[ऋषि- अष्ट्रादंष्ट्र वैरूप । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]
10074
मनीषिणः प्र भरध्वं मनीषां यथायथा मतयः सन्ति नृणाम् ।
इन्द्रं सत्यैरेरयामा कृतेभिः स हि वीरो गिर्वणस्युर्विदानं ॥1॥
जैसे - जैसे मति गति पाती वैसा ही करें हम अनुष्ठान ।
इन्द्र-देव सब भाव समझते अभिप्राय जानकर देते ज्ञान॥1॥
10075
ऋतस्य हि सदसो धीतिरद्यौत्सं गार्ष्टेयो वृषभो गोभिरानट् ।
उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण महान्ति चित्सं विव्याचा रजांसि॥2॥
आदित्य- देव आलोक- प्रदाता रवि-रश्मि बनाती रोज वितान।
अंतरिक्ष में वह रहता है सूर्य - देवता सब से महान ॥2॥
10076
इन्द्रः किल श्रुत्या अस्य वेद स हि जिष्णुः पथिकृत्सूर्याय ।
आत्मेनां कृण्वन्नच्युतो भुवद्गोःपतिर्दिवः सनजा अप्रतीत:॥3॥
सूर्य - देव का पथ - प्रशस्त है वेद-वाक् आलोक- अच्युत है ।
इन्द्रदेव-स्वर्ग-अधिपति हैं सर्वाधिक-समर्थ अति अद्भुत हैं॥3॥
10077
इन्द्रो मह्ना महतो अर्णवस्य व्रतामिनादङ्गिरोभिर्गृणानः ।
पुरुणि चिन्नि तताना रजांसि दाधार यो धरुणं सत्यताता॥4॥
परमेश्वर महिमा से महान है वह सबको सतत देखता है ।
हमको जल - राशि वही देता है सभी को वही परखता है ॥4॥
10078
इन्द्रो दिवः प्रतिमानं पृथिव्या विश्वा वेद सवना हन्ति शुष्णम्।
महीं चिद्द्यामातनोत्सूर्येण चास्कम्भ चित्कम्भनेन स्कभीयान्॥5॥
अवनि - अंतरिक्ष का स्वामी समस्त वस्तुओं का ज्ञाता है ।
सबको प्रकाश वह ही देता है सबका धारक है विधाता है ॥5॥
10079
वज्रेण हि वृत्रहा वृत्रमस्तरदेवस्य शूशुवानस्य माया: ।
वि धृष्णो अत्र धृषता जधन्थाथाभवो मघवन्बाह्वोजा: ॥6॥
हे इन्द्र - देव तुम करो सुरक्षा दुष्ट - दमन अति आवश्यक है ।
मेघ सतत जल देते हमको बादल ही जल का संवाहक है॥6॥
10080
सचन्त यदुषसः सूर्येण चित्रामस्य केतवो रामविन्दन् ।
आ यन्नक्षत्रं ददृशे दिवो न पुनर्यतो नकिरध्दा नु वेद ॥7॥
ऊषा - काल में सूर्य - रश्मियॉं धरती पर किलकारी भरती ।
दिन में नक्षत्र छिपे रहते हैं सॉंझ में किरणें ऊपर चढती ॥7॥
10081
दूरं किल प्रथमा जग्मुरासामिन्द्रस्य या: प्रसवे सस्त्रुरापः ।
क्व स्विदग्रं क्व बुध्न आसामापो मध्यं क्व वो नूनमन्तः॥8॥
बहता पानी दूर भागता पता नहीं आरम्भ कहॉं है ।
कुछ भी पता नहीं चल पाता मूल कहॉं है मध्य कहॉं है ॥8॥
10082
सृजः सिन्धूँरहिना जग्रसानॉं आदिदेवा: प्र विविज्रे जवेन ।
मुमुक्षमाणा उत या मुमुचेSधेदेता न रमन्ते नितिक्ता: ॥9॥
रुकी हुई धारा गति - पूर्वक सर्वत्र भागती ही रहती है ।
प्रवाहित-प्राञ्जल-पावन- पानी कभी कहीं नहीं ठहरती है ॥9॥
10083
सध्रीची:सिन्धुमुशतीरिवायन्त्सनाज्जार आरितःपूर्भिदासाम्।
अस्तमा ते पार्थिवा वसून्यस्मे जग्मुः सूनृता इन्द्र पूर्वीः ॥10॥
प्रवाह-पूर्ण-पावन-जल-धारा सागर में जाकर खो जाती है ।
हे प्रभु वाणी का वैभव देना यह वाक्शक्ति मुझको भाती है॥10॥
10074
मनीषिणः प्र भरध्वं मनीषां यथायथा मतयः सन्ति नृणाम् ।
इन्द्रं सत्यैरेरयामा कृतेभिः स हि वीरो गिर्वणस्युर्विदानं ॥1॥
जैसे - जैसे मति गति पाती वैसा ही करें हम अनुष्ठान ।
इन्द्र-देव सब भाव समझते अभिप्राय जानकर देते ज्ञान॥1॥
10075
ऋतस्य हि सदसो धीतिरद्यौत्सं गार्ष्टेयो वृषभो गोभिरानट् ।
उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण महान्ति चित्सं विव्याचा रजांसि॥2॥
आदित्य- देव आलोक- प्रदाता रवि-रश्मि बनाती रोज वितान।
अंतरिक्ष में वह रहता है सूर्य - देवता सब से महान ॥2॥
10076
इन्द्रः किल श्रुत्या अस्य वेद स हि जिष्णुः पथिकृत्सूर्याय ।
आत्मेनां कृण्वन्नच्युतो भुवद्गोःपतिर्दिवः सनजा अप्रतीत:॥3॥
सूर्य - देव का पथ - प्रशस्त है वेद-वाक् आलोक- अच्युत है ।
इन्द्रदेव-स्वर्ग-अधिपति हैं सर्वाधिक-समर्थ अति अद्भुत हैं॥3॥
10077
इन्द्रो मह्ना महतो अर्णवस्य व्रतामिनादङ्गिरोभिर्गृणानः ।
पुरुणि चिन्नि तताना रजांसि दाधार यो धरुणं सत्यताता॥4॥
परमेश्वर महिमा से महान है वह सबको सतत देखता है ।
हमको जल - राशि वही देता है सभी को वही परखता है ॥4॥
10078
इन्द्रो दिवः प्रतिमानं पृथिव्या विश्वा वेद सवना हन्ति शुष्णम्।
महीं चिद्द्यामातनोत्सूर्येण चास्कम्भ चित्कम्भनेन स्कभीयान्॥5॥
अवनि - अंतरिक्ष का स्वामी समस्त वस्तुओं का ज्ञाता है ।
सबको प्रकाश वह ही देता है सबका धारक है विधाता है ॥5॥
10079
वज्रेण हि वृत्रहा वृत्रमस्तरदेवस्य शूशुवानस्य माया: ।
वि धृष्णो अत्र धृषता जधन्थाथाभवो मघवन्बाह्वोजा: ॥6॥
हे इन्द्र - देव तुम करो सुरक्षा दुष्ट - दमन अति आवश्यक है ।
मेघ सतत जल देते हमको बादल ही जल का संवाहक है॥6॥
10080
सचन्त यदुषसः सूर्येण चित्रामस्य केतवो रामविन्दन् ।
आ यन्नक्षत्रं ददृशे दिवो न पुनर्यतो नकिरध्दा नु वेद ॥7॥
ऊषा - काल में सूर्य - रश्मियॉं धरती पर किलकारी भरती ।
दिन में नक्षत्र छिपे रहते हैं सॉंझ में किरणें ऊपर चढती ॥7॥
10081
दूरं किल प्रथमा जग्मुरासामिन्द्रस्य या: प्रसवे सस्त्रुरापः ।
क्व स्विदग्रं क्व बुध्न आसामापो मध्यं क्व वो नूनमन्तः॥8॥
बहता पानी दूर भागता पता नहीं आरम्भ कहॉं है ।
कुछ भी पता नहीं चल पाता मूल कहॉं है मध्य कहॉं है ॥8॥
10082
सृजः सिन्धूँरहिना जग्रसानॉं आदिदेवा: प्र विविज्रे जवेन ।
मुमुक्षमाणा उत या मुमुचेSधेदेता न रमन्ते नितिक्ता: ॥9॥
रुकी हुई धारा गति - पूर्वक सर्वत्र भागती ही रहती है ।
प्रवाहित-प्राञ्जल-पावन- पानी कभी कहीं नहीं ठहरती है ॥9॥
10083
सध्रीची:सिन्धुमुशतीरिवायन्त्सनाज्जार आरितःपूर्भिदासाम्।
अस्तमा ते पार्थिवा वसून्यस्मे जग्मुः सूनृता इन्द्र पूर्वीः ॥10॥
प्रवाह-पूर्ण-पावन-जल-धारा सागर में जाकर खो जाती है ।
हे प्रभु वाणी का वैभव देना यह वाक्शक्ति मुझको भाती है॥10॥
प्रवाह-पूर्ण-पावन-जल-धारा सागर में जाकर खो जाती है ।
ReplyDeleteहे प्रभु वाणी का वैभव देना यह वाक्शक्ति मुझको भाती है॥10॥
वाणी का यह वरदान बना रहे..
आपका अनुवाद अभिभूत कर जाता है।
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