Monday, 4 November 2013

सूक्त - 136

[ऋषि- वातरशन मुनिगण । 1-जूति 2-वातजूति 3-विप्रजूति 4-वृषाणक 5-करिक्रत 6-एतश 7-ऋष्यश्रृङ्ग ।देवता- केशी । छन्द- अनुष्टुप ।]

10289
केश्य1ग्निं  केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी ।
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥1॥

अग्नि-जल-भू का धारक रवि है जग में आलोक वही बिखराता ।
अरुण से ही जग  दर्शनीय  है अरुणॉंचल ही केशी कहलाता ॥1॥

10290
मुनयो   वातरशना:   पिशङ्गा   वसते  मला ।
वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत॥2॥

वातरवंशज  पीत-वसन  में  तापस-जीवन  व्यतीत  करता  है ।
तपश्चर्या  जब  पक  जाती  है पवन-वेग सम वह  चलता है ॥2॥

10291
उन्मदिता मौनयेन वातॉं आ तस्थिमा वयम्।
शरीरेदस्माकं यूयं  मतार्सो अभि पश्यथ ॥3॥

लौकिक  लोकाचार  छोडकर  वह  परमहंस  सम  हो  जाता है ।
आनन्द-निमग्न सदा रहता है जन देह-मात्र को ही पाता है॥3॥

10292
अन्तरिक्षेण   पतति   विश्वा   रूपावचाकशत् ।
मुनिर्देवस्यदेवस्य सौकृत्याय सखा हितः ॥4॥

गगन मार्ग पर वह चलता है दिव्य - दृष्टि शुभ-शुभ कहती हैं ।
देव - शक्तियॉं  मित्र - भाव से सत्कर्मों  में ही रत रहती  हैं ॥4॥

10293
वातस्याश्वो वायोः सखाथो देवेषितो मुनिः ।
उभौ समुद्रावा  क्षेति  यश्च पूर्व उतापरः ॥5॥

पवन  सखा  है  इन  ऋषियों  का  पवन-वेग  से  वे चलते हैं ।
देवों को भी दुर्लभ हैं मुनिजन यदा-कदा ही कहीं ठहरते हैं॥5॥

10294
अप्सरसां   गन्धर्वाणां   मृगाणां   चरणे   चरन् ।
केशी केतस्य विद्वान्त्सखा स्वादुर्मदिन्तमः ॥6॥

सूर्य - रश्मियॉं  हमें  बुलातीं  करती  हैं  नव  जीवन  संचार ।
विषय-रस-आनन्द रवि देता है करता है सबको स्वीकार ॥6॥

10295
वायुरस्मा उपामन्थत्पिनष्टि स्मा कुनन्न्मा ।
केशी  विषस्य  पात्रेण  यद्रुद्रेणापिबत्सह ॥7॥

जब सूर्य-रश्मियॉं जल पीती हैं तब पवन-धरा रस घोलते हैं ।
मध्यमा- वाक् मंथन करती है तब  ही केशी जल पीते हैं ॥7॥ 





 

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