[ऋषि- हिरण्यगर्भ प्राजापत्य । देवता- कौन । छन्द- त्रिष्टुप ।]
10172
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधारः पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥1॥
एक ही परमपिता है जग में सुख - स्वरूप सबका स्वामी है ।
वही पिता है हम सबका भी भक्ति - स्वरूप देव-धामी है ॥1॥
10173
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: ।
यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥2॥
वह भौतिक - आध्यात्मिक बल देता उसके सभी उपासक हैं ।
दृष्टि अमित है जिस प्रभु की उस अद्वितीय के आराधक हैं ॥2॥
10174
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥3॥
जो मनुज और मृग सबका ही जग का एकमात्र स्वामी है ।
उस सुख - स्वरूप परमेश्वर की उपासना ऊर्ध्व-गामी है ॥3॥
10175
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः ।
यस्येमा: प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥4॥
हिम-आलय और अन्य शिखर जिसकी महिमा-गरिमा गाते हैं।
दिशा बाहु हैं उसी परम के उसका हम आरोह पाते हैं ॥4॥
10176
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळहा येन स्वः स्तभितं येन नाकः ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥5॥
अवनि और अम्बर को जिसने किया कुशलता से स्थापित ।
आलोक हेतु आदित्य दिया है अवदानों से हैं आप्लावित ॥5॥
10177
यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यै क्षेतां मनसा रेजमाने ।
यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥6॥
परम प्रकाशक है परमात्मा जीवन - दायिनी यह धरती है ।
धरा - गगन आलोकित होते मानवता सुख से पलती है ॥6॥
10178
आपो ह यद् बृहतीर्विश्वमायन्गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम् ।
ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥7॥
प्राण - भूत वह परमेश्वर भी इसी जगत में विद्यमान है ।
अहं ब्रह्मास्मि सत्य है सचमुच वही पिता है यह प्रमाण है ॥7॥
10179
यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद्दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम् ।
यो देवेष्वधि देव एक आसीत्कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥8॥
शक्ति-पुञ्ज है वह परमात्मा हम उसकी उपासना करते हैं ।
सुख-स्वरूप वह ही प्रणम्य है हम उनकी स्तुति करते हैं ॥8॥
101180
मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान ।
यश्च्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥9॥
जो धरा - गगन का रक्षक है जो हम सबका दुख-हरता है ।
उस सुख-स्वरूप परमेश्वर की यह जग उपासना करता है ॥9॥
10181
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥10॥
हे स्वामी हे सुख स्वरूप प्रभु हम तेरा अर्चन करते हैं ।
दया-दृष्टि हम पर रखना प्रभु यही निवेदन कर सकते हैं ॥10॥
10172
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधारः पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥1॥
एक ही परमपिता है जग में सुख - स्वरूप सबका स्वामी है ।
वही पिता है हम सबका भी भक्ति - स्वरूप देव-धामी है ॥1॥
10173
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: ।
यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥2॥
वह भौतिक - आध्यात्मिक बल देता उसके सभी उपासक हैं ।
दृष्टि अमित है जिस प्रभु की उस अद्वितीय के आराधक हैं ॥2॥
10174
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥3॥
जो मनुज और मृग सबका ही जग का एकमात्र स्वामी है ।
उस सुख - स्वरूप परमेश्वर की उपासना ऊर्ध्व-गामी है ॥3॥
10175
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः ।
यस्येमा: प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥4॥
हिम-आलय और अन्य शिखर जिसकी महिमा-गरिमा गाते हैं।
दिशा बाहु हैं उसी परम के उसका हम आरोह पाते हैं ॥4॥
10176
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळहा येन स्वः स्तभितं येन नाकः ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥5॥
अवनि और अम्बर को जिसने किया कुशलता से स्थापित ।
आलोक हेतु आदित्य दिया है अवदानों से हैं आप्लावित ॥5॥
10177
यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यै क्षेतां मनसा रेजमाने ।
यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥6॥
परम प्रकाशक है परमात्मा जीवन - दायिनी यह धरती है ।
धरा - गगन आलोकित होते मानवता सुख से पलती है ॥6॥
10178
आपो ह यद् बृहतीर्विश्वमायन्गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम् ।
ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥7॥
प्राण - भूत वह परमेश्वर भी इसी जगत में विद्यमान है ।
अहं ब्रह्मास्मि सत्य है सचमुच वही पिता है यह प्रमाण है ॥7॥
10179
यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद्दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम् ।
यो देवेष्वधि देव एक आसीत्कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥8॥
शक्ति-पुञ्ज है वह परमात्मा हम उसकी उपासना करते हैं ।
सुख-स्वरूप वह ही प्रणम्य है हम उनकी स्तुति करते हैं ॥8॥
101180
मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान ।
यश्च्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥9॥
जो धरा - गगन का रक्षक है जो हम सबका दुख-हरता है ।
उस सुख-स्वरूप परमेश्वर की यह जग उपासना करता है ॥9॥
10181
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥10॥
हे स्वामी हे सुख स्वरूप प्रभु हम तेरा अर्चन करते हैं ।
दया-दृष्टि हम पर रखना प्रभु यही निवेदन कर सकते हैं ॥10॥
प्राण - भूत वह परमेश्वर भी इसी जगत में विद्यमान है ।
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उसकी महिमा अनंत है...