Saturday, 23 November 2013

सूक्त - 113

[ऋषि- शत प्रभेदन वैरूप । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती-त्रिष्टुप ।]

10094
तमस्य    द्यावापृथिवी    सचेतसा   विश्वेभिर्देवैरनु   शुष्ममावताम् ।
यदैत्कृण्वानो महिमानमिन्द्रियं पीत्वी सोमस्य क्रतुमॉं अवर्धत॥1॥

सब  देवों  के  साथ  धरा  भी पवन को प्रोत्साहित करती है ।
मेघ  हमें  जल  दे  देते  हैं  धरती  धन-धान  से भरती है ॥1॥

10095
तमस्य विष्णुर्महिमानमोजसांशु दधन्वान्मधुनो वि रप्शते।
देवेभिरिन्द्रो मघवा  सयावभिर्वृत्रं  जघन्वॉं अभवद्वरेण्यः॥2॥

असुर- दमन अति आवश्यक है हे प्रभु सदा सुरक्षित रखना ।
प्राण -पवन -पावन पा जायें मेघों से जल बरसाते रहना ॥2॥

10096
वृत्रेण  यदहिना  बिभ्रदायुधा  समस्थिथा  युधये  शंसमाविदे ।
विश्वे ते अत्र मरुतःसह त्मनावर्धन्नुग्र महिमानमिन्द्रियम्॥3॥

इन्द्र  के  पास  वज्र  आयुध  है  दुष्ट - दमन  वे  ही  करते  हैं ।
पवन  इन्द्र  के  प्रेरक  बनकर  उनका यश - वर्धन करते हैं ॥3॥

10097
जज्ञान  एव  व्यबाधत्स्पृधः  प्रापश्यद्वीरो  अभि  पौंस्यं रणम् ।
अवृश्चदद्रिमव सस्यदःसृजदस्तभ्नान्नाकं स्वपस्यया पृथुम्॥4॥

इन्द्र   दुष्ट   के   महाकाल   हैं   वे   असुरों   के   संहारक   हैं ।
महाबली   हैं   इन्द्र - देवता   शौर्य - धैर्य   के   संवाहक   हैं ॥4॥

10098
आदिन्द्रः सत्रा तविषीरपत्यत वरीयो द्यावापृथिवी अबाधत ।
अवाभरद्ध्रिषितो वज्रमायसं शेवं मित्राय वरुणाय दाशुषे॥5॥

सूर्य - देव  और  वरुण - देव  को  वज्रायुध  प्यारा  लगता है ।
दुर्जन  उससे  भय  खाते  हैं  वह  सबकी  रक्षा  करता  है ॥5॥

10099
इन्द्रस्यात्र तविषीभ्यो विरप्शिन ऋघायतो अरंहयन्त मन्यवे।
वृत्रं   यदुग्रो   व्यवृश्चदोजसापो  बिभ्रतं  तमसा  परीवृतम् ॥6॥

सज्जन  दुर्जन  पर  भारी  है  होती  है  सदा  सत्य  की  जीत ।
झूठ की उमर बहुत कम होती मान लो तुम भी मन के मीत॥6॥

10100
या वीर्याणि प्रथमानि कर्त्वा महित्वेभिर्यतमानौ समीयतुः ।
ध्वान्तं तमोSव दध्वसे हत इन्द्रो मह्ना पूर्वहूतावपत्यत॥7॥

विजयी  हुए  इन्द्र  ही  रण  में  असुर-असत्य  की  हुई हार ।
अँधियारा मिट गया तमस पर प्रकाश ने किया पाद-प्रहार॥7॥

10101
विश्वे  देवासो  अध  वृष्ण्यानि  तेSवर्धयन्त्सोमत्या  वचस्यया ।
रध्दं वृत्रमहिमिन्द्रस्य हन्मनाग्निर्न जम्भैस्तृष्वन्नमावयत्॥8॥

हो गए देव-गण आनन्दित हुआ  इन्द्र  का  फिर सम्मान ।
सज्जनता की जीत हुई थी ग्रहण किए सब हविष्यान्न॥8॥ 

10102
भूरि  दक्षेभिर्वचनेभिरृक्वभिः  सख्येभिः  सख्यानि  प्र  वोचत।
इन्द्रो धुनिं च चुमुरिं च दम्भयञ्छ्रध्दामनस्या श्रृणुते दभीतये॥9॥

जो जन-हित में रत रहता है उसका ही होता है सम्मान ।
उसका यश बढता जाता है हर कोई उसको देता मान ॥9॥

10103
त्वं   पुरुण्या  भरा  स्वश्व्या   येभिर्मंसै   निवचनानि  शंसन् ।
सुगेभिर्विश्वा  दुरिता  तरेम  विदो षु ण उर्विया गाधमद्य॥10॥

हे  इन्द्र - देव अब तुम्हीं संभालो संकट से तुम हमें बचा लो ।
नमन तुम्हें हम करते हैं प्रभु हमें प्रेम से तुम अपना लो॥10॥      

1 comment:

  1. सुंदर अनुवाद और भावार्थ...

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