Friday, 15 November 2013

सूक्त - 121

[ऋषि- हिरण्यगर्भ प्राजापत्य । देवता- कौन । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10172
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे  भूतस्य  जातः  पतिरेक आसीत् ।
स दाधारः पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥1॥

एक ही परमपिता है जग में सुख - स्वरूप सबका स्वामी है ।
वही  पिता है हम सबका भी भक्ति - स्वरूप देव-धामी है ॥1॥

10173
य आत्मदा  बलदा  यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य  देवा: ।
यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥2॥

वह भौतिक - आध्यात्मिक बल देता उसके सभी उपासक हैं ।
दृष्टि अमित है जिस प्रभु की उस अद्वितीय के आराधक हैं ॥2॥

10174
यः  प्राणतो  निमिषतो  महित्वैक   इद्राजा   जगतो   बभूव ।
य  ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥3॥

जो मनुज और मृग  सबका  ही जग का एकमात्र  स्वामी  है ।
उस सुख - स्वरूप  परमेश्वर  की  उपासना ऊर्ध्व-गामी है ॥3॥

10175
यस्येमे   हिमवन्तो   महित्वा   यस्य  समुद्रं  रसया  सहाहुः ।
यस्येमा: प्रदिशो  यस्य  बाहू  कस्मै  देवाय हविषा विधेम ॥4॥

हिम-आलय और अन्य शिखर जिसकी महिमा-गरिमा गाते हैं।
दिशा बाहु  हैं  उसी  परम  के  उसका  हम  आरोह  पाते  हैं ॥4॥

10176
येन  द्यौरुग्रा  पृथिवी  च दृळहा येन स्वः स्तभितं  येन  नाकः ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै  देवाय  हविषा विधेम ॥5॥

अवनि और अम्बर को जिसने  किया  कुशलता  से  स्थापित ।
आलोक हेतु आदित्य  दिया है अवदानों से  हैं  आप्लावित ॥5॥

10177
यं  क्रन्दसी  अवसा  तस्तभाने  अभ्यै  क्षेतां  मनसा  रेजमाने ।
यत्राधि सूर उदितो  विभाति  कस्मै  देवाय  हविषा  विधेम ॥6॥

परम  प्रकाशक  है  परमात्मा  जीवन - दायिनी  यह  धरती है ।
धरा - गगन आलोकित  होते  मानवता  सुख  से  पलती है ॥6॥

10178
आपो ह  यद्  बृहतीर्विश्वमायन्गर्भं  दधाना  जनयन्तीरग्निम् ।
ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै  देवाय  हविषा विधेम ॥7॥

प्राण - भूत   वह  परमेश्वर  भी   इसी  जगत  में  विद्यमान  है ।
अहं  ब्रह्मास्मि सत्य है सचमुच वही पिता है यह  प्रमाण है ॥7॥

10179
यश्चिदापो   महिना   पर्यपश्यद्दक्षं   दधाना   जनयन्तीर्यज्ञम् ।
यो  देवेष्वधि  देव एक आसीत्कस्मै देवाय  हविषा  विधेम ॥8॥

शक्ति-पुञ्ज  है  वह   परमात्मा हम उसकी  उपासना करते  हैं ।
सुख-स्वरूप  वह  ही  प्रणम्य  है हम उनकी स्तुति करते हैं ॥8॥

101180
मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान ।
यश्च्चापश्चन्द्रा   बृहतीर्जजान   कस्मै  देवाय  हविषा  विधेम ॥9॥

जो  धरा - गगन  का  रक्षक  है  जो  हम  सबका  दुख-हरता  है ।
उस  सुख-स्वरूप  परमेश्वर  की  यह जग उपासना करता है ॥9॥

10181
प्रजापते  न  त्वदेतान्यन्यो  विश्वा  जातानि  परि  ता  बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥10॥

हे  स्वामी  हे  सुख  स्वरूप  प्रभु  हम  तेरा  अर्चन  करते  हैं ।
दया-दृष्टि  हम  पर  रखना  प्रभु  यही  निवेदन कर सकते हैं ॥10॥  

1 comment:

  1. प्राण - भूत वह परमेश्वर भी इसी जगत में विद्यमान है ।
    अहं ब्रह्मास्मि सत्य है सचमुच वही पिता है यह प्रमाण है ॥7॥
    उसकी महिमा अनंत है...

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