर्तयन्ति॥6॥

चालीस  सोम - पात्र  होते  हैं  छन्दों  के  हैं  बारह - प्रकार ।
विधि -विधान से अनुष्ठान कर यज्ञ - रथ पाता है आकार ॥6॥

10110
चतुर्दशान्ये  महिमानो अस्य तं धीरा वाचा प्र णयन्ति सप्त ।
आप्नानं  तीर्थं क इह  प्र वोचद्येन पथा प्रपिबन्ते सुतस्य ॥7॥

यज्ञ - देव  की  महिमा  अद्भुत  यह  वेद - मंत्र का है स्थान ।
अनिवर्चनीय  है वेद- मार्ग जहॉ देव भी करते सोम-पान ॥7॥

10111
सहस्त्रधा  पञ्चदशान्युक्था  यावद्  द्यावापृथिवी  तावदित्तत् ।
सहस्त्रधा महिमानः सहस्त्रं यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक्॥8॥

ऋचा  हजारों  फिर  भी  वैदिक  सूक्तों  की अकथ  कहानी  है ।
यह  विराट  है  यह  व्यापक  है ऐसी अनन्त वेद - वाणी है॥8॥

10112
कश्छन्दसां योगमा वेद  धीरः  को  धिष्ण्यां  प्रति  वाचं  पपाद ।
कमृत्विजामष्टमं शूरमाहुर्हरी इन्द्रस्य नि चिकाय कः स्वित्॥9॥

कौन  छन्द  की  गरिमा  जाने  कौन  सी  यज्ञ - विधा को माने ।
कौन  है  होता  प्रमुख  कौन  है  कैसे  कह  दें  बिन  पहचानें ॥9॥

10113
भूम्या  अन्तं  पर्येके  चरन्ति  रथस्य  धूर्षु  युक्तासो  अस्थुः ।
श्रमस्य दायं वि भजन्त्येभ्यो यदा यमो भवति हर्म्ये हितः॥10॥

प्रभु  की  महिमा  नेति - नेति  है  कौन  उसे  कह  सकता  है ।
जो  जाना  वह  मौन  हो  गया  जो  न  जाना  चुप रहता है ॥10॥       
 

Thursday, 21 November 2013

सूक्त - 115

[ऋषि- उपस्तुत वार्ष्टिहव्य । देवता- अग्नि । छन्द- जगती-त्रिष्टुप-शक्वरी ।]

10114
चित्र  इच्छिशोस्तरुणस्य  वक्षथो न  यो  मातरावप्येति  धातवे।
अनूधा यदि जीजनदधा च नु ववक्ष सद्यो  महि  दूत्यं1 चरन्॥1॥

अग्नि  -  देव  अत्यंत  प्रखर  हैं   वे  सबको   हवि   पहुँचाते  हैं ।
उनकी  गरिमा - महिमा अद्भुत वे निज  दायित्व निभाते हैं ॥1॥

10115
अग्निर्ह नाम धायि दन्नपस्तमः सं यो वना युवते भस्मना दता।
अभिप्रमुरा  जुह्वा  स्वध्वर  इनो   न  प्रोथमानो   यवसे  वृषा ॥2॥

हे  अग्नि - देव अन्न - धन देना जीव - जगत का रखना ध्यान ।
सत्कर्म सतत सिखलाना  हमको  हे  देव तुम्हीं  हो अनुष्ठान ॥2॥

10116
तं  वो  विं  न  द्रुषदं  देवमन्धस  इन्दुं  प्रोथन्तं  प्रवपन्तमर्णवम् ।
आसा वह्निं न शोचिषा विरप्शिनं महिव्रतं न सरजन्तमध्वनः॥3॥

हे अग्नि - देव हम स्तुति करते हैं जीवन में प्रभु- प्रकाश भर दो ।
आलोक-प्रदाता तुम तेजस्वी गति-गरिमा-गुण-गागर भर दो॥3॥

10117
वि  यस्य  ते  ज्रयसानस्याजर  धक्षोर्न  वाता: परि  सन्त्यचुता:।
आ रण्वासो युयुधयो न सत्वनं त्रितं नशन्त प्र शिषन्त इष्टये॥4॥

समीर - सदृश  तुम  सभी  जगह हो तेरी महिमा सबसे न्यारी है ।
जब तुम दहन -क्रिया करते हो अनल - अनिल द्युति प्यारी है॥4॥

10118
स  इदग्निः  कण्वतमः  कण्वसखार्यः  परस्यान्तरस्य  तरुषः ।
अग्निः  पातु  गृणतो  अग्निः सूरीनग्निर्ददातु  तेषामवो  नः॥5॥

हे   अग्नि -  देव  दो  हमें  सुरक्षा  अन्न - धान  सब  तुम  देना ।
बाधाओं   को   दूर   करो   प्रभु   सखा - सदृश   अपना  लेना ॥5॥ 

10119
वाजिन्तमाय  सह्यसे  सुपित्र्य  तृषु  च्यवानो   अनु   जातवेदसे ।
अनुद्रे  चिद्यो  धृषता  वरं  सते महिन्तमाय धन्वनेदविष्यते ॥6॥ 

तुम  सर्वोत्तम  तुम  समर्थ  हो  पिता - तुल्य  पोषण  करते  हो ।
सदा  सुरक्षित  रखना  प्रभु  धन  का भण्डार तुम्हीं भरते हो ॥6॥

10120
एवाग्निर्मर्तैः   सह    सूरिभिर्वसु    ष्टवे    सहसः   सूनरो   नृभिः ।
मित्रासो न ये सुधिता ऋतायवो द्यावो न द्युम्नैरभि सन्ति मानुषान्॥7॥

तुम हो अतुलित  बल  के स्वामी  शुभ- कर्मों  के  निर्वाहक  हो ।
दिव्य - तेज  के  पुञ्ज तुम्हीं  हो सुख - संतोष- सहायक हो ॥7॥

10121
ऊर्जो  नपात्सहसावन्निति  त्वोपस्तुतस्य  वन्दते  वृषा  वाक् ।
त्वां  स्तोषाम  त्वया  सुवीरा  द्राघीय  आयुः  प्रतरं  दधाना:॥8॥

हे  अग्नि -  देव   हे   बलशाली   हम  सतत  वन्दना  करते  हैं ।
दया - दृष्टि  रखना  प्रभु  हम  पर यही निवेदन हम करते हैं ॥8॥

10122
इति त्वाग्ने वृष्टिहव्यस्य पुत्रा उपस्तुतास ऋषयोSवोचन्।तॉंश्च पाहि
गृणतश्च सूरीन्वड्वषळित्यूर्ध्वासो अनक्षन्नमो नम इत्यूर्ध्वासो अनक्षन्॥9॥

हे  अग्नि - देव हे पूजनीय- प्रभु सज्जन को सदा - सुरक्षा देना ।
तुम  ही तो सबके रखवाले हो तुम मुझको  भी अपना लेना ॥9॥     
 

Wednesday, 20 November 2013

सूक्त - 116

[ऋषि- अग्नियुत स्थौर । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10123
पिबा  सोमं  महत  इन्द्रियाय  पिबा  वृत्राय  हन्तवे  शविष्ठ ।
पिब राये शवसे  हूयमानः पिब  मध्वस्तृपदिन्द्रा वृषस्व॥1॥

हे इन्द्र - देव  हे  बलशाली  यह  सुखद  सोम-रस अर्पित  है ।
तुम हमें अन्न - धन देना प्रभु वह देना जो अभीप्सित है॥1॥

10124
अस्य  पिब  क्षुमतः प्रस्थित्स्येन्द्र  सोमस्य  वरमा सुतस्य ।
स्वस्तिदा  मनसा   मादयस्वार्वाचीनो  रेवते  सौभगाया ॥2॥

हे प्रभु तुम आनंदित होकर यह सुखद सोम स्वीकार करो ।
सबको सुख दो सबको यश दो धन-वैभव का भण्डार भरो॥2॥

10125
ममत्तु  त्वा  दिव्यः  सोम  इन्द्र  ममत्तु  यः  सूयते  पार्थिवेषु ।
ममत्तु  येन  वरिवश्चकर्थ  ममत्तु  येन  निरिणासि  शत्रून् ॥3॥

यह  दिव्य  सोम  सुख  दे  तुमको  मन  में  रहे सदा आनंद ।
श्रेष्ठ - सुखों  के  स्वामी  तुम  हो  न हो कोई भी निरानंद ॥3॥

10126
आ द्विबर्हा अमिनो यात्विन्द्रो वृषा  हरिभ्यां परिषिक्तमन्धः।
गव्या सुतस्य प्रभृतस्य मध्वः सत्रा खेदामरुशहा वृषस्व॥4॥

हे  प्रभु  आवाहन  करते हैं तुम आओ  सोम  ग्रहण  कर लो ।
शहद सदृश यह सोम यहॉं है आकर आहार प्राप्त कर लो ॥4॥

10127
नि तिग्मानि भ्राशयन्भ्राश्यान्यव स्थिरा तनुहि यातुजूनाम्।
उग्राय  ते सहो बलं  ददामि प्रतीत्या शत्रून्विगदेषु  वृश्च ॥5॥

असुरों  का  उध्दार  करो  प्रभु तुम तो सज्जन के रक्षक हो । 
सदा  नीरोग रहें हम भगवन तुम अहंकार के भक्षक हो ॥5॥

10128
व्य1र्य इन्द्र तनुहि  श्रवांस्योजः स्थिरेव धन्वनोSभिमातीः।
अस्मद्रय्ग्वावृधानः   सहोभिरनिभृष्टस्तन्वं   वावृधस्य ॥6॥ 

धन और धान  हमें भी दो  प्रभु सब कुछ रहे  सदा अनुकूल ।
जीवन के हर शिखर छुयें हम भूल से भी न हो कोई भूल॥6॥

10129
इदं   हविर्मघवन्तुभ्यं   रातं   प्रति   सम्राळहृणानो   गृभाय ।
तुभ्यं सुतो मघवन्तुभ्यं पक्वो3ध्दीन्द्र पिब च प्रस्थितस्य॥7॥

हम  आवाहन  करते हैं प्रभु यह हविष्यान्न अर्पित करते हैं ।
तुम प्रेम से ग्रहण करो प्रभुवर बस यही निवेदन करते  हैं ॥7॥

10130
अध्दीदिन्द्र प्रस्थितेमा हवींषि चनो दधिष्व पचतोत सोमम् ।
प्रयस्वन्तःप्रति हर्यामसि त्वा सत्या:सन्तु यजमानस्य कामा:॥8॥

अन्न - सोम  अर्पित है भगवन हम तेरा आवाहन करते हैं ।
मनोकामना  पूरी  करना  करो  अनुग्रह  यह  कहते  हैं ॥8॥

10131
प्रेन्द्राग्निभ्यां सुवचस्यामियर्मि सिन्धाविव प्रेरयं नावमर्कैः।
अयाइव  परि चरन्ति  देवा ये अस्मभ्यं धनदा उद्भिदश्च ॥9॥

हे  सूर्यदेव  हे  अग्निदेव  तुम  धन - वैभव  देते  रहना ।
तुम पूजनीय हो तुम पावन हो सतत हमारी रक्षा करना ॥9॥ 

Tuesday, 19 November 2013

सूक्त - 117

[ऋषि- भिक्षु आङ्गिरस । देवता- अन्न । छन्द- त्रिष्टुप-गायत्री ।]

10132
न वा उ देवा: क्षुधमिद्वधं ददुरुताशितमुप गच्छन्ति मृत्यवः ।
उतो रयिःपृणतो नोप दस्यत्युतापृणन्मर्डितारं न विन्दते॥1॥

पेट  की  भूख  बडी  दुखदायी पर खाकर भी तो लोग मरते हैं ।
दानी का धन कम नहीं होता कृपण सुखी नहीं हो सकते हैं॥1॥

10133
य आध्राय  चकमानाय पित्वोSन्नवान्त्सन्रफितयोपजग्मुषे ।
स्थिरं मनः कृणुते सेवते पुरोतो चित्स मर्डितारं न विन्दते॥2॥

भूख  से  व्याकुल  मानव  जब  भोजन  की  याचना करता है ।
उसे अन्न न दे कर जो खाता वह सुख से वञ्चित रहता  है॥2॥

10134
स   इभ्दोजो   यो   गृहवे   ददात्यन्नकामाय   चरते  कृशाय ।
अरमस्मै   भवति   यामहूता  उतापरीषु  कृणुते  सखायम् ॥3॥

दीनों  को  अन्न - दान जो करता वह ही तो सचमुच दाता है ।
वह  वैरी  को  मित्र  बनाता  वह  ही यज्ञों का फल पाता है ॥3॥

10135
न  स  सखा  यो  न  ददाति  सख्ये  सचाभुवे  सचमानाय  पित्वः ।
अपास्मात्प्रेयान्न तदोको अस्ति पृणन्तमन्यमरणं चिदिच्छेत्॥4॥

जो मित्र समय पर काम न आए वह मित्र होकर भी मित्र नहीं है ।
ऐसे  कृपण  को  त्याग- कर  उससे दूर चले जाना ही सही है ॥4॥

10136
पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान्द्राघीयांसमनु पश्येत् पन्थाम् ।
ओ  हि  वर्तन्ते  रथ्येव  चक्रान्यमन्यमुप  तिष्ठन्त  रायः ॥5॥ 

याचक को धन-अन्न दान कर धनी अपना दायित्व निभायें ।
धन-लक्ष्मी स्थिर नहीं होती सत्कर्म करें और सुख  पायें ॥5॥

10137
मोघमन्नं  विन्दते  अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य ।
नार्यमणं  पुष्यति  नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी ॥6॥

धन है फिर भी दान नहीं है वह धन दुखदायी बन जाता है ।
बिना दान जो खुद खाता है वह अन्न विषैला बन जाता है॥6॥ 

10138
कृषन्नित्फाल आशित कृणोति यन्नध्वानमप वृङ्क्ते चरित्रैः।
वदन्ब्रह्मावदतो  वनीयान्पृणन्नापिरपृणन्तमभि  ष्यात् ॥7॥

जो  खेत  में  मेहनत  करते हैं वे कृषक अन्न घर में लाते हैं ।
अन्न - दान करने वाले ही सुख - संतोष - सतत  पाते हैं ॥7॥

10139
एकपाद्भूयो  द्विपदो  वि  चक्रमे  द्विपात्त्रिपादमभ्येति पश्चात् ।
चतुष्पादेति द्विपदामभिस्वरे संपश्यन्पङ्क्तीरुपतिष्ठमानः॥8॥

धन  हो  बल  हो  या  कि ज्ञान  हो मनुज निरन्तर  बढता है ।
शिखर पहुँचने  की इच्छा से वह एक-एक सीढी चढता है ॥8॥

10140
समौ चिध्दस्तौ न समं विविष्टि:सम्मातरा चिन्न  समं  दुहाते।
यमयोश्चिन्न समा वीर्याणि ज्ञाती चित्सन्तौ न समं पृणीत:॥9॥

हर  मानव  है  पृथक  यहॉं  पर  सबका अलग-अलग व्यवहार ।
अन्न - दान  करना  सीखें  हम यह  है उत्तम आचार-विचार ॥9॥ 

Monday, 18 November 2013

सूक्त - 118

[ऋषि-उरुक्षय आमहीयव । देवता- अग्नि ।छन्द- गायत्री ।]

10141
अग्ने हंसि न्य1त्रिणं दीद्यन्मर्त्येष्वा । स्वे क्षये शुचिव्रत॥1॥

हे  अग्नि - देव  हे  तेज - पुञ्ज  तम  से  तुम्हीं  बचाते  हो ।
रोगाणु  नष्ट  तुम  ही  करते  हो  निरोगी  हमें बनाते हो ॥1॥

10142
उत्तिष्ठसि स्वाहुतो घृतानि प्रति मोदसे । यत्त्वा स्त्रुचःसमस्थिरन् ॥2॥

घृत - आहुति  है  तुम्हें  समर्पित  सादर  ग्रहण करो भगवन ।
श्रध्दा से अर्पित करते हैं भली-भॉंति हो अग्नि-प्रज्ज्वलन॥2॥

10143
स आहुतो वि रोचतेSग्निरीळेन्यो गिरा । स्त्रुचा प्रतीकमज्यते ॥3॥

सादर  आवाहन  है  प्रभुवर  स्तवन  प्रेम  से  हम  पढते  हैं ।
घृत-आहुति हम सर्व-प्रथम हे अग्नि-देव अर्पित करते हैं ॥3॥

10144
घृतेनाग्निः समज्यते मधुप्रतीक आहुतः। रोचमानो विभावसु:॥4॥

हविष्यान्न  जब  तुम  लेते  हो  और  तृप्त  जब  हो  जाते  हो ।
स्तुति से आहुति से प्रदीप्त तुम प्रकाश-पुञ्ज बन जाते हो ॥4॥

10145
जरमाणः समिध्यसे देवेभ्यो हव्यवाहन । तं त्वा हवन्त मर्त्या:॥5॥

तुम  देवों के हवि-वाहक हो  स्तुति से  तुम्हें  नमन  करते हैं ।
हम बहुत प्रभावित हैं तुमसे  हम आवाहन  करते रहते हैं ॥5॥

10146
तं मर्ता अमर्त्यं घृतेनाग्निं सपर्यत ।अदाभ्यं गृहपतिम् ॥6॥

हे  अग्नि-देव  हे  अविनाशी  तुम  ही  गृहपति  हो  भगवन ।
तुम  सदा  हमारी रक्षा करना हम करते हैं पूजन-अर्चन ॥6॥

10147
अदाभ्येन शोचिषाग्ने रक्षस्त्वं दह।गोपा ऋतस्य दीदिहि॥7॥

असुर - वृत्ति  से  करो  सुरक्षा  तुम  हो  अतिशय  बलशाली ।
तुझ में अदम्य तेज है प्रभु सज्जनता की करते रखवाली ॥7॥ 

10148
स त्वमग्ने प्रतीकेन प्रत्योष यातुधान्यः। उरुक्षयेषु दीद्यत्॥8॥

सहज - स्वाभाविक  रूप  तुम्हारा  रोगों  से  हमें  बचाता  है ।
निर्धारित  स्थानों  में  रहकर  जग  को  नीरोग  बनाता है ॥8॥

10149
तं त्वा गीर्भिरुरुक्षया हव्यवाहं समीधिरे।यजिष्ठं मानुषे जने॥9॥

निवास  तुम्हारा  अति  विस्तृत  है  तुम  ही  हवि के वाहक हो ।
हम वेद- मंत्र से तुम्हें बुलाते तुम जीव-जगत के पालक हो ॥9॥ 

Sunday, 17 November 2013

सूक्त - 119

[ऋषि- लब ऐन्द्र । देवता- आत्म-स्तुति । छन्द- गायत्री ।]

10150
इति वा इति मे मनो गामश्चं सनुयामिति । कुवित्सोमस्यापामिति ॥1॥

गौ - अश्वादि  दान  की  इच्छा  सहज  ही  मन में उठती है ।
मैं सदा सोम-रस पीता हूँ इससे मुझको ऊर्जा मिलती है ॥1॥

10151
प्र वाताइव दोधत उन्मा पीता अयंसत । कुवित्सोमस्यापामिति ॥2॥

पवन-देव  की  अति-गति  भी सबको  प्रोत्साहित  करती  है ।
मैं नित्य सोम-औषधि पीता हूँ यह मुझको प्रेरित करती है ॥2॥

10152
उन्मा पीता अयंसत रथमश्वा इवाशवः । कुवित्सोमस्यापामिति ॥3॥

ज्यों तीव्र - वेग गामी घोडा झट मंज़िल तक पहुँचाता है ।
वैसे ही सोम-रस पीने वाला उद्यमी सफलता पाता है ॥3॥

10153
उप मा मतिरस्थित वाश्रा पुत्रमिव प्रियम्। कुवित्सोमस्यापामिति॥4॥

जैसे  रंभाती  गौ  अपने  बछडे  के  पास  चली  जाती  है ।
वैसे ही हर दिव्य-भावना मुझ तक निःशब्द चली आती है॥4॥

10154
अहं तष्टेव वन्धुरं पर्यचामि हृदा मतिम् । कुवित्सोमस्यापामिति ॥5॥

रथ में सारथी-जगह होती है यह बहुत महत्व-पूर्ण होती है ।
मन-मति एक-दूजे की पूरक मन-मति की द्युति होती है ॥5॥

10155
नहि मे अक्षिपच्चनाच्छान्त्सुःपञ्च कृष्टयः।कुवित्सोमस्यापामिति॥6॥

चर-अचर सभी को देखता हूँ दृष्टि से बाहर कुछ भी नहीं है ।
मैं सदा सोम-रस पीता हूँ सब पर मेरा ही नियंत्रण है ॥6॥

10156
नहि मे रोदसी उभे अन्य पक्षं चन प्रति । कुवित्सोमस्यापामिति ॥7॥

अवनि-अंतरिक्ष दोनों के बल की तुलना में मैं ही भारी हूँ ।
मैं सदा सोम-रस पीता हूँ मैं तो निर्मल शाकाहारी हूँ॥7॥

10157
अभि द्यां महिना भुवमभी3मां पृथिवीं महीम्। कुवित्सोमस्यापामिति॥8॥

आत्म-देव की महिमा अद्भुत अभिभूत अवनि को करता हूँ ।
मैं  सदा सोम - रस पीता हूँ मैं कल्प - वृक्ष संग रहता हूँ ॥8॥

10158
हन्ताहं पृथिवीमिमां नि दधानीह वेह वा। कुवित्सोमस्यापामिति ॥9॥

मैं आत्म - देव  हूँ अति-समर्थ असंभव - संभव कर सकता हूँ ।
मैं सदा सोम - रस पीता हूँ नित-नित शुभ-चिंतन करता हूँ॥9॥

10159
ओषमित्पृथिवीमहं जङ्घनानीह वेह वा। कुवित्सोमस्यापामिति॥10॥

देव - अंश मैं आत्म - देव हूँ  सामर्थ्य  अत्यधिक  रखता  हूँ ।
सब कुछ करने में समर्थ हूँ सोम-रस-पान सदा करता हूँ॥10॥

10160
दिवि मे अन्यः पक्षो3धो अन्यमचीकृषम्। कुवित्सोमस्यापामिति॥11॥

मैं  अंतरिक्ष  पर  और  धरती  पर  एक  साथ  रह  सकता  हूँ ।
कहीं भी आ और जा सकता हूँ सोम-रस-पान सदा करता हूँ ॥11॥

10161
अहमस्मि महामहोSभिनभ्यमुदीषितः। कुवित्सोमस्यापामिति॥12॥

अंतरिक्ष सम उदित सूर्य - सम उज्ज्वल-आभा लेकर जीता हूँ ।
कल्प-तरु संग-संग रहता हूँ मैं नित्य सोम का रस पीता हूँ॥12॥

10162
गृहो याम्यरङ्कृतो देवेभ्यो हव्यवाहनः । कुवित्सोमस्यापामिति॥13॥

हवि - वहन  भी  मैं  ही  करता हूँ  हवि ग्रहण भी मैं ही करता हूँ ।
मैं ही सब व्यवहार निभाता सोम - रस-पान सदा करता हूँ॥13॥



  

Saturday, 16 November 2013

सूक्त - 120

[ऋषि- बृहद्दिव आथर्वण । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10163
तदिदास    भुवनेषु    ज्येष्ठं    यतो   जज्ञ   उग्रस्त्वेष्नृम्णः ।
सद्यो  जज्ञानो  नि  रिणाति  शत्रूननु यं विश्वे मदन्त्यूमा: ॥1॥

समस्त भुवन में देशकाल में बल में तेज में प्रभु तुम ही हो ।
अज्ञान-तमस को मित्र मिटाता जग प्रेरक-बल भी तुम हो॥1॥

10164
वावृधानः   शवसा   भूर्योजा:   शत्रुर्दासाय   भियसं   दधाति ।
अव्यनच्च  व्यनच्च  सस्नि  सं  ते  नवन्त  प्रभृता मदेषु ॥2॥

मित्र  मेघ  पर  भारी  पडता  चर-अचर  जीव का संचालक है ।
रवि  प्रभूत  बल  का स्वामी हैं वह ही तो आनंद-दायक है ॥2॥

10165
त्वे    क्रतुमपि    वृञ्जन्ति    विश्वे    द्विर्यदेते    त्रिर्भवन्त्यूमा: ।
स्वादोः स्वादीयः स्वादुना सृजा समदः सु मधु मधुनाभि योधी:॥3॥

हम  अनुष्ठान  करते  हैं  प्रभु-वर  सत्कर्मों  का  पाठ- पढाना ।
सदा स्वस्थ हों सदा निरोगी धन-संतति को सतत बढाना ॥3॥

10166
इति  चिध्दि  त्वा  धना  जयन्तं  मदेमदे  अनुमदन्ति  विप्रा: ।
ओजीयो धृष्णो स्थिरमा तनुष्व मा त्वा दभन्यातुधाना दुरेवा:॥4॥

तुम   धन - वैभव   के  स्वामी   हो   प्रभु  तेजस्वी  हमें   बनाना ।
निर्भय  होकर  जियें जगत में सन्मार्ग हमें अब तुम्हीं बताना ॥4॥

10167
त्वया   वयं   शाशद्महे   रणेषु   प्रपश्यन्तो   युधेन्यानि   भूरि ।
चोदयामि त आयुधा वचोभिः सं ते शिशामि ब्रह्मणा वयांसि॥5॥

तेरी  दया  से  जीत  मिली  है  दुश्मन  मेरा  हुआ  है  निर्बल ।
सद्-विचार  में  बल  है  भगवन  तुम  ही  तो हो मेरा संबल ॥5॥ 

10168
स्तुषेय्यं                पुरुवर्पसमृभ्वमिनतममाप्त्यमाप्त्यानाम् ।
आ दर्षते  शवसा  सप्त  दानून्प्र  साक्षते  प्रतिमानानि  भूरि ॥6॥

सब  रूपाकार  में  तुम  ही  तुम हो सतत नमन हम करते हैं ।
सदा   सुरक्षा   देना   भगवन   तेरी  गरिमा  गाते  रहते  हैं ॥6॥

10169
नि   तद्दधिषेSवरं   परं   च   यस्मिन्नाविथावसा   दुरोणे ।
आ  मातरा  स्थापयसे  जिगत्नू  अत इनोषि कर्वरा पुरूणि ॥7॥

हम   हविष्यान्न  देते  हैं  प्रभु  तुम  धन - धान  हमें  देना ।
तुम  हो  सम्पूर्ण  विश्व के स्वामी जग - रक्षा - स्वयं लेना ॥7॥

10170
इमा   ब्रह्म   बृहद्दिवो   विवक्तीन्द्राय   शूषमग्रियः   स्वर्षा: ।
महो गोत्रस्य क्षयति स्वराजो दुरश्च विश्वा अवृणोदप स्वा:॥8॥

अमित ज्ञान आलोक-प्रभा के लिए स्वयं हम हों आनन्दित ।
वह हम सबको सहज-सुलभ है वेद-ऋचायें करें निनादित ॥8॥

10171
एवा     महान्बृहद्दिवो     अथर्वावोचत्स्वां     तन्व1मिन्द्रमेव ।
स्वसारो मातरिभ्वरीररिप्रा हिन्वन्ति च शवसा वर्धयन्ति च॥9॥

ज्ञानी   प्रभु   से   बातें   करता   है  होते  हैं  अनगिन  सम्वाद ।
परा - पकृति  आमोद  बढाती  करती  रहती  सतत  निनाद ॥9॥   
 
  

Friday, 15 November 2013

सूक्त - 121

[ऋषि- हिरण्यगर्भ प्राजापत्य । देवता- कौन । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10172
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे  भूतस्य  जातः  पतिरेक आसीत् ।
स दाधारः पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥1॥

एक ही परमपिता है जग में सुख - स्वरूप सबका स्वामी है ।
वही  पिता है हम सबका भी भक्ति - स्वरूप देव-धामी है ॥1॥

10173
य आत्मदा  बलदा  यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य  देवा: ।
यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥2॥

वह भौतिक - आध्यात्मिक बल देता उसके सभी उपासक हैं ।
दृष्टि अमित है जिस प्रभु की उस अद्वितीय के आराधक हैं ॥2॥

10174
यः  प्राणतो  निमिषतो  महित्वैक   इद्राजा   जगतो   बभूव ।
य  ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥3॥

जो मनुज और मृग  सबका  ही जग का एकमात्र  स्वामी  है ।
उस सुख - स्वरूप  परमेश्वर  की  उपासना ऊर्ध्व-गामी है ॥3॥

10175
यस्येमे   हिमवन्तो   महित्वा   यस्य  समुद्रं  रसया  सहाहुः ।
यस्येमा: प्रदिशो  यस्य  बाहू  कस्मै  देवाय हविषा विधेम ॥4॥

हिम-आलय और अन्य शिखर जिसकी महिमा-गरिमा गाते हैं।
दिशा बाहु  हैं  उसी  परम  के  उसका  हम  आरोह  पाते  हैं ॥4॥

10176
येन  द्यौरुग्रा  पृथिवी  च दृळहा येन स्वः स्तभितं  येन  नाकः ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै  देवाय  हविषा विधेम ॥5॥

अवनि और अम्बर को जिसने  किया  कुशलता  से  स्थापित ।
आलोक हेतु आदित्य  दिया है अवदानों से  हैं  आप्लावित ॥5॥

10177
यं  क्रन्दसी  अवसा  तस्तभाने  अभ्यै  क्षेतां  मनसा  रेजमाने ।
यत्राधि सूर उदितो  विभाति  कस्मै  देवाय  हविषा  विधेम ॥6॥

परम  प्रकाशक  है  परमात्मा  जीवन - दायिनी  यह  धरती है ।
धरा - गगन आलोकित  होते  मानवता  सुख  से  पलती है ॥6॥

10178
आपो ह  यद्  बृहतीर्विश्वमायन्गर्भं  दधाना  जनयन्तीरग्निम् ।
ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै  देवाय  हविषा विधेम ॥7॥

प्राण - भूत   वह  परमेश्वर  भी   इसी  जगत  में  विद्यमान  है ।
अहं  ब्रह्मास्मि सत्य है सचमुच वही पिता है यह  प्रमाण है ॥7॥

10179
यश्चिदापो   महिना   पर्यपश्यद्दक्षं   दधाना   जनयन्तीर्यज्ञम् ।
यो  देवेष्वधि  देव एक आसीत्कस्मै देवाय  हविषा  विधेम ॥8॥

शक्ति-पुञ्ज  है  वह   परमात्मा हम उसकी  उपासना करते  हैं ।
सुख-स्वरूप  वह  ही  प्रणम्य  है हम उनकी स्तुति करते हैं ॥8॥

101180
मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान ।
यश्च्चापश्चन्द्रा   बृहतीर्जजान   कस्मै  देवाय  हविषा  विधेम ॥9॥

जो  धरा - गगन  का  रक्षक  है  जो  हम  सबका  दुख-हरता  है ।
उस  सुख-स्वरूप  परमेश्वर  की  यह जग उपासना करता है ॥9॥

10181
प्रजापते  न  त्वदेतान्यन्यो  विश्वा  जातानि  परि  ता  बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥10॥

हे  स्वामी  हे  सुख  स्वरूप  प्रभु  हम  तेरा  अर्चन  करते  हैं ।
दया-दृष्टि  हम  पर  रखना  प्रभु  यही  निवेदन कर सकते हैं ॥10॥  

Thursday, 14 November 2013

सूक्त- 122

[ऋषि- चित्रमहा वासिष्ठ । देवता- अग्नि । छन्द- जगती-त्रिष्टुप ।]

10182
वसुं    न  चित्रमहसं   गृणीषे     वामं    शेवमतिथिमद्विषेण्यम् ।
स रासते शुरुधो विश्वधायसोअSग्निर्होता गृहपतिः सुवीर्यम् ॥1॥

सूर्य - सदृश   हे  अग्नि - देव   प्रभु   हमको   चारों  बल   दे  दो ।
तुम  सबके  दुख निवारक  हो  प्रभु  अपनी  भक्ति  हमें  दे दो ॥1॥ 

10183
जुषाणो अग्ने प्रति हर्य मे वचो विश्वानि विद्वान् वयुनानि सुक्रतो।
घृतनिर्णिग्ब्रह्मणे  गातुमेरय  तव  देवा  अजनयन्ननु  व्रतम् ॥2॥

हम   प्रेम   से  पूजा   करते   हैं   हे  अग्नि - देव  स्वीकार  करो ।
सामवेद   हम   भी  गायें  प्रभु  तुम  सद् - गुण  भण्डार  भरो ॥2॥

10184
सप्त   धामानि   परियन्नमर्त्यो   दाशद्दाशुषे  सुकृते   मामहस्व ।
सुवीरेण रयिणाग्ने स्वाभुवा यस्त आनट् समिधा त्वं जुषस्व॥3॥

तुम   ही   धन - संतति  देते  हो  मेरा   अभीष्ट   भी   पूर्ण   करो ।
हम  हवियान्न  तुमको  देते  हैं  धन  व  धान्य  भण्डार  भरो ॥3॥

10185
यज्ञस्य केतुं प्रथमं- पुरोहितं  हविष्मन्त  ईळते  सप्त  वाजिनम् ।
शृण्वन्तमग्निं   घृतपृष्ठमुक्षणं  पृणन्तं  देवं  पृणते  सुवीर्यम् ॥4॥

हे  अभीष्ट  फल-दाता  भगवन  तुम  ही  तेजस्वी  तुम बलिष्ट हो ।
धन - वैभव  हमको  भी  दो प्रभु तुम अविनाशी तुम्हीं ईष्ट हो ॥4॥

10186
त्वं   दूतः   प्रथमो   वरेण्य:   स   हूयमानो   अमृताय   मत्स्व ।
त्वां मर्जयन्मरुतो दाशुषो गृहे त्वां स्तोमेभिर्भृगवो वि रुरुचुः ॥5॥

सब   देवों   को   हवि   हे  भगवन   मुख्य  रुप  से  तुम  देते  हो ।
तुम   सर्वोत्तम   पूजनीय   हो  दीर्घ - आयु   तुम   ही   देते  हो ॥5॥

10187
इषं   दुह्न्त्सुदुघां  विश्वधायसं   यज्ञप्रिये  यजमानाय   सुक्रतो ।
अग्ने    घृतस्नुस्त्रिरृतानि   दीद्यद्वर्तिर्यज्ञं   परियन्त्सुक्रतूयसे ॥6॥

यज्ञ - स्थल  में तुम्हीं विराजित सत्कर्म - यज्ञ करते सम्पादित ।
हम सत्कर्म सीख जायें प्रभु हमें  भी कर दो तुम्हीं व्यवस्थित॥6॥

10188
त्वामिदस्या  उषसो  व्युष्टिषु  दूतं  कृण्वाना  अयजन्त  मानुषा:।
त्वां  देवा  महयाय्याय  वावृधुराज्यमग्ने  निमृजन्तो अध्वरे ॥7॥

सुबह - सुबह  ही  यज्ञ  होता  है  ऊषा - काल  में  तुम  आते  हो ।
तुम  देव - गणों  के  पूजनीय हो जन - श्रध्दा से हवि  पाते हो ॥7॥

10189
नि  त्वा  वसिष्ठा  अह्वन्त वाजिनं गृणन्तो अग्ने  विदथेषु वेधसः ।
रायस्पोषं  यजमानेषु  धारय  यूयं  पात स्वस्तिभिः सदा  नः ॥8॥

हे  अग्नि  अन्नदाता  हो  तुम  हम  सब  तेरी  स्तुति  करते  हैं ।
यश  और  धन  वे   ही  देते  हैं  सतत - सुरक्षित  वे  रखते  हैं ॥8॥