[ऋषि- वातरशन मुनिगण । 1-जूति 2-वातजूति 3-विप्रजूति 4-वृषाणक 5-करिक्रत 6-एतश 7-ऋष्यश्रृङ्ग ।देवता- केशी । छन्द- अनुष्टुप ।]
10289
केश्य1ग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी ।
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥1॥
अग्नि-जल-भू का धारक रवि है जग में आलोक वही बिखराता ।
अरुण से ही जग दर्शनीय है अरुणॉंचल ही केशी कहलाता ॥1॥
10290
मुनयो वातरशना: पिशङ्गा वसते मला ।
वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत॥2॥
वातरवंशज पीत-वसन में तापस-जीवन व्यतीत करता है ।
तपश्चर्या जब पक जाती है पवन-वेग सम वह चलता है ॥2॥
10291
उन्मदिता मौनयेन वातॉं आ तस्थिमा वयम्।
शरीरेदस्माकं यूयं मतार्सो अभि पश्यथ ॥3॥
लौकिक लोकाचार छोडकर वह परमहंस सम हो जाता है ।
आनन्द-निमग्न सदा रहता है जन देह-मात्र को ही पाता है॥3॥
10292
अन्तरिक्षेण पतति विश्वा रूपावचाकशत् ।
मुनिर्देवस्यदेवस्य सौकृत्याय सखा हितः ॥4॥
गगन मार्ग पर वह चलता है दिव्य - दृष्टि शुभ-शुभ कहती हैं ।
देव - शक्तियॉं मित्र - भाव से सत्कर्मों में ही रत रहती हैं ॥4॥
10293
वातस्याश्वो वायोः सखाथो देवेषितो मुनिः ।
उभौ समुद्रावा क्षेति यश्च पूर्व उतापरः ॥5॥
पवन सखा है इन ऋषियों का पवन-वेग से वे चलते हैं ।
देवों को भी दुर्लभ हैं मुनिजन यदा-कदा ही कहीं ठहरते हैं॥5॥
10294
अप्सरसां गन्धर्वाणां मृगाणां चरणे चरन् ।
केशी केतस्य विद्वान्त्सखा स्वादुर्मदिन्तमः ॥6॥
सूर्य - रश्मियॉं हमें बुलातीं करती हैं नव जीवन संचार ।
विषय-रस-आनन्द रवि देता है करता है सबको स्वीकार ॥6॥
10295
वायुरस्मा उपामन्थत्पिनष्टि स्मा कुनन्न्मा ।
केशी विषस्य पात्रेण यद्रुद्रेणापिबत्सह ॥7॥
जब सूर्य-रश्मियॉं जल पीती हैं तब पवन-धरा रस घोलते हैं ।
मध्यमा- वाक् मंथन करती है तब ही केशी जल पीते हैं ॥7॥
10289
केश्य1ग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी ।
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥1॥
अग्नि-जल-भू का धारक रवि है जग में आलोक वही बिखराता ।
अरुण से ही जग दर्शनीय है अरुणॉंचल ही केशी कहलाता ॥1॥
10290
मुनयो वातरशना: पिशङ्गा वसते मला ।
वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत॥2॥
वातरवंशज पीत-वसन में तापस-जीवन व्यतीत करता है ।
तपश्चर्या जब पक जाती है पवन-वेग सम वह चलता है ॥2॥
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उन्मदिता मौनयेन वातॉं आ तस्थिमा वयम्।
शरीरेदस्माकं यूयं मतार्सो अभि पश्यथ ॥3॥
लौकिक लोकाचार छोडकर वह परमहंस सम हो जाता है ।
आनन्द-निमग्न सदा रहता है जन देह-मात्र को ही पाता है॥3॥
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अन्तरिक्षेण पतति विश्वा रूपावचाकशत् ।
मुनिर्देवस्यदेवस्य सौकृत्याय सखा हितः ॥4॥
गगन मार्ग पर वह चलता है दिव्य - दृष्टि शुभ-शुभ कहती हैं ।
देव - शक्तियॉं मित्र - भाव से सत्कर्मों में ही रत रहती हैं ॥4॥
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वातस्याश्वो वायोः सखाथो देवेषितो मुनिः ।
उभौ समुद्रावा क्षेति यश्च पूर्व उतापरः ॥5॥
पवन सखा है इन ऋषियों का पवन-वेग से वे चलते हैं ।
देवों को भी दुर्लभ हैं मुनिजन यदा-कदा ही कहीं ठहरते हैं॥5॥
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अप्सरसां गन्धर्वाणां मृगाणां चरणे चरन् ।
केशी केतस्य विद्वान्त्सखा स्वादुर्मदिन्तमः ॥6॥
सूर्य - रश्मियॉं हमें बुलातीं करती हैं नव जीवन संचार ।
विषय-रस-आनन्द रवि देता है करता है सबको स्वीकार ॥6॥
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वायुरस्मा उपामन्थत्पिनष्टि स्मा कुनन्न्मा ।
केशी विषस्य पात्रेण यद्रुद्रेणापिबत्सह ॥7॥
जब सूर्य-रश्मियॉं जल पीती हैं तब पवन-धरा रस घोलते हैं ।
मध्यमा- वाक् मंथन करती है तब ही केशी जल पीते हैं ॥7॥
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