[ऋषि- धर्म-तापस । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप-जगती ।]
10104
घर्मा समन्ता त्रिवृतं व्यापतुष्टयोर्जुष्टिं मातरिश्वा जगाम ।
दिवस्पयो दिधिषाणा अवेषन्विदुर्देवा: सहसामानमर्कम्॥1॥
हे अग्नि - देव आदित्य - देव आलोक प्रदान तुम्हीं करते हो ।
पवन-देव की प्रसन्नता से नभ में जल की रचना रचते हो॥1॥
10105
तिस्त्रो देष्ट्राय निरृतीरुपासते दीर्घश्रुतो वि हि जानन्तिवह्नयः ।
तासां नि चिक्युः कवयो निदानं परेषु या गुह्येषु व्रतेषु ॥2॥
आदित्य अनल अनिल सभी को हविष्यान्न अर्पित करते हैं ।
अग्नि-देव हैं बडे यशस्वी हम सब उन्हें नमन करते हैं ॥2॥
10106
चतुष्कपर्दा युवतिः सुपेशा घृतप्रतीका वयुनानि वस्ते ।
तस्यां सुपर्णा वृषणा नि षेदतुर्यत्र देवा दधिरे भागधेयम्॥3॥
यज्ञ- वेदिका चतुष्कोण है अल्पना-सजी सुन्दर लगती है ।
उस यज्ञ- कुण्ड में देव-शक्ति हविषा- भोग ग्रहण करती है॥3॥
10107
एकः सुपर्णः स समुद्रमा विवेष स इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे ।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळिह स उ रेळिह मातरम्॥4॥
प्राण - रूप इस प्राण - वायु की उपासना प्रतिदिन करते हैं ।
प्राण और मध्यमा परस्पर विचार - विनिमय करते हैं॥4॥
10108
सुपर्णं विप्रा: कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति ।
छन्दांसि च दधतो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश॥5॥
ब्रह्म एक है फिर भी उसे हम विविध नाम आकृति देते हैं ।
सप्त - छन्द से यज्ञ सुसज्जित सोम-पात्र द्वादश लेते हैं ॥5॥
10109
षट्त्रिंशॉंश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम् ।
यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक्सामाभ्यां प्र रथं वर्तयन्ति॥6॥
चालीस सोम - पात्र होते हैं छन्दों के हैं बारह - प्रकार ।
विधि -विधान से अनुष्ठान कर यज्ञ - रथ पाता है आकार ॥6॥
10110
चतुर्दशान्ये महिमानो अस्य तं धीरा वाचा प्र णयन्ति सप्त ।
आप्नानं तीर्थं क इह प्र वोचद्येन पथा प्रपिबन्ते सुतस्य ॥7॥
यज्ञ - देव की महिमा अद्भुत यह वेद - मंत्र का है स्थान ।
अनिवर्चनीय है वेद- मार्ग जहॉ देव भी करते सोम-पान ॥7॥
10111
सहस्त्रधा पञ्चदशान्युक्था यावद् द्यावापृथिवी तावदित्तत् ।
सहस्त्रधा महिमानः सहस्त्रं यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक्॥8॥
ऋचा हजारों फिर भी वैदिक सूक्तों की अकथ कहानी है ।
यह विराट है यह व्यापक है ऐसी अनन्त वेद - वाणी है॥8॥
10112
कश्छन्दसां योगमा वेद धीरः को धिष्ण्यां प्रति वाचं पपाद ।
कमृत्विजामष्टमं शूरमाहुर्हरी इन्द्रस्य नि चिकाय कः स्वित्॥9॥
कौन छन्द की गरिमा जाने कौन सी यज्ञ - विधा को माने ।
कौन है होता प्रमुख कौन है कैसे कह दें बिन पहचानें ॥9॥
10113
भूम्या अन्तं पर्येके चरन्ति रथस्य धूर्षु युक्तासो अस्थुः ।
श्रमस्य दायं वि भजन्त्येभ्यो यदा यमो भवति हर्म्ये हितः॥10॥
प्रभु की महिमा नेति - नेति है कौन उसे कह सकता है ।
जो जाना वह मौन हो गया जो न जाना चुप रहता है ॥10॥
10104
घर्मा समन्ता त्रिवृतं व्यापतुष्टयोर्जुष्टिं मातरिश्वा जगाम ।
दिवस्पयो दिधिषाणा अवेषन्विदुर्देवा: सहसामानमर्कम्॥1॥
हे अग्नि - देव आदित्य - देव आलोक प्रदान तुम्हीं करते हो ।
पवन-देव की प्रसन्नता से नभ में जल की रचना रचते हो॥1॥
10105
तिस्त्रो देष्ट्राय निरृतीरुपासते दीर्घश्रुतो वि हि जानन्तिवह्नयः ।
तासां नि चिक्युः कवयो निदानं परेषु या गुह्येषु व्रतेषु ॥2॥
आदित्य अनल अनिल सभी को हविष्यान्न अर्पित करते हैं ।
अग्नि-देव हैं बडे यशस्वी हम सब उन्हें नमन करते हैं ॥2॥
10106
चतुष्कपर्दा युवतिः सुपेशा घृतप्रतीका वयुनानि वस्ते ।
तस्यां सुपर्णा वृषणा नि षेदतुर्यत्र देवा दधिरे भागधेयम्॥3॥
यज्ञ- वेदिका चतुष्कोण है अल्पना-सजी सुन्दर लगती है ।
उस यज्ञ- कुण्ड में देव-शक्ति हविषा- भोग ग्रहण करती है॥3॥
10107
एकः सुपर्णः स समुद्रमा विवेष स इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे ।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळिह स उ रेळिह मातरम्॥4॥
प्राण - रूप इस प्राण - वायु की उपासना प्रतिदिन करते हैं ।
प्राण और मध्यमा परस्पर विचार - विनिमय करते हैं॥4॥
10108
सुपर्णं विप्रा: कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति ।
छन्दांसि च दधतो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश॥5॥
ब्रह्म एक है फिर भी उसे हम विविध नाम आकृति देते हैं ।
सप्त - छन्द से यज्ञ सुसज्जित सोम-पात्र द्वादश लेते हैं ॥5॥
10109
षट्त्रिंशॉंश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम् ।
यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक्सामाभ्यां प्र रथं वर्तयन्ति॥6॥
चालीस सोम - पात्र होते हैं छन्दों के हैं बारह - प्रकार ।
विधि -विधान से अनुष्ठान कर यज्ञ - रथ पाता है आकार ॥6॥
10110
चतुर्दशान्ये महिमानो अस्य तं धीरा वाचा प्र णयन्ति सप्त ।
आप्नानं तीर्थं क इह प्र वोचद्येन पथा प्रपिबन्ते सुतस्य ॥7॥
यज्ञ - देव की महिमा अद्भुत यह वेद - मंत्र का है स्थान ।
अनिवर्चनीय है वेद- मार्ग जहॉ देव भी करते सोम-पान ॥7॥
10111
सहस्त्रधा पञ्चदशान्युक्था यावद् द्यावापृथिवी तावदित्तत् ।
सहस्त्रधा महिमानः सहस्त्रं यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक्॥8॥
ऋचा हजारों फिर भी वैदिक सूक्तों की अकथ कहानी है ।
यह विराट है यह व्यापक है ऐसी अनन्त वेद - वाणी है॥8॥
10112
कश्छन्दसां योगमा वेद धीरः को धिष्ण्यां प्रति वाचं पपाद ।
कमृत्विजामष्टमं शूरमाहुर्हरी इन्द्रस्य नि चिकाय कः स्वित्॥9॥
कौन छन्द की गरिमा जाने कौन सी यज्ञ - विधा को माने ।
कौन है होता प्रमुख कौन है कैसे कह दें बिन पहचानें ॥9॥
10113
भूम्या अन्तं पर्येके चरन्ति रथस्य धूर्षु युक्तासो अस्थुः ।
श्रमस्य दायं वि भजन्त्येभ्यो यदा यमो भवति हर्म्ये हितः॥10॥
प्रभु की महिमा नेति - नेति है कौन उसे कह सकता है ।
जो जाना वह मौन हो गया जो न जाना चुप रहता है ॥10॥
ऋचा हजारों फिर भी वैदिक सूक्तों की अकथ कहानी है ।
ReplyDeleteयह विराट है यह व्यापक है ऐसी अनन्त वेद - वाणी है॥8॥
वाकई अद्भुत है वेद वाणी ! आभार उसे हमें पढ़वाने के लिए..